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कर्नाट वंश

कर्नाट वंश
सिमराँव वंश

1097 ई.–1325 ई.
राजधानीसिमराँवगढ़
(वर्तमान समय सिम्रौनगढ़, बारा, प्रदेश संख्या २, नेपाल)
भाषाएँमैथिली
धार्मिक समूहहिन्दू
शासनराजतंत्र
ऐतिहासिक युगमध्यकालीन भारत
 - 11वीं शताब्दी 1097 ई.
 - हरिसिंह देव के समय 1325 ई.
आज इन देशों का हिस्सा है:भारत और नेपाल
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कर्नाट वंश या सिमराँव वंश या देव राजवंश का उदय 1097 ई. में मिथिला में हुआ। यह एक क्षत्रिय वंश था जिसकी राजधानी बारा जिले के सिम्रौनगढ़ में थी। कर्नाट वंश का संस्थापक नान्यदेव था। नान्यदेव एक महान शासक था। उनका पुत्र गंगदेव एक योग्य शासक बना। कर्नाट वंश क्रतु श्रृषी को अपना आदि पुरूष मानता है। कर्नाट वंश के शासनकाल को 'मिथिला का स्वर्णयुग' भी कहा जाता है।

नान्यदेव ने कर्नाट की राजधानी सिमराँवगढ़ बनाई। कर्नाट शासकों के वंश काल को मिथिला का स्वर्ण युग भी कहा जाता है।

राज्य ने उन क्षेत्रों को नियंत्रित किया जिन्हें आज हम भारत और नेपाल में तिरहुत या मिथिला के रूप में जानते हैं। यह क्षेत्र पूर्व में महानंदा नदी, दक्षिण में गंगा, पश्चिम में गण्डकी नदी और उत्तर में हिमालय से घिरा है।[1][2] 1816 में सुगौली संधि के बाद दोनों देशों के बीच सीमा रेखा बनाई गई थी।

फ्रांसीसी प्राच्यविद और विशेषज्ञ सिलावैन लेवी के अनुसार, नान्यदेव ने चालुक्य राजा विक्रमादित्य षष्टम की मदद से संभवतः सिमराँवगढ पर अपना वर्चस्व स्थापित किया।[3][4][5] 1076 ई. में विक्रमादित्य षष्ठम के शासन के बाद, उन्होंने आधुनिक बंगाल और बिहार पर सफल सैन्य अभियान का नेतृत्व किया।[6][7]

ओइनवार वंश के शासन तक मिथिला में स्थिरता और प्रगति हुई। नान्यदेव के साथ सेन वंश राजाओं से युद्ध होता रहता था।

  • कर्नाट वंश के शासक नरसिंह देव बंगाल के शासक से परेशान होकर उसने तुर्की का सहयोग लिया।
  • उसी समय बख्तियार खिलजी भी बिहार आया और नरसिंह देव को धन देकर उसे सन्तुष्ट कर लिया और नरसिंह देव का साम्राज्य तिरहुत से दरभंगा क्षेत्र तक फैल गया।

बिहार और बंगाल पर गयासुद्दीन तुगलक ने १३२४-२५ ई. में आधिपत्य कर लिया। उस समय मिथिला के शासक हरिसिंह देव थे। उन्होंने अपने योग्य मंत्री कामेश्वर झा को अगला राजा नियुक्त किया। इस प्रकार उत्तरी और पूर्व मध्य बिहार से कर्नाट वंश १३२५ ई. में समाप्त हो गया और मिथिला में नविन राजवंश का शासन शुरू कर दिया जो बाद में ओइनवार वंश के नाम से जाना जाता है ।

शासक

1. नान्यदेव

नान्यदेव (पूर्व राजधानी - नान्यपुर। बाद में 'सिमराँवगढ़' में राजधानी। 'सिमराँव' में निर्मित किला पर अंकित तिथि 18 जुलाई 1097 ई. सिद्ध होती है।[8] स्पष्ट है कि शासन इससे पहले भी रहा होगा।)


नान्यदेव[9] कर्नाट वंश के संस्थापक और पहले राजा थें[10][11] और हरिसिंह देव के पूर्वज थें। उसने अपनी राजधानी सिमराँवगढ़ में स्थापित की और 50 वर्षों तक मिथिला क्षेत्र पर शासन किया।[12] वह अपनी उदारता, साहस और विद्वानों के संरक्षण के लिए जाने जाते हैं।[13] वह कर्नाट क्षत्रिय कुल से थे और 1097 ई. में सिमराँवगढ़ से मिथिला पर शासन करने लगे। सिमराँवगढ़ और नेपालवंशावली में पाए गए पत्थर के शिलालेख में स्पष्ट रूप से लिखा है[14] कि उन्होंने श्रावण माह में शनिवार को सिंह लग्न, तिथि शुक्ल सप्तमी, नक्षत्र स्वाति में और शक संवत 1019(10 जुलाई, 1097 ई.) में एक स्तंभ बनाया।[15][16]

साहित्यिक कार्य

उन्होंने कई धुनों को बनाया और संस्कृत के काम, सरस्वती हृदयालंकार और ग्रंथ-महर्षि में अपना ज्ञान दर्ज किया।[17][18][19] मिथिला के शासक बनने के बाद उन्होंने यह काम पूरा किया।

2. मल्लदेव

मल्लदेव (अल्पकालिक शासन। राजधानी - 'भीठ भगवानपुर'।)

बिहार के मैथिल गंधवरिया राजपूत इन्हें अपना बीज पुरुष मानते हैं।

3. गंगदेव

गंगदेव - 1147 ई. से 1187 ई. तक। इन्होंने वर्तमान मधुबनी जिले के अंधराठाढ़ी में विशाल गढ़ बनवाया था।

4. नरसिंह देव

नरसिंह देव - 1187 ई. से 1225 ई. तक।

5. रामसिंह देव

रामसिंह देव - 1225 ई. से 1276 ई. तक।

6. शक्तिसिंह (शक्र) देव

शक्तिसिंह देव - 1276 ई. से 1296 ई. तक। इनके बाद युवराज के अवयस्क होने से उनके नाम पर 1303 ई. तक मंत्रिपरिषद का शासन रहा।

7. हरिसिंह देव

हरिसिंह देव - 1303 ई. से 1325 ई. तक। मुसलमानी आक्रमण से नेपाल पलायन।

हरिसिंह देव कर्नाट वंश के सबसे प्रसिद्ध राजा थें। हरिसिंह देव को हरसिंह देव के नाम से भी जाना जाता है।

हरिसिंह देव ने 1295-1325 ई तक शासन किया था।[20]

वह मिथिला के कर्नाट वंश से संबंधित अंतिम राजा होने के लिए उल्लेखनीय थे। इस्लामिक आक्रमण के बाद उनका शासन समाप्त हो गया और उन्हें नेपाल की पहाड़ियों की ओर भागने को मजबूर होना पड़ा। उनके वंशज अंततः काठमांडू के मल्ल वंश के संस्थापक बने जो मैथिली भाषा के संरक्षक होने के लिए जाने जाते थें।[21]

विरासत

मिथिला के इतिहास में हरिसिंह देव के शासनकाल को एक महत्वपूर्ण मोड़ माना गया है। उन्होंने कई सामाजिक परिवर्तन किए जैसे कि मैथिल ब्राह्मणों के लिए चार वर्ग प्रणाली की शुरूआत और पंजी व्यवस्था को विकसित किया।[22] माना जाता है कि उनका बहुत ही तूफानी राजनीतिक जीवन रहा था और उनके किलों के अवशेष आज भी सिम्रौनगढ़ में दिखाई देते हैं। उनके वंशजों ने अंततः नेपाल के मल्ल वंश की स्थापना की जिसने लगभग 300 वर्षों तक शासन किया।[23]

कर्णाटकालीन मूर्ति स्थापत्य कला

इन कर्नाट राजाओं के काल में साहित्य, कला और संस्कृति का विकास बड़े पैमाने पर हुआ था। दरभंगा, मधुबनी आदि पूर्व मध्यकालीन तीरभुक्ति (तिरहुत) के विभिन्न स्थलों से बहुत अधिक मात्रा में सूर्य,विष्णु, गणेश,उमा-महेश्वर आदि पाषाण प्रतिमाओं की प्राप्ति हुई है।इन मूर्तियों की प्राप्ति में कर्नाटकालीन शासकों का महत्वपूर्ण योगदान है। पूर्वमध्यकालीन पाल कला से इतर आंशिक परिवर्तन और स्थानीय स्तर पर होनेवाले शैलीगत परिवर्तन को अंधराठाढ़ी, भीठभगवानपुर आदि विभिन्न स्थानों पर प्राप्त कर्णाटकालीन प्रतिमाओं में देखा जा सकता है जिसके मूर्तिअभिलेख स्पष्ट करते हैं कि इनकी भाषा पाल कालीन भाषाओं से अलग है। हाल के वर्षों में इन क्षेत्रों की प्रतिमाओं का अध्ययन होने लगा है।[24]

अन्त

हरिसिंह देव ( 1295 से 1324 ई.), नान्यदेव के छठे वंशज मिथिला साम्राज्य पर शासन कर रहे थे। उसी समय तुगलक वंश सत्ता में आया, जिसने दिल्ली सल्तनत और पूरे उत्तर भारत पर 1320 से 1413 ईस्वी तक शासन किया। 1324 ई. में तुगलक वंश के संस्थापक और दिल्ली सुल्तान, गयासुद्दीन तुगलक ने अपना ध्यान बंगाल की ओर लगाया। तुगलक सेना ने बंगाल पर आक्रमण किया और दिल्ली वापस आने पर, सुल्तान ने सिमराँवगढ़ के बारे में सुना जो जंगल के अंदर पनप रहा था। कर्नाट वंश के अंतिम राजा हरिसिंह देव ने अपनी ताकत नहीं दिखाई और किले को छोड़ दिया क्योंकि उन्होंने तुगलक सुल्तान की सेना के सिमराँवगढ़ की ओर जाने की खबर सुनी। सुल्तान और उसकी टुकड़ी 3 दिनों तक वहाँ रहे और घने जंगल को साफ कर दिया। अंत में 3 दिन, सेना ने हमला किया और विशाल किले में प्रवेश किया, जिसकी दीवारें लम्बी थीं और 7 बड़ी खाईयों से घिरी हुई थीं।

सिमराँवगढ़ क्षेत्र में अभी भी अवशेष बिखरे हुए हैं। राजा हरिसिंह देव तत्कालीन नेपाल में उत्तर की ओर भाग गया। हरिसिंह देव के पुत्र जगतसिंह देव ने भक्तपुर नायक की विधवा राजकुमारी से विवाह किया। उत्तर बिहार के गंधवरिया राजपूत सिमराँव राजाओं के वंशज होने का दावा करते हैं।

सन्दर्भ

  1. Jha, M. (1997). "Hindu Kingdoms at contextual level". Anthropology of Ancient Hindu Kingdoms: A Study in Civilizational Perspective. New Delhi: M.D. Publications Pvt. Ltd. पपृ॰ 27–42.
  2. Mishra, V. (1979). Cultural Heritage of Mithila. Allahabad: Mithila Prakasana. पृ॰ 13. मूल से 29 दिसंबर 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 16 दिसंबर 2019.
  3. Magazine, New Spolight. "Sylvain Lévi's Le Népal". SpotlightNepal (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2019-04-15.
  4. Majumdar, Ramesh Chandra (1957). The Struggle For Empire. Bharatiya Vidya Bhavan, 1957. पृ॰ 47.
  5. Levi, Sylvain (2015-02-18). Le Népal: Étude Historique D'Un Royaume Hindou - Scholar's Choice Edition (अंग्रेज़ी में). Creative Media Partners, LLC. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9781297173240.
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  7. Mukherjee, Ramkrishna; Mukherjee, Roopali (1974). Rise and Fall East India (अंग्रेज़ी में). NYU Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9780853453154.
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  23. "DECLINE OF THE "KARNATAS" OF "MITHILA"": 79. JSTOR 44141053. Cite journal requires |journal= (मदद)
  24. दरभंगा प्रक्षेत्र की पाषाण प्रतिमायें -सुशान्त कुमार ,कला प्रकाशन,वाराणसी (उत्तर प्रदेश) 2015

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