ओटो वारबर्ग
ओटो हेनरिक वारबर्ग | |
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ओटो हेनरिक वारबर्ग | |
जन्म | 8 अक्टूबर 1883 फ्रायबर्ग, बेडेन, जर्मनी |
मृत्यु | अगस्त 1, 1970 बर्लिन, पश्चिमी जर्मनी | (उम्र 86)
राष्ट्रीयता | जर्मन |
क्षेत्र | कोशिका जीवविज्ञान |
संस्थान | Kaiser Wilhelm Institute for Biology |
शिक्षा | बर्लिन विश्वविद्यालय हाइडलबर्ग विश्वविद्यालय |
डॉक्टरी सलाहकार | Emil Fischer Ludolf von Krehl |
प्रसिद्धि | कैंसर की पहचान Warburg effect |
उल्लेखनीय सम्मान | आयरन क्रास 1st class (1918) नोबल पुरस्कार (1931)[1] Pour le Mérite (Civil Class) (1952) Foreign Member of the Royal Society[2] |
हेनरिक ओटो वारबर्ग (जन्म – 8 अक्टूबर 1883 फ्रायबर्ग, बेडन, जर्मनी निधन – 1 अगस्त 1970 बर्लिन, पश्चिमी जर्मनी) जर्मनी के जीवरसायन शास्त्री और शोधकर्ता थे। इनकी माँ का नाम एलिजाबैथ गार्टनर और पिता का नाम ऐमिल वारबर्ग था, जो बर्लिन विश्वविद्यालय में भौतिकशास्त्री थे। ऐमिल आइन्सटीन के मित्र थे और इन्होंने मेक्स प्लैंक के साथ भी काम किया था। ओटो ने 1906 में बर्लिन विश्वविद्यालय से रसायनशास्त्र में डॉक्ट्रेट की और 1911 में हाइडलबर्ग विश्वविद्यालय से डॉक्टर ऑफ मेडीसिन की डिग्री प्राप्त की थी। इसके बाद कुछ समय वे हाइडलबर्ग में ही शोध करते रहे। लेकिन 1913 में उन्हें बर्लिन के प्रतिष्ठित विल्हेम इन्स्टिट्यूट फोर बॉयोलाजी में नियुक्ति मिल गई। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने सेना में भी काम किया और उन्होंने आयरन क्रॉस पदक प्राप्त किया। लेकिन आइन्सटीन ने उन्हें सेना छोड़ने पर विवश किया और अपनी प्रतिभा और अमूल्य समय को मानव कल्याण हेतु शोध कार्यों में लगाने की प्रेरणा दी। सन् 1931 में वे विल्हेम इन्स्टिट्यूट के निर्देशक के पद से सम्मानित किये गये। वे अपनी मृत्यु तक इस संस्थान के प्रभारी बने रहे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इसका नाम बदल कर मेक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट रख दिया गया।
बीसवें दशक के प्रारंभ में डॉ॰ ओटो ने जीवित कोशिकाओं द्वारा ऑक्सीजन का उद्ग्रहण करने की क्रिया (कोशिकीय श्वसन- क्रिया) पर शोध शुरू किया था। सन् 1923 में इसके लिए उन्होंने एक विशेष दबाव-मापक यंत्र विकसित किया जिसे उन्होंने वारबर्ग मेनोमीटर नाम दिया। यह मेनोमीटर जैविक ऊतक की पतली सी तह द्वारा भी ऑक्सीजन के उद्ग्रहण की गति को नापने में सक्षम था। उन्होंने श्वसन-क्रिया को उत्प्रेरित करने करने वाले तत्वों पर बहुत शोध की और तभी ऑक्सीजन-परिवहन एन्जाइम साइटोक्रोम की खोज की, जिसके लिए उन्हें 1931 में नोबेल पुरस्कार मिला। ओटो ने पहली बार बतलाया था कि कैंसर कोशिका सामान्य कोशिका की तुलना में बहुत ही कम ऑक्सीजन ग्रहण करती है। उन्होंने हाइड्रोजन सायनाइड और कार्बन-मोनो-ऑक्साइड पर भी शोध की और बताया कि ये श्वसन-क्रिया को बाधित करते हैं। उन्होंने की जीवरसायन क्रियाओं के लिए सहायक उपघटक निकोटिनेमाइड और डिहाइड्रोजिनेज एन्जाइम आदि का बहुत अध्ययन किया। उन्होंने यह भी सिद्ध किया कि कैंसर कोशिका के पीएच और ऑक्सीजन उपभोग में सीधा संबन्ध होता है। यदि पीएच ज्यादा है तो कोशिका में ऑक्सीजन की मात्रा ज्यादा होगी। उन्होंने यह भी बतलाया कि कैंसर कोशिका में लेक्टिक एसिड और कार्बन-डाई-ऑक्साइड बनने के कारण पीएच बहुत कम लगभग 6.0 होता है। उनकी शोध के अन्य विषय माइटोकोन्ड्रिया में होने वाली इलेक्ट्रोन-परिवहन श्रंखला, पौधों में होने वाली प्रकाश-संश्लेषण क्रिया, कैंसर कोशिका का चयापचय आदि थे।
सन् 1963 के बाद से जर्मनी में जीरसायन शास्त्र और आणविक जीवविज्ञान में अच्छी शोध करने वाले वैज्ञानिकों को ओटो वारबर्ग मेडल से सम्मानित किया जाता है और 2007 के बाद से 25000 यूरो का नकद पुरस्कार भी दिया जाता है। इस पुरस्कार को प्राप्त करना वैज्ञानिकों के लिए बहुत सम्मानजनक माना जाता है। डॉ॰ ओटो ने 1931 में द मेटाबोलिज्म ऑफ ट्यूमर्स नामक पुस्तक का संपादन किया और अपने शोध कार्यों को इसमें प्रकाशित किया। 1962 में उन्होने न्यू मेथड्स ऑफ सैल फिजियोलाजी नामक पुस्तक लिखी थी। इन्होंने 178 शोधपत्र भी प्रकाशित किये थे। इनकी प्रयोगशाला में शोध करने वाले हन्स अडोल्फ क्रेब्स और दो अन्य वैज्ञानिकों ने भी नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया था।
वे हमेशा अध्ययन और मानव सेवा को सर्वोपरि मानते थे और वे आजीवन अविवाहित रहे। डॉ॰ ओटो जीवन के अंतिम पड़ाव में थोड़े चिड़चिड़े और सनकी हो गये थे। वे समझने लगे थे कि सारी बीमारियाँ प्रदूषित चीजें खाने से ही होती हैं, इसलिए वे ब्रेड भी अपने खेत में पैदा हुए जैविक गैंहूं की बनी हुई खाना पसन्द करते थे। कई बार तो वे रेस्टॉरेन्ट में चाय पीने जाते थे, पैसे भी पूरे देते थे परन्तु बदले में सिर्फ गर्म पानी लेते थे और अपने साथ लाई हुई जैविक चाय प्रयोग करते थे।
कैंसर का मुख्य कारण और बचाव
लिन्डाव का संशोधित व्याख्यान (संक्षिप्त)द्वारा ओटो वारबर्ग निर्देशक, मेक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट, कोशिकीय संरचना विज्ञान. बर्लिन-डेह्लेम, जर्मनी।अंग्रेजी संस्करण - डीन बर्क, नेशनल कैंसर इंस्टिट्यूट, बेथेस्डा, मेरीलैंड।
डीन बर्क द्वारा संक्षिप्त विवरण - यह व्याख्यान 1966 में लिंडाव, जर्मनी में हुए नोबेल पुरस्कार विजेताओं के वार्षिक अधिवेशन में ओटो वारबर्ग ने दिया था। उन्हें 1931 में कोशिकीय-श्वसन में ऑक्सीजन-परिवहन एन्जाइम (साइटोक्रोम-सी) की खोज के लिए मेडीसिन में नोबेल पुरस्कार दिया गया था और 1944 में भी हाइड्रोजन-परिवहन एन्जाइम्स के लिए सक्रिय तत्वों की खोज के लिए भी नोबेल पुरस्कार दिया जाने वाला था, परन्तु ऐसा कहा जाता है कि ओटो यहूदी मूल के नागरिक थे इसलिए एडोल्फ हिटलर नहीं चाहते थे कि उन्हें नाबेल पुरस्कार दिया जाये। हारवर्ड, ऑक्सफोर्ड और हाइडलबर्ग आदि विश्वविद्यलयों ने उन्हें डॉक्ट्रेट व अन्य उपाधियों से सम्मानित किया। जीवन के भौतिक-विज्ञान और रसायन-विज्ञान में उनकी बहुत रुचि थी।
किसी भी रोग के मुख्य (Primary) और द्वितीयक या गौंण (Secondary) कारण होते हैं। उदाहरण के तौर पर प्लेग का मुख्य कारण प्लेग का कीटाणु है, जबकि द्वितीयक कारण गंदगी, चूहे और पिस्सू (जो प्लेग के कीटाणुओं को चूहे से मनुष्य तक पहुँचाते हैं) हैं। मुख्य कारण से अभिप्राय यह है कि यह उस रोग से पीड़ित हर रोगी में विद्यमान होता है।
इसी तरह कैंसर के भी अनगिनत द्वितीयक कारण हो सकते हैं। लेकिन कैंसर का मुख्य कारण ऑक्सीजन द्वारा सामान्य कोशिकीय श्वसन-क्रिया का बाधित होकर शर्करा के खमीरीकरण (Fermentation of Sugar) में परिवर्तित हो जाना है। शरीर की सभी कोशिकाएं ऑक्सीजन द्वारा श्वसन करके ऊर्जा प्राप्त करती हैं, जबकि कैंसर कोशिका शर्करा को खमीर करके ऊर्जा प्राप्त करती है। सभी सामान्य कोशिकाएँ दरअसल वायुजीवी हैं और कैंसर कोशिका आँशिक अवायुजीवी हैं जो निम्न-स्तरीय एककोशीय जीवों की भाँति ग्लूकोज का खमीर करके जीवन व्यापन करती है। भौतिक और रसायनशास्त्र की दृष्टि से सामान्य और कैंसर कोशिका में यह अंतर महत्वपूर्ण है।
डेह्लेम इन्स्टिट्यूट में शुरू से ही कैंसर पर शोध हो रही थी। यहाँ ऑक्सीजन-परिवहन एन्जाइम हाइड्रोजन-परिवहन एन्जाइम्स की खोज हुई और उनकी रसायनिक संरचना का बारीकी से अध्ययन किया गया। यदि यह सत्य है कि कैंसर का प्रमुख कारण ऑक्सीजन द्वारा सामान्य श्वसन क्रिया का बाधित होकर खमीरीकरण में परिवर्तित होना है तो बिना किसी अपवाद के सभी कैंसर कोशिकाएँ खमीर द्वारा श्वसन क्रिया करेंगी और सामान्य कोशिकाएँ कभी भी खमीर द्वारा श्वसन नहीं करेंगी।
दो अमेरिकी वैज्ञानिकों मेल्मग्रेन और फ्लेनेगान ने सरल प्रयोग से यह सिद्ध किया था। उन्होंने चूहों के रक्त में टिटेनस के बीजाणु (Spores) छोड़े, जो ऑक्सीजन के अभाव में ही अंकुरित होकर फूट जाते है और टिटेनस फैलाने वाले कीटाणुओं को जन्म देते हैं। उन्होंने पाया कि चूहे स्वस्थ थे और उनमें टिटेनस रोग के कोई लक्षण दिखाई नहीं दे गहे थे, क्योंकि उनके शरीर में कहीं भी ऐसा स्थान नहीं था जहाँ पर्याप्त ऑक्सीजन विद्यमान नहीं हो। लेकिन जब कैंसर से पीड़ित चूहों के रक्त में टिटेनस के बीजाणु (Spores) छोड़े तो चूहे टिटेनस रोग से ग्रसित हो गये, क्योंकि उनके शरीर में कैंसर की गाँठों के भीतर ऑक्सीजन की मात्रा इतनी कम थी कि टिटेनस के बीजाणु अंकुरित होकर फूटे और टिटेनस के कीटाणु बाहर निकले और चूहे टिटेनस रोग से ग्रसित हो गये। इन प्रयोगों से यह स्पष्ट हो जाता है कि कैंसर कोशिकाएँ आंशिक अवायुजीवी और सामान्य कोशिकाएँ वायुजीवी होती हैं।
मोरिस हिपेटोमा में खमीरीकरण (The Fermentation of Morris Hepatomas)
हम यहाँ एक अलग तरह के प्रयोगों को समझने की कौशिश करते हैं जो कैंसर में खमीरीकरण और कैंसर की वृद्धि-दर के बीच मात्रात्मक संबन्धों को दर्शाते हैं। हैरोल्ड मोरिस, नेशनल कैंसर इन्स्टिट्यूट, बेथेस्डा ने अपने प्रयोगों में जब अलग-अलग सक्रियता वाले लीवर कैंसरकारक तत्व जब चूहों के रक्त में छोड़े तो देखा कि चूहों में जो कैंसर की गांठें हुई उनकी वृद्धि-दर भी अलग-अलग थी। कहने का तात्पर्य यह है कि जहाँ किसी चूहे की गांठें तीन दिन में बढ़ कर दोगुनी हो गई वहीं किसी अन्य चूहे की गाँठ को दो गुना होने में 30 दिन लग गये। नेशनल कैंसर इन्स्टिट्यूट के ही डीन बर्क और मार्क वुड्स 3 ने अलग-अलग हिपेटोमाज़ में खमीरीकरण की दर और हिपेटोमा के बढ़ने की दर को एक ग्राफ द्वारा प्रदर्शित किया। उन्होंने पाया कि खमीर और वृद्धि-दर (या मेलिगनेन्सी) में सीधा मात्रात्मक संबन्ध है। उन्होंने देखा कि जैसे जैसे हिपेटोमा की वृद्धि-दर बढ़ती है, खमीरीकरण भी उसी अनुपात में या और तेजी से बढ़ता है। डीन बर्क और मार्क वुड्स ने अपने ग्राफ के शून्य-बिन्दु क्षेत्र में खमीरीकरण की दर इतनी कम होती है कि उसे पारंपरिक तरीकों से नापना संभव नहीं है जबकि उसी क्षेत्र में गाँठ की न्यूनतम वृद्धि-दर आसानी से नापी जा सकती है। लेकिन जब उन्होंने शर्करा के खमीरीकरण को नापने के ज्यादा संवेदनशील तरीके विकसित किये तो सिद्ध हो गया कि बहुत धीरे-धीरे बढ़ने वाले कैंसर भी शर्करा को खमीर करते हैं।
भ्रूण-कोशिकाओं का कैंसर कोशिकाओं में परिवर्तित होना (Transformation of Embryonic Metabolism into Cancer Metabolism)
अब यह तो सिद्ध हो गया है कि शर्करा को खमीर करके ऊर्जा ग्रहण करना कैंसर-कोशिका की खास फ़ितरत है, तो आइये अब यह समझने की कौशिश करें कि कैसे एक सामान्य कोशिका बदलकर अवायुजीवी बन जाती है अर्थात कैंसर-कोशिका में परिवर्तित हो जाती है। इसके लिए हम देह्लेम इन्स्टिट्यूट के गाहेन, गायस्लर और लोरेन्ज द्वारा किये गये प्रयोगों को समझने का यत्न करते हैं।
जब चूहे के भ्रूण की कोशिकाओं को एक उपयुक्त माध्यम में रखा जहाँ ऑक्सीजन का स्तर भी पर्याप्त तो वे ऑक्सीजन की मौजूदगी में वायवीय (Aerobic) श्वसन-क्रिया करती रही, विभाजित होती रही और खमीरीकरण भी नहीं हुआ। लेकिन जब ऑक्सीजन का स्तर इतना कम कर दिया कि कोशिकाओं की वायवीय (Aerobic) श्वसन-क्रिया आँशिक रूप से बाधित होने लगी तो 48 घन्टे में दो कोशिकीय विभाजन के बाद वे खमीर करने वाली कैंसर-कोशिकाओं में रूपान्तरित हो गई। और वे अवायवीय-श्वसन करने लगी।
फिर हमने विभाजित हो रही भ्रूण-कोशिकाओं में ऑक्सीजन का दबाव और खमीरीकरण को नापने का यंत्र विकसित किया, जो संलग्न चित्र में स्पष्ट दिखाया गया है। इस व्यवस्था में हमने देखा कि वायवीय (Aerobic) श्वसन 35 प्रतिशत कम करने पर कोशिकाएँ कैंसर-कोशिकाओं में रूपान्तरित हो गई। यदि शरीर में ऑक्सीजन का दबाव इतना कम हो जाये कि विभाजित हो रही कोशिकाओं की वायवीय श्वसन-क्रिया 35 प्रतिशत बाधित हो जाये तो कैंसर हो जाता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि शरीर में वायवीय श्वसन आँशिक रूप से बाधित होने पर कैंसर-कोशिकाएँ बनने लगती हैं और खमीरीकरण द्वारा श्वसन करने लगती हैं। (Luft=हवा)
हमारी पृथ्वी के विकास के प्रारंभिक दौर में वातावरण ऑक्सीजन रहित था और जीवन के नाम पर सिर्फ अविभेदित (undifferentiated) एक-कोशीय खमीर द्वारा श्वसन करने वाले जीव ही विद्यमान थे। फिर अरबों वर्षों बाद जब हमारे वातावरण में ऑक्सीजन का आगमन हुआ, तो ये अविभेदित (undifferentiated) एक-कोशीय जीव विभेदित (differentiated) होने लगे, वायवीय (Aerobic) श्वसन करने लगे और इस तरह पृथ्वी पर वनस्पतियों और जीवजन्तुओं का विकास शुरू हुआ। लेकिन यह अविभेदन (undifferentiation) हम आज भी कैंसर कोशिकाओं में देख रहे हैं। हम यह भी देखते हैं कि कई बार वातावरण में पर्याप्त ऑक्सीजन होने पर भी कैंसर का विकास हो रहा है, क्योंकि या तो विभाजित हो रही कोशिकाओं तक पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं पहुँच रही है या कोशिकाओं में श्वसन-एन्जाइम्स को उत्प्रेरित करने वाले सक्रिय तत्व विद्यमान नहीं हैं। लेकिन जो भी स्थिति हो कैंसर में हमेशा ऑक्सीजन-श्वसन बाधित होता है, खमीरीकरण होता है और कोशिकाएं अविभेदित होने लगती हैं। कैंसर कोशिकाओं में व्यर्थ अनियंत्रित विभाजित होने की क्षमता बचती है और जीवन के लिए आवश्यक सभी कार्य-क्षमताएँ समाप्त हो जाती हैं। अर्थात जब श्वसन बाधित होता है, कैंसर जन्म लेता है, तब जीवन का अस्तित्व तो रहता है, पर वह विभाजित हो रही दिशाहीन कोशिकाओं के समूह (गांठे या ट्यूमर) के सिवा कुछ नहीं होता है।
अब प्रश्न है कि क्यों ऑक्सीजन भेदन (differentiation) करती है और ऑक्सीजन की कमी क्यों अविभेदन (undifferentiation) करती है? या क्यों श्वसन-क्रिया भेदन (differentiation) करती है और खमीरीकरण अविभेदन (undifferentiation) करता है। जबकि श्वसन-क्रिया और खमीरीकरण दोनों ही कोशिका विभाजन करने में सक्षम हैं और यदि खमीरीकरण में भेदन की क्षमता भी होती तो शायद इस पृथ्वी पर कैंसर का अस्तित्व ही नहीं होता।
कैंसर का जीवरसायन शास्त्र
इस तरह कई प्रश्न हैं जिनका स्पष्टीकरण संभवतः जीवरसायन शास्त्र दे सकता है। श्वसन-क्रिया और खमीरीकरण दोनों में ही फोस्फेट (जैविक) ऊर्जा प्रयुक्त होती है लेकिन दोनों में फोस्फोरिलेशन का तरीका अलग-अलग होता है। कैंसर के सन्दर्भ में देखें तो वायवीय फोस्फोरिलेशन भेदन (differentiation) कर सकने में सक्षम है, लेकिन खमीरी फोस्फोरिलेशन में यह क्षमता नहीं है। श्वसन और खमीरीकरण के चयापचय-पथ से स्पष्ट है कि पाइरुविक एसिड बनने तक दोनों के चयापचय-पथ में कोई फर्क नहीं है। लेकिन इसके बाद दोनों का क्रिया-पथ अलग-अलग ढ़ंग से होता है। खमीरीकरण में पाइरुविक एसिड एक ही रसायनिक क्रिया में डाइहाइड्रो-निकोटिनेमाइड द्वारा अपघटित होकर लेक्टिक-एसिड बनता है। जबकि वायवीय श्वसन में पाइरुविक एसिड ऑक्सीजन की उपस्थिति में कई जटिल रसायनिक क्रियाओं से गुजर कर जल और कार्बन-डाइ-ऑक्साइड बनाता है।
मुख्य बिन्दु
• खमीरीकरण की अपेक्षा श्वसन-क्रिया को बाधित करना आसान है क्योंकि श्वसन ज्यादा जटिल प्रक्रिया है।
• श्वसन-क्रिया बाधित होने पर कोशिकाएँ बड़ी सरलता से खमीरीकरण करने लगती हैं क्योंकि दोनों क्रियाओं में एक ही उत्प्रेरक निकोटिनेमाइड कार्य करता है।
• जब कोशिका में सामान्य श्वसन-क्रिया बाधित होती है और खमीरीकरण उसकी जगह लेता है, तो ग्लूकोज का अपघटन होता है और ऊर्जा की कमी के कारण कोशिका मृत्य हो जाती है। ग्लूकोज के अपघटन का मतलब है खमीरीकरण द्वारा मृत्यु और अवायवीय श्वसन का मतलब है खमीरीकरण द्वारा जीवन।
• कैंसर इसीलिए ही होता है क्योंकि श्वसन-क्रिया ही कोशिकाओं को भेदन (differentiation) की क्षमता देती है, न कि खमीरीकरण।
अंत में मैं यही कहना चाहता हूँ कि अब कैंसर कोई रहस्यमय रोग नहीं रह गया है और इसका प्रमुख कारण सबके सामने स्पष्ट है। हमें कैंसर से बचाव की दिशा में कार्य करना चाहिये। आखिर कब तक कीमोथैरेपी और रेडियोथैरेपी से जुड़े लालची बहुराष्ट्रीय संस्थान कैंसर पर हुई शोध का लाभ आम लोगों तक नहीं पहुँचने देंगे और उन्हें भ्रमित करते रहेंगे। शायद तब तक इस संसार में करोड़ों लोग इस रोग से मरते रहेंगे।
वारबर्ग के व्याख्यान पर विल्हेम एच की टिप्पणी
वारबर्ग का व्याख्यान बहुत ही रोचक था। विज्ञान जगत में यह बड़ी क्रांतिकारी घटना थी कि श्वसन-क्रिया में ऑक्सीजन के महत्व को पहली बार उन्होंने दुनिया के सामने रखा था। लेकिन मुझे इस बात का बेहद खेद कि वे डॉ॰ बुडविग की खोज से अपनी पूर्णतः अनभिज्ञ रहे या आँखे मूंदे रहे। उपरोक्त व्याख्यान उन्होंने बुडविग की महान खोज के 15 वर्ष बाद दिया था। डॉ॰ बुडविग ने वह रहस्यमय कड़ी ढूँढ ली थी, जिसे वे खोजते रहे और हमेशा असफल रहे। इन दिनों डॉ॰ बुडविग अलसी के तेल और पनीर से कैंसर के रोगियों का सफलतापूर्वक उपचार कर रही थी और उन्हें 90 प्रतिशत सफलता भी मिल रही थी। डॉ॰ बुडविग ने एक बार कहा था कि वे यह चाहती थी कि डॉ॰ ओटो उनकी महान खोज लिनोलिक और लिनोलेनिक एसिड और कोशिकीय श्वसन में उनके महत्व को समझें। सन् 1952 में बुडविग ने अपने शोधपत्र कई बार डॉ॰ ओटो के पास भेजे और उनसे मिलने की इच्छा जाहिर की, परन्तु ओटो ने कोई जवाब ही नही दिया। बुडविग ने अपने एक साक्षात्कार में सैन्ट ग्योर्गी के बारे में भी कड़े शब्दों में कहा था कि उन्होंने मेरे सारे शोधपत्र पढ़ रखे थे, मेरे शोध-कार्यों से पूरी तरह वाकिफ थे परन्तु फिर भी अपनी पुस्तक इलेक्ट्रोनिक बॉयोलोजी एन्ड कैंसर में मेरी खोज के बारे में जिक्र नहीं किया।
सन्दर्भ
- ↑ NobelPrize.org, The Nobel Prize in Physiology or Medicine 1931 accessed April 20, 2007
- ↑ doi:10.1098/rsbm.1972.0023
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