काला चौना
काला चौना | |
— गाँव — | |
समय मंडल: आईएसटी (यूटीसी+५:३०) | |
देश | भारत |
राज्य | उत्तराखण्ड |
ज़िला | अल्मोड़ा |
जनसंख्या • घनत्व | 1,400 • 120/किमी2 (311/मील2) |
लिंगानुपात | 862 ♂/♀ |
क्षेत्रफल • ऊँचाई (AMSL) | • 1,010 मीटर (3,314 फी॰) |
जलवायु तापमान • ग्रीष्म • शीत | ऑलपाइन आर्द्र अर्ध-उष्णकटिबन्धीय (कॉपेन) • 28 - -2 °C (84 °F) • 28 - 12 °C (70 °F) • 15 - -2 °C (61 °F) |
आधिकारिक जालस्थल: almora.nic.in |
निर्देशांक: 29°48′21″N 79°16′50″E / 29.805744°N 79.280610°Eकाला चौना एक गॉंव है। यह रामगंगा नदी के पूर्वी किनारे पर चौखुटिया तहसील के तल्ला गेवाड़ नामक पट्टी में, भारतवर्ष के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले में स्थित है। यह गॉंव मूलरूप से कनौंणियॉं नामक उपनाम से विख्यात कुमांऊॅंनी हिन्दू राजपूतों का प्राचीन और पुश्तैनी चार गाँवों में से एक है। दक्षिणी हिमालय की तलहटी में बसा यह काला चौना अपनी ऐतिहासिक व सॉंस्कृतिक विरासत, ठेठ कुमांऊॅंनी सभ्यता व संस्कृति, पर्वतीय जीवन शैली, प्रकृति संरक्षण, अलौकिक प्राकृतिक छटा तथा समतल-उपजाऊ भूमि के लिए पहचाना जाता है।[1][2]
ऐतिहासिक पृष्टभूमि
प्राचीन इतिहास के अनुसार, जैसा कि अब भी उत्तराखण्ड के इतिहासकार तथा कुमांऊॅं के अधिकॉंश अनुभववेत्ता इस यथार्थता से भली भॉंति सहमत हैं। तल्ला गेवाड़ के प्राचीन सामंत मेलदेव कनौंणियॉं ने स्वेच्छा से अपने राज्य को कई हिस्सों में विभाजित किया था। जिनमें से कुछों के साक्ष्य सर्वविदित हैं। जैसा कि अपने चार पुत्रों और एक पुत्री में। यानि पॉंच भागों में विभाजन। पहला विभाजन शीर्ष पुत्र को, यह है रामगंगा नदी के पश्चिम की ओर का दक्षिणी भ-भाग (कनौंणी), दूसरा विभाजन दूसरे पुत्र को यह है रामगंगा के पश्चिमी ओर का उत्तरी क्षेत्र (डॉंग), तीसरा विभाजन तीसरे पुत्र को यह है रामगंगा के पूर्व में राज्य का दक्षिणी भू भाग (काला चौना), चौथा विभाजन चौथे पुत्र को रामगंगा के पश्चिम की ओर आदीग्राम बंंगारी और आदीग्राम फुलोरिया के बीच का पठार (आदीग्राम कनौणियॉं) और पॉंचवांं विभाजन यह है रामगंगा के पूर्वी छोर से लगा उत्तर में आदीग्राम कनौणियॉं के सामने से लेकर काला चौना की सीमा रेखा तक का भू भाग, यह दिया अपनी पुत्री को। जो आज मॉंसी के नाम से प्रसिद्ध है।
इस प्रकार काला चौना नामक यह गॉंव तीसरे पुत्र को आबंटित भू भाग है। यहाॅं के अधिकाॅंश निवासी जिन्हें अब कनौंणियॉं अथवा कनौंणियॉं बिष्ट नामक उपनाम से जानते है, ये सब सूर्यवंशी ठाकुर मेलदेव कनौंणियॉं (जिन्हें कत्यूरी राजवंश के लड़देव की वंशावली का माना जाता है) के तीसरे पुत्र कालदेव के वंशज कहलाते हैं। कालान्तर में कालदेव नामक शब्द का अपभ्रंश हो जाने से कालदेव को काला कनौंणियॉं कहकर पुकारा जाने लगा था। जिस कारण काला नामक शब्द के मिश्रण से इस गॉंव का नाम काला चौना पड़ा था।
काला चौना मूलत: कनौंणियॉं नामक उपनाम के कुमांऊॅंनी हिन्दू राजपूतों का गॉंव है। इसी कारण यहॉं की तकरीबन पचासी फीसदी आबादी कनौंणियॉं अथवा कनौंणियॉं बिष्ट नामक उपनाम के निवासियों की है।
भौगोलिक संरचना
काला चौना मौजूदा भिकियासैंण से मॉंसी तथा मॉंसी से जालली मोटर मार्ग के ठीक बीचों-बीच स्थित है। जिसे कुमांऊॅं मण्डल के परगना पाली अर्थात पाली पछांऊॅं कहे जाने वाले इलाके के अन्तर्गत कह सकते हैं। इस गॉंव का क्षेत्रफल तकरीबन पॉंच वर्ग किलोमीटर है। जिसका 65 फीसदी भू भाग खेतीहर उपजाऊ पठार तथा शेष परती भूमि, चराहगाह, तथा वन संरक्षण में विभक्त है। पूर्व दिशा में कबडोली, सरकारी पाली (पाली पछांऊॅं), नाईखोला तथा धोबीखोला नामक गॉंव, पश्चिम की ओर रामगंगा के पार कनौंणी और गोगता (मोहणा), उत्तर में मॉंसी, डोबरी और ऊॅंचावाहन तथा दक्षिणी छोर पर थापला और परथोला नामक गॉंवों की सीमा रेखाऐं काला चौना को विभक्त करती हैं।
काला चौना का भूभाग दो भागों में विभाजित है। पहला चक चौना दूसरा चक बैकू।
सभ्यता एवम् संस्कृति
काला चौना की सभ्यता एवं संस्कृति पूर्ण रूप से कुमांऊॅंनी और हिन्दू है। घरों की बनावट व सजावट में ही सर्वप्रथम पर्वतीय लोक कला व संस्कृति दृष्टिगोचर होती है। दशहरा, दीपावली, नामकरण, जनेऊ आदि शुभ अवसरों पर महिलाएँ घर में ऐंपण (अर्पण) बनाती हैं। इसके लिए घर, ऑंगन तथा सीढ़ियों को गेरू से लीपा जाता है। चावलों को भिगोकर पीसा जाता है तथा उसके लेप से आकर्षक चित्र बनाए जाते हैं। विभिन्न अवसरों पर नामकरण-चौकी, सूर्य-चौकी, स्नान-चौकी, जन्मदिन-चौकी, यज्ञोपवीत-चौकी, विवाह-चौकी, धूमिलअर्ध्य-चौकी, वर-चौकी, आचार्य-चौकी, अष्टदल-कमल, स्वास्तिक-पीठ, विष्णु-पीठ, शिव-पीठ, सरस्वती-पीठ तथा विभिन्न प्रकार की परम्परागत कलाकृतियॉं बनाई जाती हैं। इन्हेें तकरीबन महिलाऐं व बालिकाऐं ही बनाती हैं।
काला चौना में बोलचाल की भाषा अर्थात बोली को पाली पछांऊॅं की कुमांऊॅंनी कहा जाता है। सरकारी कामकाज में बोलने व लिखने की भाषा हिन्दी है। अध्ययन व अध्यापन हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में पाया जाता है।
पहले ठंड की अधिकता के कारण घर छोटे लेकिन पक्के हुआ करते थे। जो लकड़ी व पत्थर के नक्काशीयुक्त होते हैं। घरों के ऊपर यानि छतों पर पत्थर बिछाने का प्रचलन है। प्रत्येक घर के आगे खुली जगह और खुला आॅगन होता है, जिनमें कलाकारी के साथ पत्थर बिछे होते हैं। आॅगन के तीनों छोर खोई भिड़ नामक चारदिवारीयुक्त होता है। समयानुसार इमारती लकड़ियों व उचित पत्थरों की कमी और बदलते सामाजिक परिवेश के अनुरूप घरों की बनावट में परिवर्तन होने लगा है। लोग सीमेण्ट व ईंट के घरों का उपयोग करने लगे हैं।
वेश-भूषा तथा पहनावा
पारम्परिक रूप से यहॉं की महिलायें घाघरा, आँगड़ी, पिछोड़ी, कुर्ती पहनतीं थीं। अब पेटीकोट, ब्लाउज व साड़ी पहननेे लगीं हैं। पुरूष मर्दानी धोती, कुर्ता, चूड़ीदार पजामा,अंगरखोई, फतोई, भोटुवा, साफा, टोपी पहनते थे। जाड़ों (सर्दियों) में ऊनी कपड़ों का उपयोग होता है। विवाह आदि शुभ कार्यो के अवसर पर कई क्षेत्रों में अभी भी सनील का घाघरा और पिछोड़ी पहनने की परम्परा है। सिर में शीषफूल। गले में गुलोबन्द, चर्यो, माला, सुत, जजीर, हॅसुली। नाक में नथ, बुलॉग, फूली। कानों में कर्णफूल, कुण्डल। हाथों में सोने या चाँदी के पौंजी, धागुले। पैरों में बिछुए पजेब, पौंटा इत्यादि प्रकार के आभूषण पहनने की परम्परा प्राचीनकाल से रही है। विवाहित औरत की पहचान गले में चरेऊ पहनने से होती है। विवाह इत्यादि शुभ अवसरों पर पिछौड़ा पहनने का भी यहाँ प्रचलन है।
आवागमन के स्रोत
काला चौना के लिए प्राचीन काल से ही आवागमन का अभाव लगभग ना के बराबर ही रहा है। कत्यूरी राजवंश, चन्द राजवंश, गोरखा राज तथा ब्रिटिश शासनकाल के मार्गों के अवशेष आज भी जीवित हैं और कुछेक प्रयोग में भी हैं। गढ़वाल से पाली पछांऊॅं होकर रानीखेत को जाता तत्कालीन राजमार्ग काला चौना के बीचों-बीच से गुजरता है। तराई से भिकियासैंण होकर आता और उत्तर की ओर बद्रीनाथ धाम, केदारनाथ धाम इत्यादि इलाकों का तत्कालीन मार्ग यहीं होकर निकलता था। बाद में ब्रिटिशकाल के दौरान जिसके समानान्तर मौजूदा मोटर मार्ग बना जो अाज यातायात की मुख्य सड़क है। दूसरा रानीखेत से जालली होते हुए मॉंसी तक जाता मोटर मार्ग भी आधा किलोमीटर पहले काला चौना को छूकर ही पहुंचता है। इस मार्ग का निर्माण लगभग 1970-75 के दौरान हुआ था।
वायु मार्ग
निकटतम हवाई अड्डा रुद्रपुर व हल्द्वानी के मध्य में स्थित पंतनगर विमानक्षेत्र है। यह सड़क द्वारा लगभग 175 से 200 किलोमीटर की दूरी पर पंतनगर में ही है। जहॉ से सुविधानुसार टैक्सी अथवा कार से पहुंचा जाता है।
रेल मार्ग
रेलवे जंक्शन काठगोदाम जो कि लगभग 161 किलोमीटर की दूरी पर तथा दूसरा रेलवे जंक्शन 115 किलोमीटर पर रामनगर में है। दोनों स्थानों से सुविधानुसार उत्तराखंड परिवहन की बस अथवा टैक्सी कार द्वारा आसानी से काला चौना पहुंचा जा सकता है।
सड़क मार्ग
दिल्ली के आनन्द विहार आईएसबीटी से यहॉ के लिए उत्तराखण्ड परिवहन की बसें नियमित रूप से उपलब्ध होती हैं। जिनके द्वारा 10-12 घंटों में यहॉ पहुंचा जाता है। प्रदेश के अन्य स्थानों से भी बसों की सुविधाऐं उपलब्ध हैं। दिल्ली से रूट: राष्ट्रीय राजमार्ग ९ से हापुड़, गजरौला, मुरादाबाद, रामनगर, भतरोंजखान या घट्टी से भिकियसैण होते हुए काला चौना, मॉसी।
धार्मिक व प्राकृतिक स्थल
- कोटेश्वर महादेव
कोटेश्वर महादेव चौना गॉंव की रिहायश से चन्द कदमों की दूरी पर दक्षिणी छोर में स्थित लगभग दो-तीन एकड़ में फैला प्राचीन और एकमात्र शिवालय है। यह सोमनाथेश्वर महादेव नामक शिवालय (जो रामगंगा के पश्चिमी तट पर कनौंणी व आदीग्राम फुलोरिया के मध्य में है) का अंग है। कोटेश्वर महादेव की स्थापना ग्रामोदय काल की है। चारों तरफ लहलहाते खेतों की हरियाली तथा फल फूलों से लदी डालियों के बीच स्थापित है यह शिवालय। मान्यता है कि यहॉ पर साध्वी साध्वियॉं ही शिवालय की सफल पुजारिन होती हैं, यही कालों से परम्परा रही है। यह काला चौना निवासियों का देवों के देव महादेव की पूजा आराधना करने का उत्कृष्ट एवम् साफ स्वच्छ शिवालय है। देवादिदेव शिव की पूजा अर्चना तो यहॉं निरंतर होती रहती है, परन्तु विशेष अवसरों पर महाशिवपुराण कथा, शिवार्चन तथा विभिन्न प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान इत्यादि भी दिखाई देते है। कोटेश्वर महादेव में महाशिवरात्रि का विशेष महत्व होता है, कथन है, यहॉं पर जलाभिशेख के बाद ही सोमनाथेश्वर महादेव को प्रस्थान किया जाता है। हर चौना वासी फसल कटने पर शुरू के कुछ ही अर्पित-चुनिन्दा हिस्सों में से एक भाग (जिसे स्थानीय लोग अङन्याव कहते हैं ) यहॉ अर्पित कर महाकाल का भोग लगाते हैं, बाद में इससे साध्वियों का गुजारा तथा इससे प्राप्त राशि शिवालय के रखरखाव व विकास कार्यों में लगायी जाती है। यहॉ समीपवर्ती गॉवों से भी श्रधालु पूजा अर्चना तथा कथाश्रवण करने समय-समय पर आते रहते हैं।
कोटेश्वर महादेव के ठीक नीचे की ओर रिघाड़ गधेरे के समीप तत्कालीन जलाशय, चश्मा यानि बावड़ी (जिसे कुमांऊॅंनी भाषा में नौला कहते हैं ) है। यह तत्कालीन वास्तुकला की धरोहरों में से एक है। जिसे देखना, काला चौना आने वाला प्रत्येक आगन्तुक आज भी नहीं चूकता है।
- धूॅंणी थान यानि भगवती माता मन्दिर
काला चौना गॉंव के ठीक उत्तर-पूर्व में स्थित धूॅंणी थान नाम से प्रख्यात मॉं भगवती का अाराध्य मंदिर है। इसकी स्थापना गॉंव की स्थापना के शुरुआत में ही मानी जाती है। यह गॉंव के उत्तर पूर्व दिशा में गॉंव से कुछ ऊँचाई पर स्थित है। यह ग्रामवासियों का मॉं भगवती की पूजा आराधना करने का उत्तम हिन्दू मन्दिर है। यहॉं समय समय पर पूर्ण रूप से कुमांऊॅंनी संस्कृति के अनुसार मॉं भगवती की पूजा अर्चना जातरा व बैसी (बाइस बार यानि लगातार ग्यारह दिन तक होने वाली कुमांऊँनीं संस्कृति से आराधना) के रूप में की जाती है। जो रात के बारह एक बजे के बाद तक चलती है। इसे देखने सुनने श्रधालु लोग सुदूर गॉंवों से भी आते हैं। बैसी के ग्यारहवें दिन सभी गॉंववासी सुदूर से पधारे श्रधालुओं समेत सभी देवी देवताओं के अवतारियों को पारम्परिक वेश भूषा, साज-सज्जा, वाद्य यंत्रों, पताका ध्वजों, प्राचीन अस्त्र सस्त्रों, पारम्परिक नृत्य कलाओं के साथ रणभेरी बजाते हुये गंगा स्नान करने व कराने रामगंगा नदी में जाते हैं। यह गंगा स्नान काला चौना के पैत्रिक धाम रामगंगा के पूर्वी तट सोमनाथेश्वर महादेव पर ही किया जाता है। समापन दिवस पर शुद्ध वैष्णवी महाभोज का आयोजन होता है। जिसमें दर्जन भर से अधिक गॉंवों को आमंत्रित किया जाता है। वे पारम्परिक वाद्य यंत्रों व ध्वज पताकाओं समेत अपने-अपने गॉंव के समूह के साथ इस समापन दिवस व महाभोज में पहुंचते हैं। इस अाराध्य स्थल में प्राचीन काल से ही किसी भी प्रकार की बलि प्रथा का प्रचलन नहीं है।
- कत्यूर थान यानि कत्यूरों का मन्दिर
यह गॉंव के पूर्वी छोर पर कत्यूर थान के नाम से प्रसिद्ध कत्यूरों यानि कत्यूरी राजवंश की पूजा अाराधना का एकमात्र प्राचीन मन्दिर है। कत्यूरी राजवंश भारत के उत्तराखण्ड राज्य का एक मध्ययुगीन (लगभग छठीं से ग्यारहवीं सदीं के मध्य का) राजवंश था, जिनके बारे में में माना जाता है कि वे अयोध्या के शालिवाहन शासक के वंशज थे। कत्यूरी राजा गिरीराज चक्रचूड़ामणि की उपाधि से विभूषित थे। समूचे उत्तराखण्ड में भूतों (यानि स्वर्गवासी महा-पूर्वजों) की पूजा आराधना वैदिक काल से सर्वमान्य है। स्पष्ट है कि मेलदेव कनौणियॉं के तीसरे पुत्र (काला चौना के सूत्रपात) ने ग्रामोदय काल के दौरान इस थान (मन्दिर) की स्थापना की थी। कहा जाता है कि काला चौना की बसावट के दौरान गॉंव के दक्षिण पूर्व की पहाड़ियों (धनाड़ गधेरे का पूर्वी भू भाग ) में ऐंड़ी (कुमांऊॅं के एक देवता) का आतंक था, इसलिए कि इस भू भाग पर उसके गणों का आना-जाना लगा रहता था। इसी दौरान गेवाड़ घाटी के समस्त नुमाइन्दों की मौजूदगी में ऐड़ी से निजात पाने के लिए ही इस कत्यूर थान को स्थापित किया गया था। क्योंकि इससे पूर्व समूची घाटी कत्यूरों की है। तदोपरान्त ऐड़ी देवता व चारों गॉंवों के कनौंणियॉं नामक लोगों के बीच सहमति बनी।
- ग्वेलू थान यानि ग्वेल या गोलू देवता का मन्दिर
कत्यूर थान से पूर्व की ओर चन्द कदमों की दूरी पर स्थित यह मन्दिर ग्वेल देवता की पूजा अर्चना का शीर्ष शक्ति पीठ है। जिसे उत्तराखण्ड राज्य में ग्वेल, गोलजू, बाला गोरिया, गौर भैरव, गोलू इत्यादि नामों से पुकारा जाता है। यहॉं पर संसारी ग्वेल के नाम से भी पुकारते है। समूचे उत्तराखण्ड में ग्वेल (गोलू) देवता को न्यायकारी देव के रूप में पूजा जाता है।
- दीपादेवी थान अथवा मन्दिर
दीपादेवी थान (मन्दिर का अविकसित छोटा रूप) को दीपा, दीपक, प्रकाश अर्थात सरस्वती माता का मन्दिर माना जाता रहा है। यह गॉंव के दक्षिणी छोर पर नौधरुवा नामक स्थान पर हैं। पूर्वजों द्वारा स्थापित यह गॉंव के विद्याध्ययन करने वाले विद्यार्थियों का एकमात्र आस्था का स्थान माना जाता रहा है।
- ग्वेलदेरानी का थान
यह गॉंव के पूर्वी छोर से हटकर धनाड़ गधेरेे के पार सौंगराड़ी नामक स्थान से कुछ ऊंचाई पर है। अब कुछ अवशेष ही बचे रह गये हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि प्राचीन काल में जिन्हें अब दैवीय शक्तियॉ कहते है। मानव भी उनका कुछ ज्ञाता था। इसी बात का प्रमाण देता है ग्वेलदेरानी का थान। बरषों पहले कृषि पर ही जीवन यापन निर्भर रहता था और खेती समुचित प्रकृति व बारिष पर। समय पर बारिष न होने व लगातार बारिष की अधिकता से निजात पाने के लिए ग्वेलदेरानी की पूजा अर्चना की जाती थी। समय बदला, लोग बदले, लोगों का व्यवसाय व सामाजिक स्वरूप बदलने से ग्वेलदेरानी के प्रति आस्था भी विलुप्त होती चली गयी। अन्तत: उन्नीसवीं सदी की समाप्ति से पूर्व ही ग्वेदेरानी अपनी कृपा सहित हमेशा के लिए यहॉ से अन्तर्ध्यान हो गयी। परन्तु थान (मन्दिर का अविकसित छोटा रूप) के कुछ ही अवशेष उन विस्मित कृपाओं को कहने की अन्तिम सॉसें गिन रहे हैं, लेकिन सुनने वाला कोई नहीं होता।
- नङारधण का थान अथवा मन्दिर
देवभूमि के तैंतीस करोड़ देवी देवताओं में एक नायाब हीरा छुपा है। यह है नङारधण देवता। यानि हमारे दुधारु पशुओं का कृपानिधान। नङारधण देवता की पूजा उत्तराखण्ड का प्रत्येक घर करता है और हर गॉंव में इनका मन्दिर स्थापित है। इसी प्रकार काला चौना के निकट ठीक उत्तर पूर्व में यह नङारधण देवता का थान यानि मन्दिर स्थापित है। जिस प्रकार हिन्दू धर्म में मातृ प्रसव के कुछ पन्चांगानुसार दिनों बाद मातृ तथा शिशु संस्कार की विधि है ठीक उसी प्रकार कुमांऊॅंनी सभ्यतानुसार पालतू व दुधारु पशुओं पर भी यह रस्म लागू होते आ रही है। तो यहॉं पर दुधारु पशुओं यानि गाय भैंस के प्रसव बाद निर्धारित तिथिनुसार संस्कार किये जाते हैं। शुद्ध दुग्ध तथा दुग्ध के पकवानों का पहला भोग नङारधण देवता को लगाया जाता है। हॉं यह भी बतादें, दुधारु पशुओं के गर्भाधान न हो सकने पर नङारधण देवता से मनौती भी मॉंगी जाती है। पूर्ण हो जाने पर प्रतिज्ञानुसार पूजा अर्चना की जाती है। उत्तराखण्ड बनने से पूर्व यहॉं बलि प्रथा का प्रचलन भी था।
- नौधरुआ यानि नौ प्राकृतिक जलधाराऐं
बीसवीं सदी के मध्य तक वेग से निकलतीं प्राकृतिक स्रोतों की क्रमश: नौ जलधाराओं के स्थान को नौधरुआ कहते है। यह काला चौना के चक बैकू भू भाग की दक्षिणी तलहटी पर है।
प्राचीन भग्नावशेष
काला चौना की सीमा के भीतर इस गॉव के प्राचीन इतिहास के विलुप्त हो रहे साक्ष्य गवाह के रूप यदा कदा बिखरे मिल ही जाते हैं।
कोटेश्वर महादेव शिवालय के ठीक नीचे की ओर रिघाड़ गधेरे के समीप तत्कालीन बावड़ी यानि जलाशय (जिसे स्थानीय लोग नौला कहते हैं ) है। यह तत्कालीन वास्तुकला की धरोहरों में से एक है। इसका निर्माण ग्रामोदय के दौरान ही हुआ था। बाद में जीर्णोद्धार हुआ। कई वर्षों तक ग्रामवासियों को यही एकमात्र पेय जल द्योतक रहा है। इसमें प्राकृतिक स्रोतों के द्वारा पृथ्वी के गर्भ से छन-छन कर निकलता शीतल व स्वच्छ जल बारहों महीने उपलब्ध रहता है। यह सत्य है, आज भी यहॉं पर पानी पीने से जुकाम के शिकार हो जाते हैं, अर्थात कहने का अभिप्राय यह है कि कोटेश्वर नौला के पानी को पचा पाना सभी के वस में सम्भव नहीं है। इसे देखना, काला चौना पहुंचने वाले आगन्तुक आज भी नहीं चूकते।
भुणकिले का नौला गॉंव के उत्तर पूर्व के मेहोधार से कुछ कदमों की दूरी पर है। यह नौला भी तत्कालीन वास्तुकला की पहचान में से एक है। 1980 तक यहॉ पर प्राकृतिक स्रोत से पृथ्वी के गर्भ से छन-छन कर निकलता शीतल व स्वच्छ जल उपलब्ध था। प्रकृति के बदलते स्वरूप व उचित रखरखाव न हो पाने के कारण 1990 के बाद सूखे की भेंट चढ़ गया। अवशेष के रूप में आज भी तत्कालीन यादों कों बयां करते नहीं चूकता।
मेले एवम् त्यौहार
कुमांऊॅं के सभी तीज-त्यौहार तथा उत्सव मनाऐ जाते हैं और पूर्ण रूप से पाली पछांऊॅं इलाके की कुमांऊॅंनी हिन्दू संस्कृति का समावेश बिखरा पड़ा रहता है।
- ऐतिहासिक सोमनाथ मेला
सोमनाथ मेला, सोमनाथ, सल्डिया सोमनाथ यानि वर्तमान ऐतिहासिक सोमनाथ कहा जाने वाला मेला कनौंणियॉं बिष्ट व मॉंसीवाल नामक उपनाम के लोगों से सम्बन्धित है। इस तल्ला गेवाड़ में माॅंसी के समीप परन्तु अब मॉंसी में प्रतिवर्ष होने वाले ऐतिहासिक सोमनाथ मेले की आराध्य भूमि को सोमनाथेश्वर कहते हैं। जो आज भी तत्समय के इतिहास के सुनहरे पन्नों और पाली पछांऊॅं इलाके की कुमांऊॅंनी सॉस्कृतिक विरासत को समेटे है।[3][4] यहीं से मेले के इतिहास का पदार्पण हुआ था और इसी सोमनाथेश्वर महादेव नामक शिवालय से शुरू होता था, सोमनाथ। वक्त बदला, लोग बदले और मेले का स्वरूप भी अछूता न रह सका और बीसवीं सदी के अन्त तक मेला मॉंसी के बाजार में होने लग गया और इतिहास भी काफी कुछ बदल गया और इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्ध में राजनीतिक रंग का समावेश भी दृष्टगोचर होने लगा है।
उल्लेखनीय है, सोमनाथेश्वर महादेव नामक शिवालय पर सैकड़ों वर्ष पूर्व कत्यूरी राजवंशावली के लड़देव के वंशजों में से मेलदेव कनौंणियॉं का षड़यंत्रों द्वारा वध कर दिया था। तबसे इस मेले की शुरुआत हुई है। यहॉं पर एक प्राचीन नौला (बावड़ी) है। इसी नौले में उनका कत्ल कर दिया था। तब से इस नौले का स्वच्छ साफ व शीतल जल सभी लोग पीते है। मात्र कनौंणियॉ नामक उपनाम के चारों गॉंवों (कनौंणी, डॉंग, काला चौना व आदीग्राम कनौणियॉं) के सूर्यवंशी मेलदेव कनौंणियॉं के वंशज इस पानी को आज भी ग्रहण नहीं करते।
निकटवर्ती धार्मिक, ऐतिहासिक व प्राकृतिक स्थल
यहॉं पर तकरीबन साल भर प्राकृतिक सौन्दर्य की विरासतता चारों ओर बिखरी रहती है।
- सोमनाथेश्वर महादेव
यह सोमनाथेश्वर महादेव नामक शिवालय तल्ला गेवाड़ के वर्तमान मॉंसी में प्रतिवर्ष होने वाले ऐतिहासिक सोमनाथ मेले की ऐतिहासिक आराध्य भूमि पर स्थित है। इसकी स्थापना कत्यूरी शासनकाल की मानी जाती है।
- पौराणिक बृद्धकेदार
यह पौराणिक बृद्धकेदार नामक शिवालय यहॉंं सेे चार किलोमीटर दक्षिण की ओर रामगंगा नदी के पश्चिमी तट पर विराजमान है। इस वैदिक काल के शिवालय को नेपाल स्थित पशुपतिनाथ मन्दिर का अंग माना जाता है। यहॉं पर महाशिव का धड़ स्थापित है। इसकी स्थापना का अनुमान पन्द्रहवीं सोलहवीं शताब्दी के मध्य का माना जाता है। यहॉं प्रतिवर्ष कार्तिक मास की पूर्णिमा की रात दूर दूर से भक्तगण आकर पूरी रात रामगंगा नदी में खड़े होकर तथा हाथों दीप प्रज्वलित कर श्रधासुमनों के साथ शिव भक्ति में लीन रहते हैं। भोर होने पर गंगा में विसर्जित कर अपनी-अपनी मनोकामनाओं को साकार करने की मनोकामना करते हैं। सदियों से मेला लगता है। महाशिवरात्रि के पर्व का विशेष महत्व होता है।
- नैथनादेवी
यह नैथनादेवी नाम शिखर जिसे कभी नागार्जुन कहा जाता था, उत्तर दिशा में काला चौना के शीर्ष की ओर विराजमान है। यहॉं गोरखाराज के किले के अवशेष भी मौजूद हैं, जहॉं से उस समय पाली पछांऊॅं इलाके की गतिविधियॉं संचालित थीं। बरषों से देखरेख के अभावों के बाद अवशेष खंडहरों के नामो निशान भी मिटने लगे हैं।
- मॉं मानिलादेवी
काला चौना में भोर होते ही घर से बाहर सुदूर-सामने झॉकने पर मॉं मानिलादेवी के दर्शन स्वयमेव हो जाते हैं। यह पर्वत शिखर काला चौना के ठीक दक्षिण में विराजमान है। जहॉं मॉं मानिला देवी के तल्ला व मल्ला मानिला में भव्य मन्दिर हैं।
काला चौना के उत्तर की ओर लगभग 20-25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं।
क्रय-विक्रय केन्द्र यानि बाजार
काला चौना में अब कुछ दुकानें उपलब्ध है, जहॉं पर रोजमर्रा की वस्तुवें मिल जाती हैं। निकटस्थ बाजार आधा किलोमीटर की दूरी पर मॉंसी है। जहॉं पर बैंक, डाकखाना, एटीएम, स्वास्थ्य सम्बन्धी सेवाऐं तथा तकरीबन सभी प्रकार की सुविधाऐं उपलब्ध हो जाती हैं।
शिक्षण सुविधाऐं
- राजकीय प्राथमिक पाठशाला, मेहोधार, काला चौना
- राजकीय इन्टरमीडिएट कालेज, मॉंसी
- राजकीय कन्या इन्टरमीडिएट कालेज, कनौंणी
- राजकीय स्नात्कोत्तर महाविद्यालय, मॉंसी
- सरस्वती शिशु मन्दिर, मॉंसी
- शेरसिंह हीत बिष्ट मैमोरियल स्कूल, मॉंसी
- रामगंगा वैली पब्लिक स्कूल, मॉंसी
- औद्योगिक तकनीकी संस्थान, मॉंसी
सन्दर्भ
- ↑ "The Kala Chauna village is located in the state Uttarakhand having the village code 051871". Village Maps, Indian Village Map Directory. मूल से 7 नवंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 4 नवम्बर 2017.
- ↑ "Kala Chauna village has higher literacy rate compared to Uttarakhand. In 2011". .census2011.co.in. मूल से 7 नवंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 4 नवम्बर 2017.
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