कन्हैयालाल सेठिया
कन्हैयालाल सेठिया | |
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जन्म | 11 सितंबर 1919 सुजानगढ़ |
मौत | 11 नवम्बर 2008 |
नागरिकता | भारत, भारतीय अधिराज्य |
शिक्षा | कोलकाता विश्वविद्यालय, स्कॉटिश चर्च कॉलेज |
पेशा | कवि, लेखक |
प्रसिद्धि का कारण | लीलटांस |
पुरस्कार | साहित्य अकादमी पुरस्कार[1] |
महाकवि श्री कन्हैयालाल सेठिया (11 सितम्बर 1919-11 नवंबर 2008) राजस्थानी भाषा के प्रसिद्ध कवि थे। उन्हें 2004 में पद्मश्री, साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा 1988 में ज्ञानपीठ के मूर्तिदेवी साहित्य पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। उन्हें स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अपनी राष्ट्रवादी काव्य के लिए युग-चारण की भूमिका निभाने के लिए जाना जाता है।[2]
न यह समझो कि हिन्दुस्तान की तलवार सोई है।
जिसे सुनकर दहलती थी कभी छाती सिकन्दर की जिसे सुन करके ‘कर’ से छूटती थी तेग़ बाबर की जिसे सुन शत्रु की फौजें बिखरती थीं सिहरती थीं विसर्जन की शरण ले डूबती नावें उभरती थीं हुई नीली जिसकी चोट से आकाश की छाती न यह समझो कि अब रण बांकुरी हुंकार सोई है।।1।।
फिरंगी से ज़रा पूछो कि हिन्दुस्तान कैसा है कि हिन्दुस्तानियों के रोष का तूफान कैसा है जरा पूछो भयंकर फांसियों के लाल तख्तों से बसा है नाग बांबी में मगर ओ छेड़ने वालों न यह समझो कि जीवित नाग की फुंकार सोई है।।2।।
न सीमा का हमारे देश ने विस्तार चाहा है किसी के स्वर्ण पर हमने नहीं अधिकार चाहा है मगर यह बात कहने में चूके हैं न चूकेंगे लहू देंगे मगर इस देश की मिटटी नहीं देंगे किसी लोलुप नजर ने यदि हमारी मुक्ति को देखा उठेगी तब-प्रलय की आग जिस पर क्षार सोई है।।3।।
संक्षिप्त जीवन वृत्त
कन्हैयालाल सेठिया का जन्म राजस्थान के चूरु जिले के सुजानगढ़ शहर में हुआ। प्रसिद्ध राजस्थानी गीत आ तो सुरगा नै सरमावै, ई पै देव रमण नै आवे इन्हीं की रचना है। 11 नवम्बर 2008 को निधन हो गया।
महामनीषी पद्मश्री कन्हैयालाल सेठिया का संक्षिप्त जीवन वृत्त इस प्रकार है :
- जन्म : 11 सितम्बर 1919 ई॰ को सुजानगढ़ (राजस्थान) में
- पिता-माता : स्वर्गीय छगनमलजी सेठिया एवं मनोहरी देवी
- विवाह : 1937 ई॰ में श्रीमती धापू देवी के साथ।
- सन्तान : दो पुत्र - जयप्रकाश एवं विनयप्रकाश तथा एक पुत्री श्रीमती सम्पत देवी दूगड़
- अध्ययन : बी॰ए॰
- निधन : 11 नवम्बर 2008
परिचय
कन्हैयालाल सेठिया राजस्थानी भाषा के महान रचनाकार होने के साथ साथ वो एक स्वतंत्रता सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता, सुधारक, परोपकारी और पर्यावरणविद भी थे। धरती धोरा री और पाथल और पीथल इनकी लोकप्रिय रचनाएं थी। सुजानगढ़ चुरू में जन्मे सेठिया गांधीजी से बड़े प्रभावित थे। उन्ही के प्रभाव से खादी के वस्त्र धारण करना, दलित उद्धार कार्य करना तथा राष्ट्रभक्ति से ओत प्रोत रचनाएं लिखा करते थे। इनकी रचना अग्निवीणा में अंग्रेजी हुकूमत को ललकार थी जिसके कारण उन पर राजद्रोह का केस लगा तथा इन्हें जेल भी जाना पड़ा। ये बीकानेर प्रजामंडल के सदस्य भी रहे तथा भारत छोड़ों आंदोलन के दौरान कराची में इन्होने जनसभाएं कर लोगों को जागृत करने की दिशा में कार्य किया। राजस्थानी कविता के सम्राट सेठिया को मृत्युप्रांत 31 मार्च 2012 को राजस्थान रत्न सम्मान देने की घोषणा की।
राजस्थानी के भीष्म पितामह
राजस्थानी के भीष्म पितामह कहे जाने श्री कन्हैयालाल सेठिया जी को कौन नहीं जानता होगा। यदि कोई नहीं जानता हो तो कोई बात नहीं इनकी इन पंक्तियों को तो देश का कोना-कोना जानता है।
धरती धोराँ री............,
आ तो सुरगां नै सरमावै,
ईं पर देव रमण नै आवै, ईं रो जस नर नारी गावै,
श्री सेठिया जी का यह अमर गीत देश के कण-कण में गूंजने लगा, हर सभागार में धूम मचाने लगा, घर-घर में गाये जाने लगा। स्कूल-कॉलेजों के पाढ्यक्रमों में इनके लिखे गीत पढ़ाये जाने लगे, जिसने पढ़ा वह दंग रह गया, कुछ साहित्यकार की सोच को तार-तार कर के रख दिया, जो यह मानते थे कि श्री कन्हैयालाल सेठिया सिर्फ राजस्थानी कवि हैं, इनके प्रकाशित काव्य संग्रह ने यह साबित कर दिखाया कि श्री सेठीया जी सिर्फ राजस्थान के ही नहीं पूरे देश के कवि हैं।
हिन्दी जगत की एक व्यथा यह भी रही कि वह जल्दी किसी को अपनी भाषा के समतुल्य नहीं मानता, दक्षिण भारत के एक से एक कवि हुए, उनके हिन्दी में अनुवाद भी छापे गये, विश्व कवि रविन्द्रनाथ ठाकुर की कविताओं का भी हिन्दी अनुवाद आया, सब इस बात के लिये तरसते रहे कि हिन्दी के पाठकों में भी इनके गीत गुनगुनाये जाये, जो आज तक संभव नहीं हो सका, जबकि श्री कन्हैयालाल सेठिया जी के गीत " धरती धोराँ री, आ तो सुरगां नै सरमावै, ईं पर देव रमण नै आवै," और असम के लोकप्रिय गायक व कवि डॉ॰ भूपेन ह्जारिका का "विस्तार है अपार, प्रजा दोनों पार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा बहती हो क्यों ?" गीत हर देशवासी की जुबान पर है।
यह इस बात को भी दर्शाता है कि पाठकों को किसी एक भाषा तक कभी भी बाँधकर नहीं रखा जा सकता और न ही किसी कवि व लेखक की भावना को। यह बात भी सत्य है कि इन कवियों को कभी भी हिन्दी कवि की तरह देश में मान नहीं मिला, बंगाल रवीन्द्र टैगोर, शरत्, बंकिम को देवता की तरह पूजता है। बिहार दिनकर पर गर्व करता है। उ॰प्र॰ बच्चन, निराला और महादेवी को अपनी थाती बताता है। मगर इस युग के इस महान महाकवि को कितना और कब और कैसे सम्मान मिला यह बात आपसे और हमसे छुपी नहीं है। बंगाल ने शायद यह मान लिया कि श्री सेठिया जी राजस्थान के कवि हैं और राजस्थान ने सोचा ही नहीं की श्री सेठिया जी राजस्थानियों के कण-कण में बस चुके हैं। कन्हैयालाल सेठिया ने राजस्थानी के लिये, कविता के लिए इतना सब किया, मगर सरकार ने कुछ नहीं किया। बंगाल रवीन्द्र टैगोर, शरत्, बंकिम को देवता की तरह पूजता है। बिहार दिनकर पर गर्व करता है। उ॰प्र॰ बच्चन, निराला और महादेवी वर्मा को अपनी थाती बताता है। मगर राजस्थान ....... ? कवि ने अपनी कविता के माध्यम से राजस्थान को जगाने का प्रयास भी किया -
किस निद्रा में मग्न हुए हो, सदियों से तुम राजस्थान् !
बालकवि बैरागी ने लिखा है
- " मैं महामनीषी श्री कन्हैयालालजी सेठिया की बात कर रहा हूँ। अमर होने या रहने के लिए बहुत अधिक लिखना आवश्यक नहीं है। मैं कहा करता हूँ कि बंकिमबाबू और अधिक कुछ भी नहीं लिखते तो भी मात्र और केवल 'वन्दे मातरम्' ने उनको अमर कर दिया होता। तुलसी - 'हनुमान चालिसा', इकबाल को 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा' जैसे अकेला एक गीत ही काफी था। रहीम ने मात्र सात सौ दोहे यानि कि चौदह सौ पंक्तियां लिखकर अपने आप को अमर कर लिया। ऎसा ही कुछ सेठियाजी के साथ भी हो चुका है, वे अपनी अकेली एक रचना के दम पर शाश्वत और सनातन है, चाहे वह रचना राजस्थानी भाषा की ही क्यों न हो।"
यह बात भले ही सोचने में काल्पनिक सा लगने लगा है हर उम्र के लोग इनकी कविता के इतने कायल से हो चुके हैं कि कानों में इसकी धुन भर से ही लोगों के पाँव थिरक उठते हैं, हाथों को रोके नहीं रोका जा सकता, बच्चा, बूढ़ा, जवान हर उम्र की जुबान पे, राजस्थान के कण-कण, ढाणी-ढाणी, में 'धरती धोरां री' गाये जाने लगा। सेठिया जी ने न सिर्फ काल को मात दी, आपको आजतक कोई यह न कह सका कि इनकी कविताओं में किसी एक वर्ग को ही महत्व दिया है, आमतौर पर जनवादी कवियों के बीच यह संकिर्णता देखी जाती है, इनकी इस कविता ने क्या कहा देखिये:
कुण जमीन रो धणी?, हाड़ मांस चाम गाळ,
खेत में पसेव सींच,
लू लपट ठंड मेह, सै सवै दांत भींच,
फ़ाड़ चौक कर करै, करै जोतणी'र बोवणी,
कवि अपने आप से पुछते है -
साहित्य सृजन
उनकी कुछ कृतियाँ है:- रमणियां रा सोरठा, गळगचिया, मींझर, कूंकंऊ, लीलटांस, धर कूंचा धर मंजळां, मायड़ रो हेलो, सबद, सतवाणी, अघरीकाळ, दीठ, क क्को कोड रो, लीकलकोळिया एवं हेमाणी।
राजस्थानी
रमणियां रा सोरठा, गळगचिया, मींझर, कूंकंऊ, धर कूंचा धर मंजळां, मायड़ रो हेलो, सबद, सतवाणी, अघरीकाळ, दीठ, क क्को कोड रो, लीकलकोळिया , हेमाणी ,पिथल और पाथल,जमीन रो धनी कुन, धरती धोरा री।
हिन्दी
वनफूल, अग्णिवीणा, मेरा युग, दीप किरण, प्रतिबिम्ब, आज हिमालय बोला, खुली खिड़कियां चौड़े रास्ते, प्रणाम, मर्म, अनाम, निर्ग्रन्थ, स्वागत, देह-विदेह, आकाशा गंगा, वामन विराट, श्रेयस, निष्पति एवं त्रयी।
उर्दू
ताजमहल एवं गुलचीं।
सम्मान एवं पुरस्कार
स्वतन्त्रता संग्रामी, समाज सुधारक, दार्शनिक तथा राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के कवि एवं लेखक के नाते आपको अनेक सम्मान, पुरस्कार एवं अलंकरण प्राप्त हैं जिनमें प्रमुख हैं -
- १९७६ ई॰ : राजस्थानी काव्यकृति 'लीलटांस' साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा राजस्थानी भाषा की सर्वश्रेष्ठ कृति के नाते पुरस्कृत।
- १९७९ ई॰ : हैदराबाद के राजस्थानी समाज द्वारा मायड़ भाषा की मान्यता हेतु संघर्ष के लिए सम्मानित। मायड़ भाषा को जीवन्त रखने की प्रेरणा दी।
- १९८१ ई॰ : राजस्थानी की उत्कृष्ट रचनाओं हेतु लोक संस्कृति शोध संस्थान, चूरू द्वारा 'डॉ॰ तेस्सीतोरी स्मृति स्वर्ण पदक` सम्मान प्रदत्त।
- १९८२ ई॰ : विवेक संस्थान, कलकत्ता द्वारा उत्कृष्ट साहित्य सृजन के लिए 'पूनमचन्द भूतोड़िया पुरस्कार` से पुरस्कृत।
- १९८३ ई॰ : राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर द्वारा सर्वोच्च सम्मान 'साहित्य मनीषी` की उपाधि से अलंकृत। 'मधुमति' मासिक का श्री सेठिया की काव्य यात्रा पर विशेषांक एवं पुस्तक भी प्रकाशित।
- १९८३ ई॰ : हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा 'साहित्य वाचस्पति` की उपाधि से अलंकृत।
- १९८४ ई॰ : राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर द्वारा अपनी सर्वोच्च उपाधि 'साहित्य मनीषी` से विभूषित।
- १९८७ ई॰ : राजस्थानी काव्यकृति 'सबद` पर राजस्थानी अकादमी का सर्वोच्च 'सूर्यमल मिश्रण शिखर पुरस्कार' प्रदत्त।[3]
- १९८८ ई॰ : हिन्दी काव्यकृति 'निर्ग्रन्थ' पर भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली द्वारा 'मूर्तिदेवी साहित्य पुरस्कार` प्रदत्त।
- १९८९ ई॰ : राजस्थानी काव्यकृति 'सत् वाणी' हेतु भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता द्वारा 'टांटिया पुरस्कार` से सम्मानित।
- १९८९ ई॰ : राजस्थानी वेलफेयर एसोशियेसन, मुंबई द्वारा 'नाहर सम्मान`।
- १९९० ई॰ : मित्र मन्दिर, कलकत्ता द्वारा उत्तम साहित्य सृजन हेतु सम्मानित।
- १९९२ ई॰ : राजस्थान सरकार द्वारा 'स्वतन्त्रता सेनानी` का ताम्रपत्र प्रदत्त कर सम्मानित।
- १९९७ ई॰ : रामनिवास आशादेवी लखोटिया ट्रस्ट, नई दिल्ली द्वारा 'लखोटिया पुरस्कार` से विभूषित।
- १९९७ ई॰ : हैदराबाद के राजस्थानी समाज द्वारा मायड़ भाष की सेवा हेतु सम्मानित।
- १९९८ ई॰ : ८० वें जन्म दिन पर डॉॅॅ॰ प्रतापचन्द्र चन्दर की अध्यक्षता में पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर तथा अन्य अनेक विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा सम्मानित।
- २००४ ई॰ : राजस्थानी भाषा संस्कृति एवं साहित्य अकादमी बीकानेर द्वारा राजस्थानी भाषा की उन्नति में योगदान हेतु सर्वोच्च सम्मान 'पृथ्वीराज राठौड़ पुरस्कार` से सम्मानित।
- २००५ ई॰ : राजस्थान फाउन्डेशन, कोलकाता चेप्टर द्वारा 'प्रवासी प्रतिभा पुरस्कार' से सम्मानित। एक लाख रुपये की पुरस्कार राशि राजस्थानी भाषा के कार्य में लगाने हेतु फाउन्डेशन को लौटा दी जिसे फाउन्डेशन ने राजस्थान परिषद को इस हेतु समर्पित किया।
- २००५ ई॰ : राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा पी॰एच॰डी॰ की मानद उपाधि प्रदत्त।
बाहरी कड़ियाँ
सन्दर्भ
- ↑ http://sahitya-akademi.gov.in/awards/akademi%20samman_suchi.jsp#RAJASTHANI. अभिगमन तिथि 9 मार्च 2019. गायब अथवा खाली
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(मदद) - ↑ Ātura, Prakāśa (1979). Rājasthāna kī Hindī kavitā. Saṅghī Prakāśana.
कवि ने जिस युग में सृजन क्रम प्रारम्भ किया, वह राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम का पावन क्षरण था प्रतः सेठिया जैसा दार्शनिक चितन अपने परिवेश से भसम्पृक्त न रह सका और वह भी युगवाणी में अपना स्वर मिला कर, युग चारण के दायित्व का निर्वाह करने लगा।
- ↑ Seṭhiyā, Kanhaiyālāla (1989). Kanhaiyālāla Seṭhiyā. Bhāloṭiyā Phāunḍeśana.
१९८७ ई० में आपकी राजस्थानी कृति 'सबद' पर राजस्थानी अकादमी का सर्वोच्च ' सूर्यमल्ल मिश्रण शिखर पुरस्कार ' प्रदान किया गया