सामग्री पर जाएँ

ऐफिड

मटर पर लगने वाला माहू

द्रुमयूका, माहू या ऐफिड (Aphids) छोटे आकार के कीट हैं जो पौधों का रस (sap) चूसते हैं। ये एफिडोडिया (Aphidoidea) कुल में आते हैं। माहू समशीतोष्ण क्षेत्रों में कृषि में उगायी जाने वाली फललों के सर्वाधिक विनाशकारी शत्रु हैं (जैसे सरसो पर लगने वाली माहू या चेपा या 'तेले' या 'लाही' कीट)। किन्तु प्राणिशात्र की दृष्टि से वे सबसे सफल 'जीव' (organisms) समूह हैं। यह 'सफलता' इनकी कुछ प्रजातियों में अलैंगिक प्रजनन (asexual reproduction) की क्षमता के कारण है। इनकी लगभग 4,400 प्रजातियाँ और 10 कुल ज्ञात हैं। इनकी लम्बाई 1 मिमी से लेकर 10 मिमी तक होती है।

परिचय

द्रुमयूका (ऐफिड्स, Aphides) कीट वर्ग के हेमिप्टेरा (Hemi ptera) गण का एक कुल है। इन्हें 'पौधा जूँ' (plant louse), 'पौधा खटमल' (Plant bugs) या 'हरी मक्खी' (Greenfly) इत्यादि नामों से भी जाना जाता है। द्रुमयूका कुल के कीटों का शरीर कोमल एवं अंडाकार, सिर छोटा, सूँड़ संधित, स्पर्शक सात खंडों का एवं चार पारदर्शक पंख (जब पंख वर्तमान होते हैं) होते हैं। द्रुमयूका, अथवा पौधा जूँ, सभी प्रकार की साग सब्जियों, फलों, फसलों तथा बागों इत्यादि पर परोपजीवी होती हैं। ये मंदगतिशील होती हैं। हजारों की संख्या में उत्पन्न होकर ये पौधों को छेदकर और उनका रस चूसकर उन्हें बहुत ही क्षति पहुँचाती हैं। अतएव इनसे पौधों की वृद्धि तो कम हो ही जाती है, साथ ही फल इत्यादि भी ठीक नहीं लगते। इसलिए आर्थिक दृष्टि से ये हानिकर कीट हैं। इनकी जीवविज्ञानीय महत्ता यथेष्ट है, क्योंकि इनके जीवन में कई विचित्र बातें मिलती हैं। कुछ में चार पंख मिलते हैं, किंतु कुछ में पंखों का पूर्ण अभाव होता है। इनकी बहुत सी संततियाँ जरायुज (viviparous) तथा अनिषेक जनित (parthenogenetic) होती हैं। ग्रीष्म ऋतु के प्रारंभ में मादा, बिना मैथुन के, एक एक दिन में पचीसों की संख्या में केवल मादा बच्चे पैदा कर सकती है। हेमंत ऋतु में नर और मादा दोनों ही प्रकार के बच्चे उत्पन्न होते हैं। इसके नर और मादा मिलकर मैथुन करते हैं, जिसके पश्चात् मादा ससेचित (fertilized) अंडे देती हैं। ये अंडे जाड़े को व्यतीतकर वसंतऋतु में मादा द्रुमयूका की उत्पत्ति करते हैं, जो अधिकतर पंखरहित होती हैं। किंतु कभी-कभी भोजन के अभाव में पंखयुक्त मादाएँ भी उत्पन्न होती हैं, जो भोजनप्राप्ति के लिए उड़कर एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचती और अपनी संतति का प्रसार करती रहती हैं। नर साधारण: पंखयुक्त होते हैं।

पर्याप्त मात्रा में भोजन मिलते रहने पर द्रुमयूका में प्रजनन बड़ी शीघ्रता से होता है और इस प्रकार जीवनसंघर्ष पर ये अपनी प्रचुर जननशक्ति के द्वारा विजय प्राप्त करती हैं और चिड़ियों तथा अन्य कीट शत्रुओं से अपनी संतति की रक्षा करती हैं। यदि चिड़ियाँ, मकड़ियाँ, परोपजीवी और बीरबहूटियाँ न होतीं, तो द्रुमयूका का उत्पात इतना बढ़ जाता कि संभवत: संपूर्णं वनस्पति ही नष्ट हो जाती। द्रुमयूका का नियंत्रण तंबाकू या साबुन आदि के विलयन से किया जा सकता है।

द्रुमयूकाएँ बहुत ही पेटू होती हैं और पौधे का रस इतनी शीघ्रता से और अधिक मात्रा में चूसती हैं कि अधिकांश रस अपरिवर्तित अवस्था में ही शरीर के बाहर चला आता है। यह अपचित भोजन सुस्वाद शक्ररा द्रव के रूप में होता है। इस शर्करा द्रव को मधु-रस (Honey dew) कहते हैं। ग्रीष्म ऋतु, में पत्रों पर मधुरस इस प्रकार लगा होता है कि मानों वार्निश की एक तह जमी हो। चीटियाँ तथा अन्य कीट मधुरस को बहुत ही पसंद करते हैं और इस द्रव को प्रप्त करने के लिए, जिस प्रकार मनुष्य दुग्ध के लिए गाय को पालते हैं, चीटियाँ द्रुमयूकाओं को पालती हैं। अतएव द्रुमयूकाओं को चींटियों की गाय (Ant cows) भी कहते हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण मक्का-खेत-चींटी (Cornfield ants) तथा मक्का-जड़ द्रुमयूका (Corn root aphid) है। अन्न-जड़-विनाशकारी द्रुमयूका पूर्ण रूप से चींटियों पर आश्रित हो गई हैं। जाड़े में चीटियाँ इनके अंडों की देख रेख करती हैं और वसंत तथा ग्रीष्म में इनके बच्चों को अपने मुख से पकड़कर जमीन के भीतर ले जाकर अन्न तथा घास इत्यादि की जड़ों पर स्थापित कर देती हैं, जिससे द्रुमयूकाएँ अपना भोजन प्राप्त कर सकें। इस सेवा के बदले द्रुमयूकाएँ चीडियों को लगातार मधु-रस प्रदान करती रहती हैं। इस प्रकार मक्काखेत चीटियाँ फसल के लिए शत्रु सिद्ध होती हैं, यद्यपि वे स्वयं फसल को कोई क्षति नहीं पहुँचातीं।

बाहरी कड़ियाँ