कर्णप्रयाग का इतिहास
अलकनंदा एवं पिंडर नदी के संगम पर बसा कर्णप्रयाग धार्मिक पंच प्रयागों में तीसरा है जो मूलरूप से एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ करता था। बद्रीनाथ मंदिर जाते हुए साधुओं, मुनियों, ऋषियों एवं पैदल तीर्थयात्रियों को इस शहर से गुजरना पड़ता था। यह एक उन्नतिशील बाजार भी था और देश के अन्य भागों से आकर लोग यहां बस गये क्योंकि यहां व्यापार के अवसर उपलब्ध थे। इन गतिविधियों पर वर्ष 1803 की बिरेही बाढ़ के कारण रोक लग गयी क्योंकि शहर प्रवाह में बह गया। उस समय प्राचीन उमा देवी मंदिर का भी नुकसान हुआ। फिर सामान्यता बहाल हुई, शहर का पुनर्निर्माण हुआ तथा यात्रा एवं व्यापारिक गतिविधियां पुन: आरंभ हो गयी।
वर्ष 1803 में गोरखों ने गढ़वाल पर आक्रमण किया। कर्णप्रयाग भी सामान्यत: शेष गढ़वाल की तरह ही कत्यूरी वंश द्वारा शासित रहा जिसकी राजधानी जोशीमठ के पास थी। बाद में कत्यूरी वंश के लोग स्वयं कुमाऊं चले गये जहां वे चंद वंश द्वारा पराजित हो गये।
कत्यूरियों के हटने से कई शक्तियों का उदय हुआ जिनमें सर्वाधिक शक्तिशाली पंवार हुए। इस वंश की नींव कनक पाल ने चांदपुर गढ़ी, कर्णप्रयाग से 14 किलोमीटर दूर, में डाली जिसके 37वें वंशज अजय पाल ने अपनी राजधानी श्रीनगर में बसायी। कनक पाल द्वारा स्थापित वंश पाल वंश कहलाया जो नाम 16वीं सदी के दौरान शाह में परिवर्तित हो गया तथा वर्ष 1803 तक गढ़वाल पर शासन करता रहा।
गोरखों का संपर्क वर्ष 1814 में अंग्रेजों के साथ हुआ क्योंकि उनकी सीमाएं एक-दूसरे से मिलती थी। सीमा की कठिनाईयों के कारण अंग्रेजों ने अप्रैल 1815 में गढ़वाल पर आक्रमण किया तथा गोरखों को गढ़वाल से खदेड़कर इसे ब्रिटिश जिले की तरह मिला लिया तथा इसे दो भागों– पूर्वी गढ़वाल एवं पश्चिमी गढ़वाल– में बांट दिया। पूर्वी गढ़वाल को अंग्रेजों ने अपने ही पास रखकर इसे ब्रिटिश गढ़वाल नामित किया। वर्ष 1947 में भारत की आजादी तक कर्णप्रयाग भी ब्रिटिश गढ़वाल का ही एक भाग था।
ब्रिटिश काल में कर्णप्रयाग को रेल स्टेशन बनाने का एक प्रस्ताव था, पर शीघ्र ही भारत को आजादी मिल गयी और प्रस्ताव भुला दिया गया। वर्ष 1960 के दशक के बाद ही कर्णप्रयाग विकसित होने लगा जब उत्तराखंड के इस भाग में पक्की सड़कें बनी। यद्यपि उस समय भी यह एक तहसील था। उसके पहले गुड़ एवं नमक जैसी आवश्यक वस्तुओं के लिये भी कर्णप्राग के लोगों को कोट्द्वार तक पैदल जाना होता था।
वर्ष 1960 में जब चमोली जिला बना तब कर्णप्रयाग उत्तरप्रदेश में इसका एक भाग रहा और बाद में उत्तराखंड का यह भाग बना जब वर्ष 2000 में इसकी स्थापना हुई।