कलापक्ष
कलापक्ष या हायमेनोप्टेरा (Hymenoptera; हायमेन (hymen) = झिल्ली; टेरोन (pteron) = पक्ष या पंख) के अंतर्गत चींटियाँ, बर्रे (wasps), मधुमक्खियाँ और इनके निकट संबंधी तथा आखेटि पतंग आते हैं। लिनियस ने 1758 ई. में हायमेनोप्टेरा नाम उन कीटों को दिया जिनके पंख झिल्लीमय होते हैं तथा जिनकी नारियों में डंक होता है। अब तक डेढ़ लाख से अधिक जीवित हायमेनोप्टेरा प्रजातियों का वर्णन किया जा चुका है।[1][2] इसके अलावा इसमें २ हजार से अधिक जन्तु अब विलुप्त हो चुके हैं।[3]
परिचय
इन कीटों के लक्षण ये हैं – पक्ष (पंख) झिल्लीमय, प्राय: छोटे और पारदर्शक होते हैं तथा पक्षों का नाड़ीविन्यास (Venation) क्षीण होता है। आगे वाले पंख की तुलना में पीछे वाला पंख बड़ा होता है। पश्चपक्ष अग्रपक्ष के पिछलेवाले किनारे में ठीक-ठीक समा जाता है। अग्रपक्ष का पिछला किनारा मुड़ा रहता है जिसमें पश्चपक्ष के अगले किनारेवालें काँटे (Hamuli) फँस जाते हैं। ये काँटे बहुत ही छोटे तथा एक पंक्ति में होते हैं। कुछ जातियों की नारियाँ पक्षविहीन भी होती हैं, उदाहरणत: डेसीबेबरिस अरजेंटीपेस (Dasybabris argenti) में, किंतु नर सदैव पक्षवाले होते हैं। इनके मुखभाग चबाकर खानेवाले (chewing type) या चबाने चाटनेवाले (chewing lapping type) होते हैं। मैंडिबल तो चबाने या काटने का कार्य करते हैं, किंतु लेबियम प्राय: एक प्रकार की जिह्वा सी बन जाता है, जिससे पतंग भोजन चाटता है। वक्ष के अग्र और मध्य खंड का समेकन हो जाता है। उदर प्राय: पतला होकर कमर सा बन जाता है और इसके प्रथम खंड का वक्ष से सदा ही समेकन रहता है। नारियों में अंडरोपक (ovipositor) सदा पाया जाता है, जो काटने तथा छेदने और रक्षक तथा आक्रामक शस्त्र के रूप में डंक मारने का कार्य करता है। इनमें पूर्ण रूतांपरण होता है। डिंभ या तो इल्लियों के आकार के या बिना टाँगोंवाले होते हैं। उदर की टाँगें, जो पूर्वपाद (Proleg) कहलाती हैं, पाँच जोड़ी से अधिक होती हैं। कलापक्ष की बहुत सी जातियाँ समाजों में रहती हैं।
कलापक्ष सर्वाधिक विकसित कीटगणों में से एक गण है। इस गण की महत्ता केवल इसलिए नहीं है कि इसकी रचना पूर्ण रीति से हो चुकी है, वरन् इसलिए भी है कि इसमें अंत: प्रवृत्ति का अद्भूत विकास मिलता है। इसके जीवन के विषय में पर्याप्त अध्ययन द्वारा ज्ञात हुआ है कि इस कीटगण में समाज का विकसन किस प्रकार हुआ। कलापक्ष की लगभग 90,000 जातियों का पता चला है। इनमें से अधिकांश जातियाँ अन्य गणों की जातियों की भाँति एकाकी (Solitary) जीवन ही व्यतीत करती हैं, केवल कुछ ही जातियों में सामाजिक जीवन की प्रवृत्ति विकसित हुई है। ये जातियाँ बड़े-बड़े समाजों में रहती हैं, जैसे मधुमक्खियाँ, बर्रे और चीटियाँ। कलापक्ष की सहस्रों जातियाँ पराश्रयी (parasitic) होने के कारण मनुष्य के लिए बहुत लाभदायक हैं, क्योंकि ये अनेक हानिकारक कीटों को नष्ट कर देती हैं।
शरीररचना
कलापक्ष सूक्ष्म से लेकर मझोली नाप तक के होते हैं। दृष्टि तीक्ष्ण होती हैं, क्योंकि इनके नेत्र संयुक्त तथा बड़े होते हैं और प्राय: तीन सरल नेत्र भी पाए जाते हैं। दोनों लिगों की शृंगिकाओं में बहुत भेद रहता है। मधुमक्खी तथा बर्रो के नरों की शृंगिकाओं में प्राय: 13 खंड होते हैं और नारियों की शृंगिकाओं में 13 खंड। क्रकचमक्षी (सॉफ्लाई, Sawfl) के मुखभाग साधारण रूप के होते हैं और काटने का ही कार्य कर सकते हैं। अधिकतर कलापक्षों में मैंडिबल भोजन काटने के अतिरिक्त अन्य कार्य भी करते हैं, जैसे मधुमक्खियाँ अपने छत्ते के लिए मोम ढालने अन्य कार्य भी करते हैं, जैसे मधुमक्खियाँ अपने छत्ते के लिए मोम ढालने का कार्य मैंडिबल से ही करती हैं। कुछ मधुमक्खियों की जिह्वा बहुत लंबी होती है। कतिपय मधुमक्खियों की जिह्वा उनके शरीर की लंबाई से भी अधिक होती है। किसी-किसी में अधरोष्ठ (लेबियम, Labium) की स्पर्शनियां और ऊर्ध्व हन्वस्थि (मैक्सिला, Maxilla) भी जिह्वा के अनुसार ही लंबी हो जाती हैं और सब मिलकर एक स्पष्ट शुंड बना देती हैं। उदर के दूसरे खंड के आकोचन के कारण कमर बन जाती है। पक्षों के नाड़ीविन्यास में बहुत भेद पाए जाते हैं। क्रकचमक्षी में नाड़ीविन्यास भली प्रकार विकसित रहता है। कुछ पराश्रयी कलापक्षों के अग्रपक्ष में केवल एक ही शिरा (वेन vein) पर छोटे शल्कि के आकार की खपड़ियाँ (टेगुली, Tegulae) होती हैं, जो कलापक्ष के वर्गीकरण में एक महत्वपूर्ण लक्षण मानी जाती है। नारियों में अंडरोपक पूर्ण रूप से विकसित रहता है। लाक्षणिक अंडरोपक में तीन जोड़ी कपाट (वाल्व, Valve) होते हैं, एक जोड़ी कपाट मिलकर डंक बन जाते हैं, दूसरी जोड़ी डंक का खोल या म्यान और तीसरी डंक की स्पर्शनियाँ होती हैं। क्रकचमक्षी का अंडरोपक अंडरोपण के अतिरिक्त पौधों में अंडा रखने के लिए छोटे-छोटे छेद भी बनाता है; आखेटि पतंग और इसके संबंधी इसको अन्य कीटों पर आघात के लिए भी प्रयुक्त करते हैं। मधुमक्खियाँ, बर्रे और कुछ चींटियाँ इसको डंक मारने के काम में लाती हैं।[4] डंक मारने की प्रकृति इन कीटों के अतिरिक्त अन्य किसी भी कीट में नहीं पाई जाती।
जनन और विकसन
अधिकांश या लगभग सभी कलापक्षों का लिंग उसमें उपस्थित गुणसूत्रों (क्रोमोसोम्स) की संख्या से निर्धारित होता है। [5]जनन के संबंध में अत्यंत रोचक बात यह है कि इन कीटों में अधिकतर अनिषेक जनन होता है। मधुमक्खियों में अनिषिक्त अंडों में से केवल नर ही उत्पन्न होते हैं। द्रुस्फोट वरटों (गॉल वास्प) के अनिषिक्त अंडों से नर और नारी दोनों ही उत्पन्न होते हैं। अनिषिक्त अंडों की पीढ़ी और संसेचित अंडों की पीढ़ी, एक के पश्चात् एक, क्रमानुसार उत्पन्न होती रहती है। कुछ द्रुस्फोट वरटों में नर संभवतः उत्पन्न नहीं होते। क्रकचमक्षी और भुजतंतु वरट (कैलसिड, Chalcid) में भी अधिकतर अनिषेक जनन ही होता है।
जीवन
सिमफ़ायटा (Symphyta) के डिंभ शाकभक्षी होते हैं। जो डिंभ खुले में रहकर पत्तियाँ खाते हैं, वे इल्लियाँ कहलाते हैं। इनके उदर पर छह जोड़ी या इससे अधिक टाँगें नहीं पाई जातीं और वक्ष की टाँगें भी क्षीण होकर गुटिका के आकार की बन जाती हैं। ऐपोक्रिटा (Apocrita) के डिंभ प्राय: अपने भोजन के संपर्क में ही अंडे से निकलते हैं, अत: इनको भोजन की खोज नहीं करनी पड़ती। इस कारण इनमें अध:पतन (डिजेनेशन degerneration) हो जाता है। इनमें टाँगें तो होतीं ही नहीं और अन्यान्य विशिष्ट ज्ञानेंद्रियों का भी पूर्ण अभाव रहता है। पराश्रयी कलापक्षों में प्राय: अतिरूपांतरण (हाइपरमेटामार्फ़ोसिस, hypermetamorphosis) होता है, अत: डिंभ भी कई प्रकार के होते हैं और एक दूसरे में अत्यधिक भेद रहता है। उन पराश्रयी कलापक्षों में, जो अपने अंडे पोषक से दूर रखते हैं, अंडों से निकले हुए डिंभ बहुत क्रियाशील होते हैं, क्योंकि तभी वे पाषकों के पास पहुंच सकते हैं। पोषक पा जाने के पश्चात् ये पदविहीन डिंभ का आकार धारण कर लेते हैं। इस प्रकार के डिंभ साधारणतया सभी ऐपोक्रिटा में पाए जाते हैं। कुछ जतियाँ बाह्य पराश्रयी (external pa anite) होने के कारण अपने मुखभागों से अपने पोषक की देह छेदकर अपना भोजन प्राप्त करती हैं, किंतु अधिकतर पराश्रयी कलापक्ष आंतरिक परजीवी हैं। आंतरिक परजीवियों की नारी अपना अंडरोपक पोषक के भीतर घुसाकर एक अंडा रख देती हैं, किंतु जब पोषकों की कमी होती है तब एक-एक पोषक के भीतर एक से अधिक भी अंडा रख दिया जाता है। कुछ परजीवी इतने छोटे होते हैं कि किसी अन्य कीट के अंडे के भीतर ही अपना विकसन पूरा कर लेते हैं। कुछ परजीवी अपने अंडे अन्य कीटों के डिंभ और प्यूपा के भीतर भी रखते हैं, किंतु प्रौढ़ के भीतर अंडा रखनेवाले परजीवियों की संख्या बहुत थोड़ी है। पोषक की अंत में मृत्यु हो जाती है। खोदाई करनेवाले वरट अन्य कीटों को पकड़कर अपने डिंभों को खिलाते हैं। ये पकड़े हुए कीट प्रत्येक अंडे के साथ घरौंदा बनाकर रख दिए जाते हैं। जब अंडे से डिंभ निकलता है तब उसको अपने समीप ही भोजन मिल जाता है। मधुमक्खियाँ केवल पुष्पपराग और पुष्पमकरंद ही खाती हैं और अपने डिंभों के लिए इन्हें एकत्र कर लेती हैं। इस प्रकार ये कीट अपनी संतान का ध्यान रखते हैं। संतान का ध्यान रखने की यह प्रवृत्ति अन्य कीटों में नहीं है। इस प्रकार इन कीटों के कुछ समुदायों में समाजिक जीवन का विकास हुआ है। डिंभ पूर्ण अवस्था को पहुँचने पर कोष (कोकून, cocoon) के भीतर प्यूपा बन जाते हैं।
सबसे बड़े कलापक्ष खोदाई करनेवाले वरटों में मिलते हैं। इनमें से कोई-कोई वरट तीन इंच तक लंबा होता है। सबसे छोटे कलापक्ष अन्य कीटों के अंडों के भीतर रहनेवाले परजीवी हैं। अप्सरा (फ़ेयरी फ़्लाइ, Fairy fly) नामक परजीवी केवल 0.21 मिलीमीटर लंबा होता है। अधिकतर कलापक्ष भूमि पर रहने और हवा में उड़नेवाले हैं। केवल अप्सराएँ ही पानी में रहती हैं। ये अन्य जलवाले कीटों के अंडों या डिंभों पर अंडा रखने के लिए अपने पक्षों की सहायता से शीघ्रतापूर्वक तैरती रहती है। पराश्रयी जातियों की संख्या इस गण की शेष जातियों की संख्या की तुलना में बहुत अधिक है। भूमि पर रहनेवाले कीटों का कोई भी गण इनके आक्रमण से बचा नहीं। भूमि में गहराई पर छेद करके, या ठोस काष्ठ में, रहनेवाले डिंभ भी इनसे बच नहीं पाते। जिन परजीवियों को वृक्षों के भीतर रहनेवाले पोषकों तक अपना अंडा पहुँचाने के लिए अपना अंडरोपक वृक्षों के भीतर प्रविष्ट करना पड़ता है उनका अंडरोपक बहुत लंबा होता है। खोदाई करनेवाले वरट अपने घोंसले में अन्य कीट या मकड़ियाँ जमा करके रखते हैं। इन्हें साधारणत: डंक मारकर केवल निश्चल कर दिया जाता है। कुछ वरट अपने आखेट को मार भी डालते हैं। किंतु मरा हुआ शिकार सड़ता नहीं है, इसलिए ऐसा अनुमान है कि डंक मारते समय जो विष शिकार में पहुँचना है वह शिकार को सड़ने नहीं देता।
मधुमक्खियाँ, बर्रे और कुछ चींटियाँ अपना डंक अपनी रक्षा के लिए प्रयुक्त करती हैं। इनके डंक की जड़ पर विशेष प्रकार की बड़ी ग्रंथि होती है, जिसका स्राव डंक मारते समय शत्रु में प्रविष्ट हो जाता है। यह स्राव शत्रु में क्षोभ उत्पन्न करता है। चींटियों के स्राव में फ़ॉर्मिक अम्ल होता है।
घोंसला या छत्ता बनाना भी कलापक्षों का एक गण है। खोदाई करनेवाले वरट केवल सादा सा ही बिल धरती में बना लेते हैं। कुछ भ्रमरों का घोंसला सुरंगाकार कई शाखाओंवाला होता है। कुछ भ्रमर काष्ठ को छेदकर या वृक्षों के खोखले तनों में अपना घोंसला बनाते हैं। बर्रे सूखी लकड़ी को चबा चबाकर और चबाई हुई लकड़ी में अपनी लार मिलाकर एक प्रकार का कागज तैयार कर लेती है और इसी कागज का उपयोग अपना छत्ता बनाने में करती है। सामाजिक मधुमक्खियाँ अपने शरीर से मोम का उत्सर्जन करती हैं और इसे अपने छत्ते बनाने के काम में लाती हैं। कुछ कलापक्ष अपने घोंसले नहीं बनाते, बल्कि दूसरी जातियों के बनाए घोंसलों में ही रहने लगते हैं। ऐसे कलापक्ष अधिवासी (इनक्विलाइन, inquilline) कहलाते हैं। छत्तेवासियों द्वारा अपने डिंभों के लिए लाया गया भोजन भी कभी-कभी अधिवासियों के डिंभ खा जाते हैं। कुछ अधिवासी कलापक्ष ऐसे भी हैं जो छत्तेवासियों के डिभों को भी खा जाते हैं और इस प्रकार वास्तविक परजीवी बन जाते हैं। कलापक्षों का सबसे रोचक लक्षण है इनका सामाजिक जीवन। (देखिये सामाजिक कीट)।
हानि और लाभ
सिमफ़ायटा उपगण की जातियों के तथा क्रकचमक्षियों के डिंभ अत्यधिक हानिकारक होते हैं। अथेलिया प्रॉक्सिमा (Atheliy prexima) नामक क्रकचमक्षी के डिंभ पत्ती खाते हैं और इस प्रकार मूली, सरसों आदि को हानि पहुँचाने हैं। ऐपोक्रिटा उपगण की केवल थोड़ी सी ही जातियाँ हानिकारक हैं, अधिकतर जातियाँ लाभदायक हैं। ईकोफ़ायला स्मारग्डीना (oecoghylia smaragdina) आम आदि फलों के वृक्षों के लिए हानिकारक हैं। ये अपने घोंसले इन वक्षों पर पत्तियों से बनाते हैं। डोरीलस ओरिएंटैलिस (Dorylusorientalis) ईख को हानि पहुँचाना है। परंतु ऐपोक्रिटा से मनुष्य को अनेक लाभ हैं। मधुमक्खियाँ और इनके संबंधी अनेक फलदार वृक्षों तथा पौधों के फूलों का परागण करते हैं। एक बहुत ही सुंदर उदाहरण अंजीर का कीट (ब्लैस्टोफ़ागा Blastophaga) है। मधुमक्खियाँ (एपिसडोरसेटा और एपिस इंडिका, Apis dorsata and Apis Indica) मधु और मोम देती हैं। पराश्रयी कलापक्ष भी अत्यंत लाभदायक सिद्ध हुए हैं, क्योंकि मनुष्य हानिकारक कीटों को नष्ट करने में उनका उपयोग करने लगा है। ट्राइकोग्रामा माइन्यूटम p और फ़ेनुरस बेनीफ़ीशियस (Phanurus beneficiens) ईख के भीतर रहनेवाले कीटों के अंडों में अपने अंडे रखकर उनका नाश कर देते हैं। स्टेनोब्रेकॉन निसिविली (Stenobracon nicivillei) इन कीटों के डिंभों के परजीवी हैं। टेट्रास्टिकस पायरीली (Tetrastichus pyrillae) ईख के फर्तिगों के अंडों का परजीवी है। ये सब परजीवी ईख के इन हानिकारक कीटों को नष्ट करने में उपयुक्त होते हैं। ऐफ़ीलिनस माली (Aphelinus mali) सेब की ऊनी लाही (wolly aphis) को नष्ट करने के लिए कश्मीर में उपयोग किया गया है।
चित्रदीर्घा
- Hormiga fósil en ámbar
- Hartigia linearis (familia Cephidae)
- Arge cyanocrocea (familia Argidae) Polonia
- Arge pagana (familia Argidae) Polonia
- Trypoxylon collinum, pupa (familia Crabronidae). Pensilvania, Estados Unidos
- Tenthredo largiflava (familia Tenthredinidae) Bélgica
- Diprion simile Polonia
- Pnigalio mediterranens Familia Eulophidae
- Chrysis ignita (familia Chrysididae)
- Aleiodes indiscretus parasitando a una larva de polilla gitana
- Cotesia congregata parasitando a una oruga de Manduca sexta. Pensilvania, Estados Unidos
- Rhyssa persuasoria (icneumónido) hembra depositando huevos
- Eumenes coarctatus (subfamilia Eumeninae)
- Nido de avispa Eumeninae. Carolina del Sur, Estados Unidos
- Cerceris macho (familia Crabronidae) Pensilvania, Estados Unidos
- Vespula maculifrons (familia Vespidae) Pensilvania, Estados Unidos
- Megachile sp. (familia Megachilidae) en girasol. Pensilvania, Estados Unidos
- Augochloropsis metallica hembra (familia Halictidae). Pensilvania, Estados Unidos
- Bombus ternarius (familia Apidae). Míchigan, Estados Unidos.
- Hormiga Myrmecia sp.
भौगोलिक वितरण
कलापक्ष बहुत शीतल भागों के अतिरिक्त प्राय: सारे संसार में पाए जाते हैं। मधुमक्खियाँ केवल उन्हीं देशों में मिलती हैं जहाँ फूलवाले पौधे उगते हैं, क्योंकि इनका
जीवन फूलों पर ही निर्भर होता है। तक्षक मधुमक्खी (Carpenterbee) की अधिकतर जातियाँ उष्ण प्रदेशों तक ही सीमित हैं, किंतु गुंज-मधुमक्खी (बंबल बी, Bumble bee) की जातियाँ समशीतोष्ण भागों में भी पाई जाती हैं।
भूवृत्तीय वितरण
कलापक्ष के पूर्वज प्र:कलापक्ष थे जिनकी उत्पत्ति अवर गिरियुग (लोअर परमियन, Lower Permian) में हुई थी और जिनके कुछ अस्तित्वावशेष कानसस के अवर गिरियुग की चट्टानों में पाए जाते हैं। कलापक्ष का विकास सबसे पहले उत्तर महासरट (अपरजूरैसिक, Upper Jurrasic) युग में हुआ और इनके अस्तित्वावशेष बवेरिया की इस युग की चट्टानों में मिले हैं। तृतीयक (टरशियरी, Tertiary) युग में इस गण की चींटियाँ, मधुमक्खियाँ तथा कुछ अन्य जातियाँ भी उत्पन्न हो गई थीं। ये जातियाँ आधुनिक जातियों से लगभग मिलती जुलती थीं।
वर्गीकरण
कमर की स्थिति या अभाव के आधार पर कलापक्ष दो उपगणों में विभाजित किए गए हैं। सिमफ़ायटा (Symphyta) उपगण में उदर के अगले खंड अन्य खंडों की भाँति ही चौड़े होते हैं और पूरी चौड़ाई द्वारा वक्ष से जुड़े रहते हैं, अर्थात् इनमें कमर का अभाव रहता है। इनका अंडप्रस्थापक छेद करने या काटने का कार्य करता है और डंक का काम कभी नहीं देता। दूसरे उपगण ऐपोक्रिटा (Apocrita) में उदर के अगले खंड अन्य खंडों की तुलना में बहुत पतले होते हैं और इस प्रकार कमर बन जाती है। इनमें अंडप्रस्थापक ही प्राय: डंक का काम देता है।
सन्दर्भ
- ↑ Mayhew, Peter J. (2007). "Why are there so many insect species? Perspectives from fossils and phylogenies". Biological Reviews. 82 (3): 425–454. doi:10.1111/j.1469-185X.2007.00018.x. PMID 17624962.
- ↑ Janke, Axel; Klopfstein, Seraina; Vilhelmsen, Lars; Heraty, John M.; Sharkey, Michael; Ronquist, Fredrik (2013). "The Hymenopteran Tree of Life: Evidence from Protein-Coding Genes and Objectively Aligned Ribosomal Data". PLoS ONE. 8 (8): e69344. Bibcode:2013PLoSO...869344K. doi:10.1371/journal.pone.0069344. PMC 3732274. PMID 23936325.
- ↑ Aguiar, Alexandre P.; Deans, Andrew R.; Engel, Michael S.; Forshage, Mattias; Huber, John T.; et al. (30 August 2013). "Order Hymenoptera". In Zhang, Z.-Q. (ed.). Animal Biodiversity: An Outline of Higher-level Classification and Survey of Taxonomic Richness (Addenda 2013). Zootaxa. 3703. p. 51. doi:10.11646/zootaxa.3703.1.12.
- ↑ Hoell, H.V.; Doyen, J.T.; Purcell, A.H. (1998). Introduction to Insect Biology and Diversity (2nd ed.). Oxford University Press. pp. 570–579. ISBN 978-0-19-510033-4.
- ↑ David P. Cowan; Julie K. Stahlhut (13 July 2004). "Functionally reproductive diploid and haploid males in an inbreeding hymenopteran with complementary sex determination". PNAS. 101 (28): 10374–10379. Bibcode:2004PNAS..10110374C. doi:10.1073/pnas.0402481101. PMC 478579. PMID 15232002.
संदर्भ ग्रंथ
- आर.इ. स्नॉडग्रास : ऐनाटोमी ऐंड फ़िज़ियालॉजी ऑव द हनी बी (1956);
- रामरक्षपाल : कीटों में सामाजिक जीवन (1959);
- ए.डी. इंस : ए जेनरल टेक्स्ट बुक ऑव एंटोमॉलोजी, रिवाइज्ड बाई ओ. डब्ल्यू. रिचर्ड्स ऐंड आर.जी. डेविस (1957);
- एच. एम. लेफ़राय : इंडियन इंसेक्ट लाइफ़ (1909);
- टी.वी.आर. अय्यर : ए हैंडबुक ऑव इकोनामिक एंटोमॉलोजी फ़ॉर साउथ इंडिया (1940)।
बाहरी कड़ियाँ
- सामान्य
- Hymenoptera Anatomy Ontology project
- Hymenoptera Anatomy Glossary
- Hymenoptera Forum German and International
- Hymenoptera Information System (German)
- Hymenoptera of North America - large format reference photographs, descriptions, taxonomy
- International Society of Hymenopterists
- Bees, Wasps and Ants Recording Society (UK)
- Ants Photo Gallery (RU)
- International Palaeoentomological Society
- Sphecos Forum for Aculeate Hymenopterra
- Hymenoptera images on MorphBank, a biological image database
- Order Hymenoptera Insect Life Forms
- सिस्टेमैटिक (Systematics)
- Hymenopteran Systematics
- Hymenoptera Online 1000+ images
- क्षेत्रीय सूचियाँ
- Insetos do Brasil
- New Zealand Hymenoptera
- Waspweb Afrotropical Hymenoptera Excellent images
- पुस्तकें