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कर्माबाई

भक्त माता कर्मा (1615 ), प्रसिद्ध भक्तशिरोमणि, सन् 1615 में जीवणजी डूडी जाट के घर राजस्थान के नागौर जिले के कालवा गांव में पैदा हुई थी। यह जिले का एक प्राचीन एवं ऐतिहासिक स्थल है। यह गांव कालूजी डूडी के नाम पर बसाया गया था।[1] भक्तशिरोमणि कर्माबाई ने कृष्ण भगवान को कई बार साक्षात अपने सामने बैठाकर खिचड़ा खिलाया। इन्हें मारवाड़ की मीरा के नाम से भी जाना जाता है।

मुख्य भजन

मारवाड़ में यह गीत गाया जाता है:[2]

थाळी भरकर ल्याई रै खीचड़ो, ऊपर घी की घ़ैल की,

जिमो म्हारा श्याम धणी, जिमावै कर्मा बेटी जाट की।

माता-पिता म्हारा तीर्थ गया, नै जाणै कद बै आवैला,

जिमो म्हारा श्याम धणी, थानै जिमावै कर्मा बेटी जाट की।

राजस्थान के शेखावाटी, नागौर, बीकानेर, जोधपुर और कई स्थानों पर एक भजन बहुत मशहूर है- थाळी भरके ल्याई रे खीचड़ो, ऊपर घी की बाटकी। जीमो म्हारा श्याम धणी, जीमावै बेटी जाट की।।

इस भजन में कर्मा बाई का जिक्र किया गया है जिसके हाथ से बना खीचड़ा खाने के लिए स्वयं भगवान कृष्ण भी दौड़े चले आए थे। करमा बाई का नाम हमने बहुत बार सुना है, लेकिन क्या आप उनके जीवन के बारे में जानते हैं? इस आलेख में आप जानेंगे कैसे भगवान कृष्ण करमा बाई का खीचड़ा खाने आए थे और सबसे आखिर में पढ़ सकेंगे वह भजन जिसकी दो पंक्तियों का जिक्र ऊपर किया गया है।

भक्त शिरोमणि करमा बाई की कहानी

करमा बाई को मारवाड़ की मीरा भी कहा जाता है। जब-जब भगवान कृष्ण का उल्लेख आता है, करमा का नाम भी आ ही जाता है।

वे भगवान की महान भक्त थीं और कृष्ण ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए थे। राजस्थान के नागौर जिले की मकराना तहसील में एक गांव है- कालवा। इस गांव में जीवनराम डूडी के घर 1615 में एक बेटी का जन्म हुआ। भगवान की बहुत मन्नतें मांगने के बाद इसका जन्म हुआ था। नाम रखा- करमा। करमा के चेहरे पर एक अनोखी आभा थी। बचपन से ही उसमें भक्तिभाव के संस्कार थे।

जीवनराम स्वयं भी धार्मिक पुरुष थे और वे अपनी बेटी से बहुत स्नेह रखते थे। इसी माहौल में करमा 13 साल की हो गई। एक बार जीवनराम को कार्तिक पूर्णिमा स्नान के लिए पुष्कर जाना था। उनकी पत्नी भी उनके साथ जा रही थी। वे करमा को भी साथ ले जाना चाहते थे लेकिन एक समस्या आ गई। उनकी अनुपस्थिति में भगवान को भोग कौन लगाता? इसलिए उन्होंने करमा को यह जिम्मेदारी सौंपी और बोले- बेटी, हम दोनों पुष्कर स्नान के लिए जा रहे हैं। तुम सुबह भगवान को भोग लगाना और उसके बाद ही भोजन करना।

करमा ने यह जिम्मेदारी सहर्ष स्वीकार कर ली। इधर मां-पिता तीर्थ यात्रा के लिए रवाना हुए, उधर घर पर करमा ने सुबह स्नान आदि कर बाजरे का खीचड़ा बनाया। उसमें खूब घी डाला और पूजा के लिए भगवान की मूर्ति के पास आ गई। थाली सामने रखी और हाथ जोड़कर बोली, हे प्रभु, भूख लगे तब भोग लगा लेना, तब तक मैं घर के और काम कर लेती हूं।

इसके बाद वह काम में जुट गई। बीच-बीच में वह थाली देखने आती लेकिन भगवान ने खीचड़ा नहीं खाया। थाली वैसी ही रखी हुई थी जैसी करमा कुछ देर पहले छोड़कर गई थी।

काफी देर होने के बाद भी जब भगवान ने भोग नहीं लगाया तो उसे चिंता हुई। क्या खीचड़े में घी की कमी रह गई या थोड़ा और मीठा होना चाहिए था? उसने और गुड़ व घी मिलाया और वहीं बैठ गई। लेकिन भगवान ने फिर भी नहीं खाया। तब उसने कहा, हे प्रभु आप भोग लगा लीजिए। मां-बापू पुष्कर नहाने गए हैं।

आपको जिमाने की जिम्मेदारी मुझे दी गई है। इसलिए आपके भोग लगाने के बाद ही मैं खाना खाऊंगी। लेकिन भगवान फिर भी नहीं आए। फिर करमा उनसे शिकायत करने लगी...

करमा की शिकायत

वह बोली, मां-बापू जब जिमाते हैं तो भोग लगा लेते हो और आज इतनी देर कर दी! खुद भी भूखे बैठे हो और मुझे भूखी रखोगे। लेकिन भगवान फिर भी नहीं आए और करमा का खीचड़ा वहीं रखा हुआ था। करमा ने और इंतजार किया।

फिर बोली- तुम्हें मेरे हाथ से ही खीचड़ा खाना होगा। मां-बापू को आने में कई दिन लग जाएंगे। तुम जीम लो, वरना मैं भी भूखी ही रह जाऊंगी।

करमा का खीचड़ा खाने आए कन्हैया दोपहर बीत गई, शाम होने लगी थी, लेकिन करमा ने कुछ भी नहीं खाया। आखिरकार कृष्ण को आना ही पड़ा और बोले, करमा, तुमने पर्दा तो नहीं किया! ऐसे भोग कैसे लगाऊं? यह सुनकर करमा ने अपनी ओढऩी की ओट की और उसी की छाया में कृष्ण ने खीचड़े का भोग लगाया। थाली पूरी खाली हो गई।

करमा बोली, भगवान इतनी-सी बात थी तो पहले बता देते। खुद भी भूखे रहे और मुझे भी भूखी रखा। इसके बाद करमा ने खीचड़ा खाया। अब तो रोज करमा खीचड़ा बनाती है और कृष्ण उसका भोग लगाने आते।

जब तक करमा के मां-पिता तीर्थ-यात्रा पर रहे, रोज यह सिलसिला चलता रहा। कुछ दिनों बाद दोनों पुष्कर से घर लौटे। देखा, जाते समय तो मटका पूरा गुड़ से भरा था। अब खाली कैसे? उन्होंने करमा को बुलाया और पूछा, बेटी, गुड़ कहां है?

करमा ने बताया कि रोज भगवान कृष्ण उसके पास आते और खीचड़े का भोग लगाते। कहीं मिठास कम न हो जाए, इसलिए खीचड़े में गुड़ कुछ ज्यादा डाल दिया। उसने पहले दिन हुई परेशानी के बारे में भी बता दिया।

यह सुनकर माता-पिता चकित रह गए। जिस ईश्वर के लिए वे तीर्थ-यात्रा करने गए थे, जिसे लोग न जाने कहां-कहां ढूंढ़ रहे हैं, उसे उनकी बेटी ने अपने हाथ से खीचड़ा जिमाया!

यह कैसे संभव है? उन्हें चिंता भी हुई कि बेटी बावली तो नहीं हो गई है। उन्होंने मन को दिलासा देने के लिए कहा शायद करमा ही पूरा गुड़ खा गई होगी। इस पर करमा ने कहा, अगर आपको यकीन नहीं है तो कल देख लीजिए। मैं खुद भगवान को भोग लगाऊंगी।

दूसरे दिन करमा ने खीचड़ा बनाया। गुड़ और घी डालकर थाली मंदिर में रख दी। ओढऩी से पर्दा किया और प्रार्थना की - हे ईश्वर, मेरे सत्य की रक्षा करना अब आपके हाथ में ही है।

भक्त की पुकार सुनकर भगवान का सिंहासन डोल गया और कृष्ण खीचड़ा खाने आ गए। जीवनराम और उनकी पत्नी यह दृश्य देखकर विस्मित थे। उसी दिन से करमा बाई जगत में विख्यात हो गईं।

जीवन के अंतिम दिनों में करमा बाई भगवान जगन्नाथ की नगरी चली गईं और वहीं रहने लगीं। वहां रोज भगवान को खीचड़े का भोग लगातीं और भगवान उनके हाथ से खीचड़ा खाने आते। आज भी भगवान जगन्नाथ को खीचड़े का ही भोग लगाया जाता है।

ऐतिहासिक भजन

करमा बाई की भक्ति का प्रतीक प्रसिद्ध भजन

थाळी भरके ल्याई रे खीचड़ो, ऊपर घी की बाटकी। जीमो म्हारा श्याम धणी, जीमावै बेटी जाट की।।

बाबो म्हारो गांव गयो है, कुण जाणै कद आवैलो। बाबा कै भरोसै सांवरा, भूखो ही रह ज्यावैलो।।

आज जीमावूं तन्नैं खीचड़ो, काल राबड़ी छाछ की। जीमो म्हारा ...

बार-बार मंदिर नै जड़ती, बार-बार पट खोलती। जीमै कयां कोनी सांवरा, करड़ी-करड़ी बोलती।।

तूं जीमै जद मैं जीमूं, मानूं न कोई लाट की। जीमो म्हारा...

पड़दो भूल गई रे सांवरिया, पड़दो फेर लगायो जी। धाबळिया कै ओलै, श्याम खीचड़ो खायो जी।।

भोळा भगतां सूं सांवरा, अतरी कांई आंट जी। जीमो म्हारा...

भक्त हो तो करमा जैसी, सांवरियो घर आयो जी। भाई लोहाकर, हरख-हरख जस गायो जी।।

सांचो प्रेम प्रभु में हो तो, मुरती बोलै काठ की। जीमो म्हारा...

सन्दर्भ

  1. DeNapoli, Antoinette E. (2014). Real Sadhus Sing to God: Gender, Asceticism, and Vernacular Religion in Rajasthan (अंग्रेज़ी में). Oxford University Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9780199940035. मूल से 25 जुलाई 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 25 जुलाई 2018.
  2. Tivārī, Bholānātha (1962). Hindī sāhitya kī antarkathāem. Kitāb mahal. मूल से 25 जुलाई 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 25 जुलाई 2018.