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केवल रतन मलकानी

केवल रतन मलकानी (19 नवम्बर 1921 - 27 अक्टूबर 2003) भारत के एक प्रसिद्ध चिन्तक, राजनेता एवं पत्रकार थे। वे भारतीय जनता पार्टी के उपाध्यक्ष एवं पांडीचेरी के राज्यपाल रहे। वे एक समर्थ विचारक एवं लेखक थे।

परिचय

श्री केवल रतन मलकानी का ८२ वर्ष लम्बा जीवन एक निष्ठावान आदर्शवादी, सैद्धांतिक, नि:स्वार्थ कर्मयोगी का जीवन था। हैदराबाद (सिन्ध) में १९२१ में जन्मे केवल रतन का बचपन कांग्रेसी वातावरण में बीता। उनके बड़े भाई प्रोफेसर एन. आर. मलकानी गांधी जी के विश्वासपात्रों में से थे। गांधी जी ने उन्हें गुजरात विद्यापीठ में शिक्षक नियुक्त किया था। गांधी जी के साथ उनका लम्बा पत्र व्यवहार गांधी वाड्.मय में उपलब्ध है। केवल रतन उनसे आयु में बहुत छोटे थे। एन.आर. के राष्ट्र-समर्पित आदर्शवादी जीवन का उन पर भारी प्रभाव पड़ा और वे भी अपने छात्र जीवन में ही राष्ट्रीय आंदोलन की ओर खिंच गए। उन दिनों भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी अपनी संयुक्त मोर्चा नीति के अन्तर्गत कांग्रेस के माध्यम से काम करा रही थी और उसका छात्र संगठन स्टूडेंट्स फेडरेशन विद्यालयों में संवेदनशील छात्रों को राष्ट्रीय आन्दोलन की भाषा बोल कर अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। इसलिए केवल रतन का युवा मन भी कुछ समय स्टूडेंट्स फेडरेशन में सक्रिय रहा। किन्तु श्घ्रीा ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संघटन प्रवाह ने उन्हें अपने भीतर ले लिया और १९४१ से २००३ तक वे आजीवन संघ के निष्ठावान स्वयंसेवक रहे। चिन्तामणि ने बताया कि १९४६ में नागपुर के संघ शिक्षण वर्ग में तृतीय वर्ष शिक्षा के समय उनसे पहली भेंट हुई और मित्रता में बदल गई।

नि:स्वार्थ देशभक्ति

उनके बड़े भाई एन.आर. मलकानी ने १९६७-६८ में अपने भाषण के दौरान कहा था कि यदि मैं केवल रतन के समय पैदा होता तो शायद मैं भी संघ में चला जाता, क्योंकि युवा मन वहीं जाता है जहां आदर्शवाद और नि:स्वार्थ देशभक्ति होती है।

देश विभाजन के पूर्व ही केवल रतन जी अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र में एम.ए. करके १९४५ में ही हैदराबाद के डी.जी. नेशनल कालेज में लेक्चरर बन गए थे। किन्तु विभाजन की त्रासदी ने उनके परिवार को सिन्ध छोड़कर खंडित भारत में शरणार्थी की स्थिति में धकेल दिया, वे पुणे आकर रुके। अंग्रेजी भाषा पर उनका असामान्य अधिकार थे। पत्रकारिता के बीज उनके भीतर विद्यमान था। एन.आर. मलकानी का गांधीजी के पुत्र और हिन्दुस्तान टाइम्स के सम्पादक देवदास गांधी से परिचय था। देवदास के बुलावे पर केवल रतन १९४८ में दिल्ली आ गए और हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादकीय विभाग में काम करने लगे।

उन दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संध पर प्रतिबंध लगा हुआ था। एकनाथ रानडे दिल्ली रहकर प्रतिबंध के विरुद्ध भूमिगत आंदोलन का संचालन कर रहे थे। संघ के पास "आर्गेनाइजर' नामक अकेला अंग्रेजी साप्ताहिक था। उन दिनों संघ के पास अंग्रेजी में लिखने की क्षमता रखने वाले कार्यकर्ता इने-गिने ही थे। हिन्दुस्तान टाइम्स में काम करते हुए भी मलकानी जी का प्रतिबंधित संघ से घनिष्ठ सम्बंध था ही। एक दिन एकनाथ जी ने उनसे बड़े सहज भाव से पूछ ही लिया, "क्या तुम दिल्ली में केवल हिन्दुस्तान टाइम्स की नौकरी करने आए हो? आर्गेनाइजर तुम्हारे मन में नहीं है?' एकनाथ जी के इस कथन ने मलकानी जी के मन में तूफान मचा दिया। उन्होंने सोचा और अगले दिन अपना त्यागपत्र देवदास जी की मेज पर रखकर वे आर्गेनाइजर में आ गए।

कण्टकाकीर्ण मार्ग

यह निर्णय कोई सरल नहीं था। कहां हिन्दुस्तान टाइम्स के माध्यम से पत्रकारिता की यात्रा और कहां आर्गेनाइजर के अभावग्रस्त कण्टकाकीर्ण मार्ग का वरण। मलकानी जी की कलम में जो ताकत थी, उनके पास जो अध्ययनशीलता थी, उनकी दिनचर्या जितनी व्यवस्थित, अनुशासित और कर्ममय थी, उसे देखते हुए यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि यदि वे उस दिन अपनी ध्येयवादिता और नि:स्वार्थ वृत्ति के कारण हिन्दुस्तान टाइम्स को छोड़कर आर्गेनाइजर में न आ गए होते तो आज देश के बड़े-बड़े दैनिक पत्रों के शिखर संपादकों में उनका स्थान होता। किन्तु उन्होंने यश और वैभव का रास्ता नहीं चुना। १९४८ से १९८२ तक वे संघ-पत्रकारिता के स्तंभ बने रहे। १९८२ में आर्गेनाइजर से अपने विद्रोह के समय उन्होंने बड़े मार्मिक स्वर में कहा कि मैं २६ वर्ष का युवा आर्गेनाइजर में आया था और अब ६२ वर्ष का बूढ़ा होकर उससे विदा ले रहा हूं।

उनकी लेखनी, उनके अध्ययन और उनकी कट्टर ध्येयवादिता के कारण "आर्गेनाइजर' को संघ के आलोचक भी पढ़ने को मजबूर थे। दिल्ली से अंग्रेजी में प्रकाशित होने के कारण "आर्गेनाइजर' ही संघ का एकमात्र प्रवक्ता के रूप में राजनीतिक और बौद्धिक क्षेत्रों में प्रतिष्ठित हुआ। विभाजन की चोट से तिलमिलाये अंतकरण का मुस्लिम पृथकतावाद और नेहरू वंश की तुष्टीकरण की नीति की एकमात्र निर्भीक आलोचना का स्वर बन कर "आर्गेनाइजर' और उसके संपादक का भारत के राजनीतिक गलियारों में एक विशिष्ट स्थान बना। यदि यह कहा जाए कि संघ की छवि निर्माण में मलकानी और आर्गेनाइजर की प्रभावी भूमिका रही है तो कोई अत्युक्ति न होगी। १२ जुलाई १९४९ को संघ पर से प्रतिबंध उठने के पश्चात्‌ जब संघ के भीतर भावी कार्यनीति के बारे में विचार मंथन चला तो उसमें मलकानी जी ने निर्णायक भूमिका निभायी। आर्गेनाइजर में डॉ॰ हेडगेवार के अनन्य सहयोगी एवं संघ के प्रथम प्रचारक दादाराव परमार्थ, बलराज मधोक और स्वयं मलकानी जी ने "कमल' नाम से एक लेखमाला प्रकाशित की। उनका आग्रह था कि अब संघ को अपनी एकान्तिक संगठन साधना से आगे बढ़कर राजनीति के माध्यम से स्वाधीन भारत की पुनर्रचना के यज्ञ में योगदान करना चाहिए। संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ताआें का एक बड़े वर्ग के इस दिशा में सोचने के लिए आर्गेनाइजर ने प्रवृत्त किया या यों कहें कि उनकी मनोभावनाआें को अभिव्यक्ति दी। यह बड़े साहस का काम था, क्योंकि मलकानी जी यह जानते थे कि सरसंघचालक श्री गोलवलकर को राजनीति से पूरी तरह वितृष्णा थी।

जनसंघ के सिद्धान्तकार

मलकानी जी भारतीय जनसंघ के जन्मकाल से ही उसके सिद्धान्तकार बन गए। अंग्रेजी के लेखन का सब बोझ उन पर ही पड़ता था। उनके ही आग्रह पर पं॰ दीनदयाल उपाध्याय ने आर्गेनाइजर में साप्ताहिक "पालिटिकल डायरी' लिखना प्रारंभ किया जिसका कुछ भाग पुस्तक रूप में प्रकाशित हो चुका है। मैं दिल्ली १९६४ में एक कालेज में लेक्चरर होकर आया। अत: मलकानी जी से मिलना-जुलना प्रारंभ हो गया। एक दिन अचानक उन्होंने फोन करके मिलने को कहा। तब तक आर्गेनाइजर कनाट प्लेस में मरीना होटल जैसी साफ-सुथरी केन्द्रीय जगह पर पहुंच चुका था। यह निश्चय ही मलकानी जी के आग्रह का फल था। मैं गया तो उन्होंने बताया कि हिन्दी साप्ताहिक पाञ्चजन्य को दिल्ली लाने का निर्णय हो चुका है और अटल जी ने उसके संपादन का भार तुम्हें सौंपने को कहा है। मैं स्वयं हिन्दी न पढ़ सकता हूं, न लिख सकता हूं पर मैं तुम्हें पूरा-पूरा सहयोग दूंगा। अब तुम रोज यहां आया करो। मैं कुछ संकोच में था कि एक दिन संघ कार्यालय से स्व. बाबा साहब देवरस का बुलावा आ गया। उन्होंने कहा कि दिल्ली में पाञ्चजन्य का संपादन भार तुम्हें ही संभालना है। और मैं आर्गेनाइजर आफिस जाने लगा।

तब मलकानी जी की कार्यशैली को निकट से देखने का अवसर मिला। आर्गेनाइजर के संपादकीय विभाग में केवल तीन व्यक्ति थे- एक मलकानी जी, एक उनके सहायक इन्द्रपाल सिंह और तीसरा उनके व्यक्तिगत सचिव या चाहे जो कह दीजिए मनोहर जिन पर वे पूरी तरह अवलम्बित थे और जो आजकल हिन्दुस्तान टाइम्स में हैं। मलकानी जी आने वाली डाक को स्वयं पढ़ते, लेखों का चयन करते, लेखकों से पत्राचार करते, लेख का संपादन करते, अन्तिम प्रूफ स्वयं पढ़ते। मुझे स्मरण है कि उन दिनों हम दोनों इंडियन प्रिंटिंग वर्क्स में रात भर बैठकर अंतिम प्रूफ रीडिंग करते थे। इतना कठोर श्रम करने के लिए मलकानी जी अपनी दिनचर्या में बहुत संयम बरतते थे। अकारण गप्प लगाने की उन्हें आदत नहीं थी। आने वाले को केवल काम की बात करने का समय देते, उनकी इच्छा के बिना कोई लम्बी बात नहीं कर सकता था। वे अन्तर्मुखी प्रवृत्ति के थे, अनावश्यक प्रदर्शन और मिलना-जुलना उनके स्वभाव में नहीं था किन्तु उनका अन्त:करण निर्मल और स्वभाव बहुत पारदर्शी था। लाग-लपेट की उन्हें आदत नहीं थी। जब भी वे बात करते खुलकर बात करते थे। वे निर्भीक थे, नि:स्वार्थी थे। उनका जीवन बहुत सादा और कठिन था। आर्गेनाइजर के साधन ही कितने थे। किन्तु वे बड़े स्वाभिमानी थे। संपादक के पद की गरिमा का बहुत ध्यान रखते थे। सिद्धान्तत: वे पत्रकारिता में संपादकीय विभाग को प्रबंध विभाग से ऊपर मानते थे। उन दिनों भारत प्रकाशन के प्रबंध निदेशक पद पर गोवा के वर्तमानश् राज्यपाल श्री केदारनाथ साहनी कार्य कर रहे थे। मलकानी जी और वे दोनों घनिष्ठ मित्र थे संघ और जनसंघ के रिश्ते से। किन्तु कार्यालय में आने के बाद साहनी जी उनके लिए केवल प्रबंध निदेशक रह जाते थे और तब उनके रिश्तों में संपादक पद की गरिमा प्रमुख बन जाती थी। कुछ समय बाद मरीना होटल छोड़कर हम भारत प्रकाशन के अपने "संस्कृति भवन' में आ गए।

१९७१ में अंग्रेजी में "मदरलैंड' नामक दैनिक पत्र प्रारंभ हुआ। उसके संपादन का ही नहीं, उसकी व्यवस्था का भी भार मलकानी जी पर ही आ पड़ा। यद्यपि प्रारंभ में टाइम्स ऑफ इंडिया के निवर्तमान संपादक डी.आर. मनकेकर का नाम संपादक के रूप में जाता था किन्तु संपादन का वास्तविक भार मलकानी जी पर ही था। मदरलैंड की इन्दिरा गांधी सरकार से सीधी टक्कर थी उसके पास विज्ञापनों का अभाव था। पत्र घाटे में चलता था। किन्तु पत्रकारिता में एक सशक्त स्वर बनकर वह उभरा और इन्दिरा गांधी की सरकार मलकानी जी को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानने लगी। २५ जून १९७५ को आपातस्थिति की घोषणा के बाद मलकानी जी सबसे पहले पकड़े गए। और पूरे उन्नीस महीने जेल काटकर आपात स्थिति उठने पर सबसे बाद में छोड़े गए। उनके जेल जीवन की कहानी उनकी कलम से "मिडनाईट नौक' नामक पुस्तक के रूप में सामने आयी।

राष्ट्रनिष्ठा और अखण्ड भारत का स्वप्न

"मदर लैंड' बंद हो चुका था। मलकानी जी पुन: आर्गेनाइजर के संपादक पद पर वापस आये और १९८२ में ६२ वर्ष की आयु में आर्गेनाइजर के संपादक दायित्व से निवृत्त हुए। पर वे थके नहीं थे, संयमित आहार-विहार के कारण उनका शरीर पूरी तरह हृष्ट-पुष्ट था। जेल जीवन में उनका मुस्लिम नेताओं से घनिष्ठ सम्पर्क हुआ। उन्होंने भारत के इतिहास के अपने अध्ययन को और व्यापक व गहरा किया। अब उनकी चिन्ता यह बन गयी कि विशाल मुस्लिम समाज को राष्ट्रीय धारा में कैसे लाया जाए। उसके साथ संवाद के पुल कैसे बनाए जाएं। विभाजन की वेदना उनके मन में गहरी थी, अखण्ड भारत का सपना उनकी आंखों में था। सिंध से उनका सम्पर्क बना हुआ था। सिंध आंदोलन के प्रवर्तक जी.एम. सईद से भी उनका सम्पर्क बना हुआ था। वे भारत आकर उनसे मिले भी थे। अत: मुस्लिम प्रश्न पर मलकानी जी का जो स्वर १९४८ से १९७५ तक था वह अब थोड़ा-थोड़ा बदलने लगा था। पर इस स्वर परिवर्तन के पीछे वही राष्ट्रनिष्ठा और अखण्ड भारत का स्वप्न कार्य कर रहा था। दिल्ली में उन्होंने सिंधी समाज को संगठित करने के लिए मंच की स्थापना की और वे उसके पहले अध्यक्ष बने। १९८२ में आर्गेनाइजर से मलकानी जी का पार्थक्य बहुत सामान्य नहीं था, कुछ गलतफहमियां उत्पन्न हुइर्ं थीं। मलकानी जी भीतर ही भीतर बहुत आहत थे। उनकी आर्थिक स्थिति भी सुदृढ़ नहीं थी, उनकी पत्नी श्रीमती सुंदरी और पुत्र अरविंद ने दीनदयाल शोध संस्थान में थोड़े से मानधन पर काम शुरू किया। परिवार को चलाया। श् पर मलकानी जी की पीड़ा कभी उनके चेहरे या होठों पर नहीं आयी। मैं उन दिनों दीनदयाल शोध संस्थान में अवैतनिक निदेशक दायित्व पर था। मलकानी जी की मन: स्थिति का हम लोगों को आभास था। पत्रकार उनसे कुछ उगलवाने के लिए चक्कर लगा रहे थे। किन्तु वे मलकानी जी से कुछ भी उगलवा नहीं सके। कोई समाचार नहीं बना सके। अपनी पत्नी के आग्रह को ठुकराकर भी वे भारत प्रकाशन द्वारा आयोजित विदाई कार्यक्रम में सम्मिलित हुए। मन, वचन, कर्म से संघ आंदोलन को जाने-अनजाने किसी प्रकार की क्षति न पहुंचने पाए यही उनके मन का अडिग भाव था। इन्हीं परिस्थितियों में उन्होंने दीनदयाल शोध संस्थान में उपाध्यक्ष का दायित्व संभाला। मंथन के अंग्रेजी संस्करण का संपादन भार संभाला। पुन: उनके सहयोगी के रूप में कई वर्ष कार्य करने का अवसर मिला।

हर जगह राष्ट्रवादी स्वर

किन्तु राजनीति उन्हें खींच रही थी। पहले वे भारतीय जनता पार्टी की केन्द्रीय कार्यसमिति में आमंत्रित रहते थे। जब उन्हें उपाध्यक्ष पद सौंपा गया तब उन्होंने दीनदयाल शोध संस्थान के गैर राजनीतिक चरित्र का आदर करते हुए उसके दायित्वों से मुक्ति ले ली और वे उपाध्यक्ष के नाते भाजपा के केन्द्रीय कार्यालय में पूरे समय बैठने लगे। १९९४ से २००० तक वे राज्यसभा के सदस्य रहे। पर उनकी कलम कभी रुकी नहीं। वे आजन्म योद्धा रहे। संपादक के पत्र स्तंभ हो, या टेलीविजन पर बहस, हर जगह मलकानी जी का राष्ट्रवादी स्वर गूंजता रहा। वे राष्ट्रवाद के विरोधियों से लोहा लेते रहे। दो वर्ष पूर्व धर्मपत्नी सुंदरी जी के देहावसान के बाद वे अपने को अकेला अनुभव करने लगे थे। ३० जुलाई २००२ को पांडिचेरी के उपराज्यपाल पद पर नियुक्ति ने उन्हें दिल्ली से दूर भेज दिया। पर राजभवन के एकांत में बैठकर भी वे सबको स्मरण करते रहे और लेखन में जुटे रहे। मलकानी जी का जीवन आदर्शवादी, सिद्धान्तनिष्ठ पत्रकारिता के लिए प्रकाश स्तंभ है, प्रेरणा स्रोत है।

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