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क्रिकेट की गेंद

क्रिकेट की गेंद एक सख्त, ठोस गेंद होती है जिसका इस्तेमाल क्रिकेट खेलने में किया जाता है। चमड़े और काग (कॉर्क) से तैयार क्रिकेट की गेंद, प्रथम श्रेणी स्तर पर पूर्णतया क्रिकेट के नियमों के अधीन होती है। गेंदबाजी करने और बल्लेबाज को आउट करने में क्रिकेट की गेंद की विभिन्न विशेषताओं के इस्तेमाल और जोड़तोड़ की प्रमुख भूमिका होती है - हवा और जमीन पर गेंद का घुमाव, गेंद की स्थिति और गेंदबाज की कोशिशों पर निर्भर करता है, जबकि क्षेत्ररक्षण करने वाले दल की एक प्रमुख भूमिका है अपने अधिकतम फायदे के लिए गेंद को एक आदर्श अवस्था प्रदान करना। बल्लेबाज रन बनाने के लिए मुख्यतः क्रिकेट की गेंद का इस्तेमाल करता है, इसके लिए वह गेंद को ऐसी जगह मारता है जहां रन लेना सुरक्षित होता है, या फिर गेंद को सीमा पार पहुंचा देता है।

कई दिनों तक चलने वाले टेस्ट क्रिकेट और ज्यादातर घरेलू मैचों में पारंपरिक लाल रंग की गेंद का इस्तेमाल किया जाता है। कई एकदिवसीय क्रिकेट मैचों में सफेद रंग की गेंद का इस्तेमाल किया जाता है। ट्रेनिंग के लिए सफेद, लाल और गुलाबी गेंद भी आम हैं, इसके अलावा ट्रेनिंग या आधिकरिक मैचों के लिए विंड गेंदों और टेनिस गेंदों का भी इस्तेमाल किया जाता है। क्रिकेट मैच के दौरान गेंद ऐसी स्थिति में पहुंच जाती है जहां वो इस्तेमाल के लायक नहीं रहती है, इस दौरान गेंद की विशेषताएं बदल जाती हैं और ये मैच को प्रभावित करती हैं। मैच के दौरान क्रिकेट के नियमों के मुताबिक एक हद के बाहर गेंद से छेड़छाड़ करने की मनाही होती है और गेंद के साथ छेड़छाड़ करने की घटनाओं से कई विवाद खड़े हो चुके हैं।

क्रिकेट की गेंदों का वजन 155.9 ग्राम और 163 ग्राम के बीच होता है और इन्हें अपनी कठोरता तथा इस्तेमाल से जख्मी होने के खतरे के लिए जाना जाता है। क्रिकेट की गेंद से होने वाले खतरे की वजह से ही सुरक्षात्मक उपकरणों को क्रिकेट के खेल में शामिल किया गया था। क्रिकेट मैच के दौरान अक्सर खिलाड़ियों के जख्मी होने के मामले सामने आते रहते हैं, इनमें से कुछ मामले क्रिकेट गेंद की वजह से होते हैं।

उत्पादन

क्रिकेट की गेंदें काग के बीजकोष से बनाई जाती हैं, जो धागे से कसकर बंधी होती हैं और चमड़े की एक परत से ढंकी होती हैं तथा इनकी सीम थोड़ा उठी रहती है। उच्च स्तर के मुकाबले के लिए उपयुक्त और अच्छी गुणवत्ता वाली गेंदें चमड़े के चार टुकड़ों से ढंकी होती हैं, ये टुकड़े उसी तरह दिखते हैं जैसे किसी नारंगी के छिलके के चार टुकड़े दिखते हैं लेकिन एक गोलार्द्ध में यह 90 डिग्री कोण में घूमते हुए दिखते हैं। गेंद का "इक्वेटर" धागों की कुल छह पंक्तियों से इस तरह सिला हुआ होता है जिससे गेंद का सीम उभरा हुआ दिखाई पड़ता है। बाकी बचे चमड़े के दो टुकड़े अंदर से जुड़े होते हैं। कीमत कम होने की वजह से दो टुकड़ों से ढंकी निम्न स्तर की गेंदें अभ्यास और निम्न-स्तरीय मुकाबलों के लिए भी काफी लोकप्रिय हैं।

पुरुषों के क्रिकेट के लिए गेंद का वजन 5.5 और 5.75 आउंस (155.9 और 163.0 ग्राम) के बीच होना जरूरी है और इसकी परिधि 8 13/16 और 9 (224 और 229 मिलीमीटर) के बीच होनी चाहिए। महिलाओं और युवाओं के मैच में इससे थोड़ी छोटी गेंदें इस्तेमाल की जाती हैं।

सफेद गेंदों का कई सीमित ओवरों के क्रिकेट मैचों में उपयोग किया जाता है, खासकर वहां जहां फ्लडलाइट्स का उपयोग किया जाता है (दिन/रात के खेल).ऐसा इसलिए हैं क्योंकि पीली फ्लडलाईट के प्रभाव के तहत लाल गेंद भूरे रंग की नजर आने लगती है, जो कि पिच का भी रंग होता है।

पारंपरिक रूप से क्रिकेट की गेंदों को लाल रंग से रंगा जाता है और यही लाल गेंदें टेस्ट क्रिकेट और प्रथम श्रेणी क्रिकेट में इस्तेमाल की जाती हैं। सफेद गेंदों का इस्तेमाल एक दिवसीय मैचों में तब शुरू हुआ जब ये रात में फ्लडलाइट्स में खेला जाने लगा जिससे कि ये रात में भी दिखाई दे सकें. अब तो रात में नहीं होने के बावजूद पेशेवर एक-दिवसीय मैच सफेद गेंदों से ही खेले जाते हैं। दूसरे रंगों की गेंदों का भी प्रयोग किया गया, जैसे रात में बेहतर तरीके से दिखाई देने वाली पीली और नारंगी रंगों की गेंदें, लेकिन अब तक इन गेंदों को पेशेवर खेल के लिए उपयुक्त नहीं माना गया क्योंकि इनको रंग करने की प्रक्रिया के कारण ये मानक गेंदों से अलग तरीके से व्यवहार करती हैं। जुलाई, 2009 में पहली बार एक गुलाबी गेंद का इस्तेमाल किया गया था; उस मैच में वॉर्म्सले में इंग्लैंड की महिला टीम ने ऑस्ट्रेलिया को शिकस्त दी थी [1]. पारी के शुरुआती हाफ में लाल गेंद की तुलना में सफेद गेंद ज्यादा स्विंग करती है और साथ ही यह लाल गेंद की तुलना में जल्दी खराब भी होने लगती है, वैसे इन गेंदों के उत्पादक दावा करते हैं कि सफेद और लाल गेंदें एक ही तरीके और कच्चे माल का इस्तेमाल कर बनाई जाती हैं।[1]

20-20 की शुरुआत के बाद थोड़ी नरम सफेद गेंदों का इस्तेमाल शुरू हुआ। इसे क्रिकेट के फटाफट स्वरूप के हिसाब से डिजाइन किया गया है और सभी सफेद गेंदों के बारे में कहा जाता है कि टेस्ट मैचों की मानक गेंदों के मुकाबले इन्हें अधिकतम 29.5 मीटर ज्यादा दूर तक मारा जा सकता है। हवा में भी यह ज्यादा रफ्तार से चलती है और इसे एक-दिवसीय और 20-20 की जरूरत के मुताबिक ही तैयार किया गया है। इससे स्ट्राइक रेट और मैच में लगने वाले छक्कों की संख्या भी बढ़ती है।

क्रिकेट की गेंदें काफी महंगी होती हैं। 2007 तक इंग्लैंड में प्रथम श्रेणी के क्रिकेट मैचों में इस्तेमाल की जाने वाली गेंदों की खुदरा कीमत 70 पाउंड स्टर्लिंग रखी गई थी। टेस्ट मैच क्रिकेट में इस गेंद को कम से कम 80 ओवरों के लिए इस्तेमाल किया जाता है (सिद्धांततः करीब पांच घंटे और बीस मिनट के खेल में). पेशेवर एक-दिवसीय क्रिकेट के प्रत्येक मैच में कम से कम दो नई गेंदों का इस्तेमाल किया जाता है। शौकिया क्रिकेट खिलाड़ियों को अक्सर पुरानी गेंदों या सस्ते विकल्पों का इस्तेमाल करना पड़ता है, ऐसे में उन्हें पेशेवर क्रिकेट की तुलना में गेंदों की बदलती स्थिति का उतना सटीक आभास नहीं मिल पाता है।

सभी एक-दिवसीय मैच कूकाबुरा गेंदों से खेले जाते हैं लेकिन भारत में टेस्ट मैच एसजी क्रिकेट गेंदों से खेले जाते हैं। और जब इंग्लैंड किसी अंतर्राष्ट्रीय टेस्ट मैच की मेजबानी करता है तो वे "ड्यूक क्रिकेट गेंद" का इस्तेमाल करते हैं, जबकि बाकी सभी टेस्ट मैचों के लिए कूकाबुरा गेंदों का ही इस्तेमाल किया जाता है।[2][2]

1996 विश्व कप के दौरान जब एक-दिवसीय मैच खेला गया तो दोनों ही अंपायरों के पास एक-एक गेंद रहती थी। प्रत्येक ओवर के बाद मुख्य अंपायर लेग अंपायर की भूमिका में आ जाते हैं और लेग अंपायर मुख्य अंपायर की भूमिका, वे क्षेत्ररक्षण करने वाली टीम को नियम मुताबिक छह सही गेंदें फेंकने के लिए अपने पास रखी गेंद देते हैं और फिर ओवर खत्म होने के बाद उस गेंद को वापस ले लेते हैं। यही काम दूसरा अंपायर भी करता है।.. और उस समय इसी तरह से एक-दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट खेला जाता था, ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि सफेद गेंदें जल्दी गन्दी हो जाती हैं।[2]

क्रिकेट गेंदों के खतरे

इस्तेमाल की गई क्रिकेट की गेंद

क्रिकेट की गेंदें काफी सख्त होती हैं और उससे खतरे की आशंका भी रहती हैं, यही वजह है कि आज के बल्लेबाज और नजदीकी क्षेत्ररक्षक सिर की सुरक्षा के लिए सुरक्षात्मक हेलमेट पहनते हैं। बांग्लादेश में एक क्लब मैच के दौरान फॉरवर्ड शॉर्टलेग पर क्षेत्ररक्षण करते वक्त सिर पर गेंद लगने से रमन लांबा की मौत हो गई थी। प्रथम श्रेणी के मैचों में मैदान पर चोट लगने से सिर्फ दो अन्य खिलाड़ियों के मारे जाने की जानकारी है। दोनों को ही बल्लेबाजी के दौरान चोट लगी थी: 1870 में लॉर्ड्स में नॉटिंघमशायर के जॉर्ज समर्स को सिर में चोट लगी थी; और 1958-59 में कायद-ए-आजम टूर्नामेंट के फाइनल में कराची के विकेट-कीपर अब्दुल अजीज को दिल के पास चोट लगी थी। 1993 में व्हाइटहैवेन के लिए खेलने वाले लैंकाशायर के इयान फोले की भी गेंद से चोट लगने से मौत हो गई थी।

प्रिंस ऑफ वेल्स फ्रेडरिक के बारे में भी अक्सर कहा जाता है कि क्रिकेट की गेंद से चोट लगने के बाद पैदा हुई जटिलताओं की वजह से उनकी मौत हो गई थी, हालांकि हकीकत में ये सही नहीं है – यद्यपि उनके सिर पर एक गेंद लगी थी, लेकिन उनकी मौत की असल वजह उनके फेफड़े में फोड़े का फटना था। 1971 में ग्लैमोर्गन के खिलाड़ी रोजर डेविस की उस वक्त करीब-करीब मौत हो गई थी जब क्षेत्ररक्षण के दौरान एक गेंद उनके सिर पर लग गई थी। वेस्ट इंडीज में सिर पर गेंद लगने के बाद भारतीय बल्लेबाज नारीमन कॉन्ट्रैक्टर को इस खेल से रिटायर होना पड़ा था।

भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी रमन लांबा की भी ढाका में एक क्लब मैच में सिर पर क्रिकेट की गेंद से चोट लगने से मौत हो गई थी। लांबा शॉर्ट-लेग पर बिना हेलमेट पहने क्षेत्ररक्षण कर रहे थे और बल्लेबाज मेहराब हुसैन द्वारा बल्ले से मारे गए जोरदार शॉट से निकली गेंद सीधे उनके सिर पर लगी और वापस विकेट-कीपर खालीद मशूद के पास पहुंच गई।

2009 में साउथ वेल्स में क्षेत्ररक्षक द्वारा फेंकी गई गेंद सिर में लगने से एक अंपायर की मौत हो गई थी।[3]

विश्व भर में स्वास्थ्य संस्थानों को क्रिकेट की गेंद से लगने वाली विभिन्न चोटों की सूचनाएं मिलती रहती हैं; इनमें शामिल हैं, नेत्र संबंधी (कई खिलाड़ियों को तो अपनी आंखें गंवानी पड़ी है), क्रेनियल (सिर), डेंटल (दांत), डिजिटल (ऊँगली और अंगूठे) और अंडकोष संबंधी चोटें.

क्रिकेट गेंद की स्विंग

गेंद को दोनों किनारों पर दबाव में अंतर पैदा करके स्विंग कराया जाता है। हवा का दबाव इस बात पर निर्भर करता है कि हवा गेंद के किस तरफ लग रही है। गेंद में स्विंग तब उत्पन्न होती है जब गेंदबाज जानबूझकर या घटनावश गेंद के किसी एक तरफ हवा के प्रवाह को बाधित करता है। सामान्य स्विंग हासिल करने के लिए गेंद की एक तरफ को चिकना और चमकदार रखना पड़ता है और गेंद की चिकनी सतह को सामने की तरफ तथा सीम के कोण को अपेक्षित स्विंग की दिशा में रखते हुए फेंका जाता है। आउटस्विंगिंग गेंद दाएं हाथ के बल्लेबाज से दूर जाती है, जबकि इनस्विंगर गेंद बल्लेबाज की तरफ आती है। गेंद की चमकदार सतह पर लैमिनर बाउंड्री लेयर एयर-फ्लो (laminar boundary layer air-flow) को बरकरार रखकर अगर सीम की तरफ तेज प्रवाह दिया जाता है तो सामान्य स्विंग हासिल की जा सकती है। इस तरह की गेंदें (खासकर आउटस्विंगर), नई गेंद का इस्तेमाल करने वाले ओपनिंग गेंदबाजों की प्रमुख गेंद होती हैं। विपरीत स्विंग (रिवर्स स्विंग) पारंपरिक स्विंग से काफी अलग है। हालांकि इसमें भी आउटस्विंगर की ही तरह की सीम का इस्तेमाल किया जाता है और एक्शन भी वैसा ही होता है, लेकिन गेंद का खुरदुरा हिस्सा सामने की तरफ होता है और गेंद एक इनस्विंगर की तरह बल्लेबाज की ओर आती है। रिवर्स स्विंग प्राप्त करने के लिए गेंद को काफी तेजी से फेंकना पड़ता है। इस प्रकार गेंदबाजी करने पर, सीम तक पहुंचने से पहले ही हवा का प्रवाह गेंद के दोनों तरफ काफी तेज गति प्राप्त कर लेता है।

सन्दर्भ

टिप्पणियां

  1. "संग्रहीत प्रति". मूल से 15 मार्च 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 4 अप्रैल 2011.
  2. "संग्रहीत प्रति". मूल से 30 जून 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 4 अप्रैल 2011.
  3. "संग्रहीत प्रति". मूल से 4 जून 2011 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 4 अप्रैल 2011.

बाहरी कड़ियाँ