कृष्ण बलदेव वैद
कृष्ण बलदेव वैद | |
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जन्म | 27 जुलाई 1927[1] |
मौत | 6 फ़रवरी 2020[1] न्यूयॉर्क नगर[1] |
नागरिकता | भारत, ब्रिटिश राज, भारतीय अधिराज्य |
शिक्षा | हार्वर्ड विश्वविद्यालय |
पेशा | विश्वविद्यालय शिक्षक, लेखक |
संगठन | दिल्ली विश्वविद्यालय |
कृष्ण बलदेव वैद (27 जुलाई 1927 - 6 फ़रवरी 2020) हिन्दी के आधुनिक गद्य-साहित्यकार हैं। उन्होंने डायरी लेखन, कहानी और उपन्यास विधाओं के अलावा नाटक और अनुवाद के क्षेत्र में भी अप्रतिम योगदान दिया है। अपनी रचनाओं में उन्होंने सदा नए से नए और मौलिक-भाषाई प्रयोग किये जो पाठक को 'चमत्कृत' करने के अलावा हिन्दी के आधुनिक-लेखन में एक खास शैली के मौलिक-आविष्कार की दृष्टि से विशेष अर्थपूर्ण हैं।
जन्म, शिक्षा तथा प्राध्यापन
इनका जन्म डिंगा, (पंजाब (पाकिस्तान)) में २७ जुलाई १९२७ को हुआ। इन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए. किया और हार्वर्ड विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की उपाधि हासिल की। यह १९५० से १९६६ के बीच हंसराज कॉलेज, दिल्ली और पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़ में अंग्रेज़ी साहित्य के अध्यापक रहे। इन्होंने १९६६ से १९८५ के मध्य न्यूयॉर्क स्टेट युनिवर्सिटी, अमरीका और १९६८-'६९ में ब्रेंडाइज यूनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी और अमरीकी-साहित्य का अध्यापन किया।[2][3] १९८५ से १९८८ के मध्य यह भारत भवन, भोपाल में 'निराला सृजनपीठ' के अध्यक्ष रहे। दक्षिण दिल्ली के 'वसंत कुंज' के निवासी वैद लम्बे अरसे से अमरीका में [1] दो विवाहित बेटियों के साथ रह रहे थे । उनकी लेखिका पत्नी चंपा वैद का कुछ बरस पहले ही निधन हुआ था।
कथा -संसार
कृष्ण बलदेव वैद अपने दो कालजयी उपन्यासों- उसका बचपन और विमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ के लिए सर्वाधिक चर्चित हुए हैं। एक मुलाक़ात में उन्होंने कहा था- "साहित्य में डलनेस को बहुत महत्त्व दिया जाता है। भारी-भरकम और गंभीरता को महत्त्व दिया जाता है। आलम यह है कि भीगी-भीगी तान और भिंची-भिंची सी मुस्कान पसंद की जाती है। और यह भी कि हिन्दी में अब भी शिल्प को शक की निगाह से देखा जाता है। बिमल उर्फ जाएँ तो जाएँ कहाँ को अश्लील कहकर खारिज किया गया। मुझ पर विदेशी लेखकों की नकल का आरोप लगाया गया, लेकिन मैं अपनी अवहेलना या किसी बहसबाजी में नहीं पड़ा। अब मैं 82 का हो गया हूँ और बतौर लेखक मैं मानता हूँ कि मेरा कोई नुकसान नहीं कर सका। जैसा लिखना चाहता, वैसा लिखा। जैसे प्रयोग करना चाहे किए।"[2]
वैदजी का रचना-संसार बहुत बड़ा है- विपुल और विविध अनुभवों से भरा। इसमें हिन्दी के लिए भाषा और शैली के अनेकानेक नए, अनूठे, निहायत मौलिक और बिलकुल ताज़ा प्रयोग हैं। हमारे समय के एक ज़रूरी और बड़े लेखकों में से एक वैद जी नैतिकता, शील अश्लील और भाषा जैसे प्रश्नों को ले कर केवल अपने चिंतन ही नहीं बल्कि अपने समूचे लेखन में एक ऐसे मूर्तिभंजक रचनाशिल्पी हैं, जो विधाओं की सरहदों को बेहद यत्नपूर्वक तोड़ता है। हिन्दी के हित में यह अराजक तोड़फोड़ नहीं, एक सुव्यवस्थित सोची-समझी पहल है- रचनात्मक आत्म-विश्वास से भरी। अस्वीकृतियों का खतरा उठा कर भी जिन थोड़े से लेखकों ने अपने शिल्प, कथ्य और कहने के अंदाज़ को हर कृति में प्रायः नयेपन से संवारा है वैसों में वैदजी बहुधा अप्रत्याशित ढब-ढंग से अपनी रचनाओं में एक अलग विवादी-स्वर सा नज़र आते हैं। विनोद और विट, उर्दूदां लयात्मकता, अनुप्रासी छटा, तुक, निरर्थकता के भीतर संगति, आधुनिकता- ये सब वैद जी की भाषा में मिलते हैं। निर्भीक प्रयोग-पर्युत्सुकता वैद जी को मनुष्य के भीतर के अंधेरों-उजालों, जीवन-मृत्यु, सुखों-दुखों, आशंकाओं, डर, संशय, अनास्था, ऊब, उकताहट, वासनाओं, सपनों, आशंकाओं; सब के भीतर अंतरंगता झाँकने का अवकाश देती है। मनुष्य की आत्मा के अन्धकार में किसी अनदेखे उजाले की खोज करते वह अपनी राह के अकेले हमसफ़र हैं- अनूठे और मूल्यवान।
भाषा का घर
हेमंत शेष ने उनकी कथा-यात्रा पर जो सम्पादकीय-टिप्पणी[4] लिखी थी, उसे यहाँ उद्धृत करना प्रासंगिक होगा- "कृष्ण बलदेव वैद हिन्दी के ऐसे आधुनिक रचनाकार हैं, विदेश में प्रवास के लम्बे दौर के बावजूद जिनमें भाषा और लेखकीय-संस्कार के बतौर एक हिन्दुस्तानी का ही मन बचा-बसा रहा है। अपनी हर औपन्यासिक-कृति में वह अगर हर बार मूल्य-दृष्टि की अखंडित भारतीय एकात्मकता के उपरांत भी पहले से भिन्न नज़र आते हैं, तो यह उनके अनुभव और रचनात्मक-सम्पन्नता का ही पुनर्साक्ष्य है जो हमें हर बार नए ढंग से यह बतलाता है कि उसमें अपने समाज और अपने समय- दोनों को हर बार नए ढंग से देखे-पहचाने गए भाषायी रिश्तों में सामने लाने की अटूट प्रतिज्ञा है। आश्चर्य की बात नहीं कि उनकी अधिकाँश रचनाएं पश्चिम के परिवेश लोकेल और मानसिकता को अपनी सर्जनात्मक-प्रेरणा नहीं मानती, जैसा कुछ सुपरिचित हिन्दी कथाकारों ने लगातार किया है। इसके ठीक उलटे, कृष्ण बलदेव वैद, हमारे अपने देश के ठेठ मध्यमवर्गीय-मन को, प्रवास के तथाकथित प्रभावों से जैसे जान बूझ कर बचाते हुए, अपनी उन स्मृतियों, सरोकारों और विडंबनात्मक स्थितियों को ही बारम्बार खंगालते हैं, जो एक बदलते हुए समाज और आधुनिक मनुष्य के भीतर घुमड़ रही हैं। ये स्मृतियाँ हो सकती हैं- उचाट अकेलेपन के अवसाद की, असुरक्षा की भावना से उपजी स्वाभाविक हताशा की, संबंधों की जटिलताओं और उनके खोखलेपन की, विडंबनात्मक स्थितियों जूझते स्त्री-पुरुषों की, उकताहट के बौद्धिक-विश्लेषण की. संक्षेप में कहें तो समूचे मानवीय अस्तित्व का मायना खोजती उसी उतप्त और उग्र प्रश्नाकुलता भाषायी वैयक्तिकता की, जिसकी धधक एक लेखक को भाषा में रचनाशील, जाग्रत और प्रयोग-पर्युत्सुक बनाये रखती है। लेखक, जिसके साहित्यिक-अन्वेषणों और पर्यवेक्षणों के उजास में हम स्वयं को ऐसे अपूर्वमेय कोणों से देख सकते हैं, जो सिर्फ एक रचना के ज़रिये ही संभव हो सकते हैं।
उनका लेखन एक चिर-विस्थापित लेखक की तर्कप्रियता का भाष्य है, अन्यों के लिए असुविधाजनक और रहस्यमय, पर स्वयं लेखक के लिए आत्मीय, जाना-पहचाना, अन्तरंग भाषा का घर. यह कहना पर्याप्त और सच नहीं है कि वैद अपनी कृतियों में महज़ एक हिन्दुस्तानी लेखक हैं, बल्कि उससे ज्यादा वह एक ऐसे विवेकशील आधुनिक लेखक हैं, जो अपनी बौद्धिक-प्रखरता, दृढ़ता और अविचलित मान्यताओं के बल पर हिन्दी साहित्य के परिचित कथा-ढंग को तोड़ते, मरोड़ते और बदलते हैं। उनकी प्रयोगकामिता अजस्र है और प्रचलित के प्रति अरुचि असंदिग्ध.
वह अपनी शर्तों पर अभिव्यक्ति के लिए सन्नद्ध एक ऐसे लेखक हैं, जिनके लिए अगर महत्वपूर्ण है तो सिर्फ उस लेखकीय-अस्मिता, सोच और भाषायी वैयक्तिकता की रक्षा, जो उन्हें अपने ढंग के 'फॉर्म' का ऐसा कथाशिल्पी बनाती है-जो आलोचना के किसी सुविधाजनक-खांचे में नहीं अंटता. उनका सारा लेखन सरलीकृत व्याख्याओं लोकप्रिय-समीक्षा ढंग के लिए जैसे एक चुनौती है। उनके जैसे अपने समय के लेखन की पहचान और पुनर्मूल्यांकन ज़रूरी है। केवल इसलिए नहीं कि ऐसे रचनाकारों पर अपेक्षाकृत कम लिखा गया है और अपेक्षाकृत कम सारगर्भित भी, पर इसलिए भी कि एक गहरी नैतिक ज़िम्मेदारी उस संस्कृति-समाज की भी है ही जिसके बीच रह कर कृष्ण बलदेव वैद जैसे लेखक चुपचाप ढंग से उसे लगातार संपन्न और समृद्ध बनाते आ रहे हैं।
इनके कथा-संग्रह 'बदचल बीवियों का द्वीप' पर हेमंत शेष की भूमिका के लिए देखें-[3]
कवि और एक ई-पत्रिका जानकी पुल के संपादक प्रभात रंजन ने वैद पर जो टिप्पणी लिखी थी, वह कुछ यों थी-"
कृष्ण बलदेव वैद का कथा आलोक
लगभग ८५ साल की उम्र में हिंदी के प्रख्यात कथाकार-उपन्यासकार कृष्ण बलदेव वैद की कहानियों की दो सुन्दर किताबों का एक साथ आना सुखद कहा जा सकता है। सुखद इसलिए भी क्योंकि इनमें से एक ‘खाली किताब का जादू’ उनकी नई कहानियों का संकलन है। दूसरा संकलन है ‘प्रवास गंगा’, जिसे उनकी प्रतिनिधि कहानियों का संचयन भी कहा जा सकता है, वैसे पूरी तरह से नहीं. पेंगुइन-यात्रा प्रकाशन से प्रकाशित इन किताबों ने एक बार फिर कृष्ण बलदेव वैद के लेखन की ओर ध्यान खींचा है।
कृष्ण बलदेव वैद की हिंदी कथा-साहित्य में अपनी अलग लीक रही है, इसिलिए अपना अलग मकाम भी रहा है। जिन दिनों हिंदी साहित्य में बाह्य-यथार्थ के अंकन को कथा-उपन्यास में ‘हिट’ होने का सबसे बड़ा फॉर्मूला माना जाता रहा उन्हीं दिनों उन्होंने ‘उसका बचपन’ जैसा उपन्यास लिखा, जिसने निस्संदेह उनके लेखन को एक अलग ही पहचान दी. अपने लेखन के माध्यम से उन्होंने एक तरह से हिंदी कहानी की मुख्यधारा कही जानेवाली यथार्थवादी कहानियों का प्रतिपक्ष तैयार किया जिसमें स्थूलता नहीं सूक्ष्मता पर बल है। कहानियां उनके लिए मन की दुनिया में गहरे उतरने का माध्यम है, अस्तित्व से जुड़े सवालों से जूझने का, उनको समझने का. नितांत सार्वजनिक होते कथाजगत में उनकी कहानियों ने निजता के उस स्पेस का निर्माण किया, जो हिंदी में एक अलग प्रवृत्ति की तरह से पहचानी गई। आज भी पहचानी जाती हैं।
उनकी नई कहानियों के संग्रह ‘खाली किताब का जादू’ की बात करें तो उसमें भी उनकी वही लीक पहचानी जा सकती है, जिसमें चेतन के नहीं अवचेतन के वर्णन हैं, उनकी कहानियों में कोई सुनियोजित कथात्मकता नहीं दिखाई देती, बल्कि जहाँ कथात्मकता आती है तो वह पैरोडी का शक्ल ले लेती है। ‘प्रवास गंगा’ में संकलित उनकी कहानी ‘कलिंगसेना और सोमप्रभा की विचित्र मित्रता’ का इस सन्दर्भ में उल्लेख किया जा सकता है, जो अपने आप में ‘कथासरित्सागर’ की एक कथा का पुनर्लेखन है। पुनर्लेखन के क्रम में उसमें जो कॉमिक का पुट आता है, वह उसमें समकालीनता का बोध पैदा करता है। इसमें लेखन ने एक ओर उस कथा-परंपरा की पैरोडी बनाई है जिसका एक तरह से उन्होंने अपने लेखन में निषेध किया और दूसरी ओर पुनर्लेखन होने से मौलिक होने का आधुनिकतावादी अहम भी टूट जाता है। कुछ भी मौलिक नहीं होता. बोर्खेज़ ने लिखा है कि दुनिया बनाने वाले ने जिस दिन दुनिया बनाई थी उसी दिन एक कहानी लिख दी थी, हर दौर के लेखक उसी कहानी को दुहराता रहता है। कोई भी कहानी मौलिक नहीं होती, जो भी है वह मूल की प्रतिलिपि है।
‘खाली किताब का जादू’ में कुल नौ कहानियां है और उनमें कथानक को लेकर, कथा-शिल्प को लेकर उनकी वही प्रयोगशीलता मुखर दिखाई देती है जिसे उनके लेखन की पहचान के तौर पर देखा जाता है। वे कथा के नहीं कथाविहीनता के लेखक हैं, घटनाओं के नहीं घटनाविहीनता के लेखक हैं। जिसे हिंदी कहानी की मुख्यधारा कहा जाता है उसका स्पष्ट निषेध उनकी कहानियों में दिखाई देता है, उस सामजिक यथार्थवाद का उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से लगातार निषेध किया है, लेकिन ऐसा नहीं है कि उनके लेखन में सामाजिकता नहीं है। बस उनके बने-बनाये सांचे नहीं हैं, जीवन की विशिष्टता है। वे सामान्य के लेखक नहीं हैं, जीवन की अद्वितीयता के लेखक हैं। उनमें विचारधारा के उजाले नहीं, जीवन के गहरे अँधेरे हैं। संग्रह में एक कहानी है ‘अँधेरे में (अ) दृश्य’, जो एकालाप की शैली में है। प्रसंगवश, एकालाप की यह नाटकीयता उनके लेखन की विशेषता है। कहानी भी वास्तव में जीवन-जगत पर गहरे चिंतन से ही उपजता है, लेखक इसलिए कहानी नहीं लिखता कि उसे किसी के बारे में लिखना होता है, वह इसलिए लिखता है क्योंकि उसे कुछ लिखना होता है, कहानी अपने आपमें एक ‘स्टेटमेंट’ की तरह होती है। वैद साहब बहुत सजग लेखक हैं। वे अपनी लीक पर टिके रहने वाले लेखक हैं, चाहे अकेले पड़ जाने का खतरा क्यों न हो. इसीलिए ज़ल्दी उनका कोई सानी नहीं दिखाई देता है।
लेखक कहानी के माध्यम से अपने समय-अपने समाज के मसलों पर राय भी प्रकट करता दिखाई देता है। उदाहरण के लिए, ‘खाली किताब का जादू’ संग्रह में एक कहानी है ‘हिंदी-उर्दू संवाद’, जिसमें हिंदी-उर्दू को दो ऐसे हमजाद के रूप में दिखाया गया है जिनके मकां हरचंद पास-पास रहे लेकिन जिनको हमेशा प्रतिद्वंद्वियों की तरह से देखा-समझा गया है। जिनको हमेशा दो अलग-अलग समाजों, अलग-अलग मजहबों की भाषा के बतौर देखा गया है। लेकिन लेखक ऐसा नहीं मानता है। कहानी में सार रूप में पंक्ति आती है, ‘अगर ये दोनों ज़ुबानें खुले दिल और दिमाग से आपस में मिलना-जुलना और रसना-बसना शुरू कर दें तो बहुत कुछ मुमकिन है।’ यह कहानी विधा का एक तरह से विस्तार है, उसको विमर्श के करीब देखने की एक कोशिश है। लेखक को इससे मतलब नहीं है कि वह विफल रहा या सफल. बल्कि वह तो विफलता को भी एक मूल्य की तरह से देखने का आग्रह करता है। संग्रह में एक कहानी ‘विफलदास का लकवा’ है, जिसे इस सन्दर्भ में देखा-समझा जा सकता है।
कुल मिलाकर, कृष्ण बलदेव वैद के इस नए कहानी-संग्रह की कहानियों से गुजरना अपने आप में हिंदी कहानी की दूसरी परम्परा से गुजरना है जिसमें हिंदी कहानियों का एक ऐसा परिदृश्य दिखाई देता है जो हमें हमें पठनीयता, किस्सागोई आदि के बरक्स एक ऐसे लेखन से रूबरू करवाता है जिसे प्रचलित मुहावरे में कहानी नहीं कहा जा सकता, लेकिन शायद यही लेखक का उद्देश्य भी लगता है कि प्रचलित के बरक्स एक ऐसे कथा-मुहावरे को प्रस्तुत किया जा सके जिसमें गहरी बौद्धिकता भी हो और लोकप्रियता का निषेध भी. कृष्ण बलदेव वैद की इन कहानियों को पढते हुए इस बात को नहीं भूला जा सकता है कि हिंदी कहानियों में विविधता है, उसकी शैली को किसी एक रूप में रुढ नहीं किया जा सकता, कम से कम जब तक कृष्ण बलदेव वैद जैसे लेखक परिदृश्य पर हैं।[5]
प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ
उपन्यास
- उसका बचपन [4][5][6][7]
- बिमल उर्फ जाएँ तो जाएँ कहाँ
- नसरीन
- दूसरा न कोई
- दर्द ला दवा
- गुज़रा हुआ ज़माना[8]
- काला कोलाज
- नर-नारी[9][10] [11]
- मायालोक[12]
- एक नौकरानी की डायरी[13] [14]
कहानी संग्रह
- बीच का दरवाज़ा
- मेरा दुश्मन
- दूसरे किनारे से
- लापता
- आलाप
- लीला
- वह और मैं
- उसके बयान
- चर्चित कहानियाँ परछाइयाँ
- पिता की परछाइयाँ
- बदचलन बीवियों का द्वीप #त्रिकोण [15][16][17]
- खाली किताब का जादू [18]
- रात की सैर (दो खण्डों में)
- बोधित्सव की बीवी [19] [20]
- खामोशी
- प्रतिनिधि कहानियां [21]
- मेरी प्रिय कहानियां
- दस प्रतिनिधि कहानियां
- शाम हर रंग में [22]
- प्रवास-गंगा [23][24]
- अंत का उजाला [25]
- सम्पूर्ण कहानियां [26]
नाटक
- भूख आग है [27][28][29]
- हमारी बुढ़िया [30]
- सवाल और स्वप्न [31]
- परिवार-अखाड़ा [32] [33]
- कहते हैं जिसको प्यार[34] [35][मृत कड़ियाँ]
- मोनालिज़ा की मुस्कान[36]
निबंध
- शिकस्त की आवाज़ [37]
संचयन
- संशय के साए [38]
अनुवाद
हिन्दी में
- गॉडो के इन्तज़ार में (बेकिट)
- आखिरी खेल (बेकिट)
- फ्रेडा (रासीन)
- एलिस: अजूबों की दुनिया में (लुई कैरल)
अंग्रेज़ी में
- टेक्नीक इन दी टेल्स ऑफ़ हेनरी जेम्स[39][40]
- स्टैप्स इन डार्कनेस[41] [42]
- विमल इन बौग [43]
- डाइंग एलोन[44][45][46][47][48]
- दी ब्रोकन मिरर[49][50]
- साइलेंस इन दी डार्क
- द स्कल्प्टर इन एग्ज़ाइल[51][52]
डायरी
- जब आँख खुल गयी[55]
- डुबाया मुझ को होने ने भारतीय ज्ञानपीठ
इनकी अनेक कृतियों के अनुवाद[56] अन्य भारतीय भाषाओं- पंजाबी, उर्दू, तमिल, मलयाली, गुजराती, मराठी, तेलुगू, बंगला और अंग्रेज़ी[57] के अतिरिक्त कुछ विदेशी भाषाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इनके विशिष्ट कृतित्व के सम्बन्ध में पूर्वग्रह, कला-प्रयोजन जैसी कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं ने समालोचनात्मक-मूल्यांकन को ले कर विशेषांक भी केन्द्रित किये हैं|
- शमाँ हर रंग में [शम अ हर रंग में][58]
अन्य
- सोबती-वैद संवाद[59]
पुरस्कार और सम्मान
- छत्तीसगढ़ राज्य का पंडित सुंदरलाल शर्मा सम्मान [60] २००२
- हिंदी अकादमी दिल्ली का शलाका सम्मान (विवादग्रस्त)[61][मृत कड़ियाँ]
पठनीय
- वैद साहब की कुछ छोटी कहानियां :[62]
- रंग-कोलाज :[63]
- आलेख [64][मृत कड़ियाँ]
- अंग्रेज़ी-आलेख [65]
- दिल्ली संस्मरण [66]
- अंग्रेज़ी निबंध [67]
सन्दर्भ
- ↑ अ आ इ https://www.lemonde.fr/disparitions/article/2020/02/20/l-ecrivain-indien-krishna-baldev-vaid-est-mort_6030245_3382.html. गायब अथवा खाली
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(मदद) - ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 24 जून 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2 अगस्त 2014.
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 8 अगस्त 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2 अगस्त 2014.
- ↑ कृष्ण बलदेव वैद पर एकाग्र विशेषांक : पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र की त्रैमासिक पत्रिका कला-प्रयोजन का ग्यारहवां अंक (जनवरी-मार्च २००८)
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 8 अगस्त 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2 अगस्त 2014.
बाहरी कड़ियाँ
[68][69][70][71][72][73][मृत कड़ियाँ][74][75][76][77][78][79][80][81][82][83][84][85][86]