उपनिवेशवाद
उपनिश्वेवाद क्या है
किसी एक भौगोलिक क्षेत्र के लोगों द्वारा किसी दूसरे भौगोलिक क्षेत्र में उपनिवेश (कॉलोनी) स्थापित करना और यह मान्यता रखना कि यह एक अच्छा काम है, उपनिवेशवाद (अंग्रेज़ी-Colonialism) कहलाता है।
इतिहास में प्राय: पन्द्रहवीं शताब्दी से लेकर बीसवीं शताब्दी तक उपनिवेशवाद[1] का काल रहा। इस काल में यूरोप के लोगों ने विश्व के विभिन्न भागों में उपनिवेश बनाये। इस काल में उपनिवेशवाद में विश्वास के मुख्य कारण थे -
- लाभ कमाने की लालसा
- मातृदेश की शक्ति बढ़ाना
- मातृदेश में सजा से बचना
- स्थानीय लोगों का धर्म बदलवाकर उन्हें उपनिवेशी के धर्म में शामिल करना
कुछ उपनिवेशी यह भी सोचते थे कि स्थानीय लोगों को इसाई बनाकर तथा उन्हें "सभ्यता" का दर्शन कराकर वे उनकी सहायता कर रहे हैं। किन्तु वास्तविकता में उपनिवेशवाद का अर्थ था - आधिपत्य, विस्थापन एवं मृत्यु।
उपनिवेश, मातृदेश के साम्राज्य का भाग होता था; अत: उपनिवेशवाद का साम्राज्यवाद से घनिष्ठ सम्बन्ध है।
परिचय
उपनिवेशवाद का आरम्भ
1453 ई. में तुर्कों द्वारा कुस्तुनतुनिया पर अधिकार कर लेने के पश्चात् स्थल मार्ग से यूरोप का एशियायी देशों के साथ व्यापार बंद हो गया। अतः अपने व्यापार को निर्बाध रूप से चलाने हेतु नये समुद्री मार्गों की खोज प्रारंभ हुई। कुतुबनुमा, गतिमापक यंत्र, वेध यंत्रों की सहायता से कोलम्बस, मैगलन एवं वास्कोडिगामा आदि साहसी नाविकों ने नवीन समुद्री मार्गों के साथ-साथ कुछ नवीन देशों अमेरिका आदि को खोज निकाला। इन भौगोलिक खोजों के फलस्वरूप यूरोपीय व्यापार में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। धन की बहुलता एवं स्वतंत्र राज्यों के उदय ने उद्योगों को बढ़ावा दिया। कई नवीन उद्योग शुरू हुए। स्पेन को अमेरिका रूपी एक ऐसी धन की कुंजी मिली कि वह समृद्धि के चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया। ईसाई-धर्म-प्रचारक भी धर्म प्रचार हेतु नये खोजे हुए देशों में जाने लगे। इस प्रकार अपने व्यापारिक हितों को साधने एवं धर्म प्रचार आदि के लिए यूरोपीय देश उपनिवेशों की स्थापना की ओर अग्रसर हुए और इस प्रकार यूरोप में उपनिवेश का आरंभ हुआ।
उपनिवेशवाद का अर्थ
उपनिवेशवाद का अर्थ है - किसी समृद्ध एवं शक्तिशाली राष्ट्र द्वारा अपने विभिन्न हितों को साधने के लिए किसी निर्बल किंतु प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण राष्ट्र के विभिन्न संसाधनों का शक्ति के बल पर उपभोग करना। उपनिवेशवाद में उपनिवेश की जनता एक विदेशी राष्ट्र द्वारा शासित होती है, उसे शासन में कोई राजनीतिक अधिकार नहीं होता। आर्गन्सकी के अनुसार,
- ‘‘वे सभी क्षेत्र उपनिवेशों के तहत आते हैं जो विदेशी सत्ता द्वारा शासित हैं एवं जिनके निवासियों को पूरे राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं।’’
वस्तुतः हम किसी शक्तिशाली राष्ट्र द्वारा निहित स्वार्थवश किसी निर्बल राष्ट्र के शोषण को उपनिवेशवाद कह सकते हैं।
लैटिन भाषा के शब्द 'कोलोनिया' का मतलब है एक ऐसी जायदाद जिसे योजनाबद्ध ढंग से विदेशियों के बीच कायम किया गया हो। भूमध्यसागरीय क्षेत्र और मध्ययुगीन युरोप में इस तरह का उपनिवेशीकरण एक आम परिघटना थी। इसका उदाहरण मध्ययुग और आधुनिक युग की शुरुआती अवधि में इंग्लैण्ड की हुकूमत द्वारा वेल्स और आयरलैण्ड को उपनिवेश बनाने के रूप में दिया जाता है। लेकिन, जिस आधुनिक उपनिवेशवाद की यहाँ चर्चा की जा रही है उसका मतलब है यूरोपीय और अमेरिकी ताकतों द्वारा ग़ैर-पश्चिमी संस्कृतियों और राष्ट्रों पर ज़बरन कब्ज़ा करके वहाँ के राज-काज, प्रशासन, पर्यावरण, पारिस्थितिकी, भाषा, धर्म, व्यवस्था और जीवन-शैली पर अपने विजातीय मूल्यों और संरचनाओं को थोपने की दीर्घकालीन प्रक्रिया। इस तरह के उपनिवेशवाद का एक स्रोत कोलम्बस और वास्कोडिगामा की यात्राओं को भी माना जाता है। उपनिवेशवाद के इतिहासकारों ने पन्द्रहवीं सदी यूरोपीय शक्तियों द्वारा किये साम्राज्यवादी विस्तार की परिघटना के विकास की शिनाख्त अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में उपनिवेशवाद के रूप में की है। औद्योगिक क्रांति से पैदा हुए हालात ने उपनिवेशवादी दोहन को अपने चरम पर पहुँचाया। यह सिलसिला बीसवीं सदी के मध्य तक चला जब वि-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के तहत राष्ट्रीय मुक्ति संग्रामों और क्रांतियों की लहर ने इसका अंत कर दिया। इस परिघटना की वैचारिक जड़ें वणिकवादी पूँजीवाद के विस्तार और उसके साथ-साथ विकसित हुई उदारतावादी व्यक्तिवाद की विचारधारा में देखी जा सकती हैं। किसी दूसरी धरती को अपना उपनिवेश बना लेने और स्वामित्व के भूखे व्यक्तिवाद में एक ही तरह की मूल प्रवृत्तियाँ निहित होती हैं। नस्लवाद, युरोकेंद्रीयता और विदेशी-द्वेष जैसी विकृतियाँ उपनिवेशवाद की ही देन हैं।
उपनिवेशवाद साम्राज्यवाद होते हुए भी काफ़ी-कुछ परस्परव्यापी और परस्पर-निर्भर पद हैं। साम्राज्यवाद के लिए ज़रूरी नहीं है कि किसी देश पर कब्ज़ा किया जाए और वहाँ कब्ज़ा करने वाले अपने लोगों को भेज कर अपना प्रशासन कायम करें। इसके बिना भी साम्राज्यवादी केंद्र के प्रति अधीनस्थता के संबंध कायम किये जा सकते हैं। पर, उपनिवेशवाद के लिए ज़रूरी है कि विजित देश में अपनी कॉलोनी बसाई जाए, आक्रामक की विजितों बहुसंख्या प्रत्यक्ष के ज़रिये ख़ुद को श्रेष्ठ मानते हुए अपने कानून और फ़ैसले आरोपित करें। ऐसा करने के लिए साम्राज्यवादी विस्तार को एक ख़ास विचारधारा का तर्क हासिल करना आवश्यक था। यह भूमिका सत्रहवीं सदी में प्रतिपादित जॉन लॉक के दर्शन ने निभाई। लॉक की स्थापनाओं में ब्रिटेन द्वारा भेजे गये अधिवासियों द्वारा अमेरिका की धरती पर कब्ज़ा कर लेने की कार्यवाही को न्यायसंगत ठहराने की दलीलें मौजूद थीं। उनकी रचना 'टू ट्रीटाइज़ ऑन सिविल गवर्नमेंट' (1690) की दूसरी थीसिस ‘प्रकृत अवस्था’ में व्यक्ति द्वारा अपने अधिकारों की दावेदारी के बारे में है। वे ऐसी जगहों पर नागरिक शासन स्थापित करने और व्यक्तिगत प्रयास द्वारा हथियाई गयी सम्पदा को अपने लाभ के लिए विकसित करने को जायज़ करार देते हैं। यही थीसिस आगे चल कर धरती के असमान स्वामित्व को उचित मानने का आधार बनी। लॉक की मान्यता थी कि अमेरिका में अनाप-शनाप ज़मीन बेकार पड़ी हुई है और वहाँ के मूलवासी यानी इण्डियन इस धरती का सदुपयोग करने की योग्यता से वंचित हैं। लॉक ने हिसाब लगाया कि यूरोप की एक एकड़ ज़मीन अगर अपने स्वामी को पाँच शिलिंग प्रति वर्ष का मुनाफ़ा देती है, तो उसके मुकाबले अमेरिकी की ज़मीन से उस पर बसे इण्डियन को होने वाला कुल मुनाफ़ा एक पेनी से भी बहुत कम है। चूँकि अमेरिकी इण्डियन बाकी मानवता में प्रचलित धन-आधारित विनिमय-प्रणाली अपनाने में नाकाम रहे हैं, इसलिए ‘सम्पत्ति के अधिकार’ के मुताबिक उनकी धरती को अधिग्रहीत करके उस पर मानवीय श्रम का निवेश किया जाना चाहिए। लॉक की इसी थीसिस में एशियाई और अमेरिकी महाद्वीप की सभ्यता और संस्कृति पर युरोपीय श्रेष्ठता की ग्रंथि के बीज थे जिसके आधार पर आगे चल कर उपनिवेशवादी संरचनाओं का शीराज़ा खड़ा किया गया।
उपनिवेशों मुख्यतः दो किस्में थीं। एक तरफ अमेरिका, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड जैसे थे जिनकी जलवायु युरोपियनों के लिए सुविधाजनक थी। इन इलाकों में सफ़ेद चमड़ी के लोग बहुत बड़े पैमाने पर बसाये गये। उन्होंने वहाँ की स्थानीय आबादी के संहार और दमन की भीषण परियोजनाएँ चला कर वहाँ न केवल पूरी तरह अपना कब्ज़ा जमा लिया, बल्कि वे देश उनके अपने ‘स्वदेश’ में बदल गये। जन-संहार से बच गयी देशज जनता को उन्होंने अलग-थलग पड़े इलाकों में धकेल दिया। दूसरी तरफ़ वे उपनिवेश थे जिनका हवा-पानी यूरोपीयनों के लिए प्रतिकूल था (जैसे भारत और नाइजीरिया)। इन देशों पर कब्ज़ा करने के बाद यूरोपियन थोड़ी संख्या में ही वहाँ बसे और मुख्यतः आर्थिक शोषण और दोहन के लिए उन धरतियों का इस्तेमाल किया। न्यू इंग्लैण्ड सरीखे थोड़े-बहुत ऐसे उपनिवेश भी थे जिनकी स्थापना यूरोपीय इसाइयों ने धार्मिक आज़ादी की खोज में की।
उपनिवेशों की स्थापना के कारण
व्यापारिक क्रांति में भौगोलिक खोजों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन भौगोलिक खोजों के साथ ही उपनिवेशवाद का आरंभ हुआ। स्पेन, पुर्तगाल, डच, फ्रांस एवं इंग्लैण्ड आदि यूरोपीय देशों ने सुदूर देशों में उपनिवेश स्थापित किये। यूरोप में उपनिवेशवाद के आरंभ के निम्नलिखित कारण थे -
ट्रिपल G नीति
भौगोलिक खोजों के फलस्वरूप कोलम्बस द्वारा अमेरिका की खोज ने यूरोपीय देशों में स्वर्ण जैसी बहुमूल्य धातु के संग्रह की प्रतिस्पर्द्धा आरंभ की। स्वर्ण-संग्रह की प्रतिस्पर्द्धा की स्थिति यह थी कि समस्त यूरोप में ‘अधिक स्वर्ण, अधिक समृद्धि, अधिक कीर्ति’ का नारा बुलंद हुआ। अब समस्त यूरोपीय राष्ट्रों का प्रमुख ध्यान सोना, कीर्ति एवं ईश्वर अर्थात् Gold, Glory and God पर केन्द्रित हो गया। उपनिवेशों की स्थापना से यूरोपीय देशों को सोना भी मिला, कीर्ति भी फैली एवं धर्म का प्रचार भी हुआ। अतः ट्रिपल G नीति निःसंदेह उपनिवेशों की स्थापना का एक कारण अवश्य थी।
कच्चे माल की प्राप्ति
व्यापारिक समृद्धि के फलस्वरूप यूरोपीय देशों में कई उद्योगों की स्थापना हुई। यूरोप में इन उद्योगों के लिए आवश्यक कच्चे माल की कमी थी। अतः यूरोपीय देशों ने कच्चे माल की प्राप्ति हेतु प्राकृतिक संसाधनों एवं अफ्रीकी एवं एशियायी देशों में उपनिवेशों की स्थापना की।
निर्मित माल की खपत
उद्योगों की स्थापना एवं कच्चे माल की उपलब्धता से औद्योगिक उत्पादन तीव्र गति से बढ़ा। चूँकि इस समय सभी यूरोपीय देश आर्थिक संरक्षण की नीति पर चल रहे थे। अतः इस निर्मित माल को खपाने के लिए भी उपनिवेशों की स्थापना की गयी। अर्थात् प्रत्येक उपनिवेशों को शक्तिशाली राष्ट्रों द्वारा जबरन निर्मित माल की खरीद व् कच्चे माल के निर्यात हेतु बाध्य किया गया।
जनसंख्या में वृद्धि
यूरोप के विभिन्न देशों में औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप नगरों की जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई। कालांतर में अतिशेष जनसंख्या को बसाने के लिए भी उपनिवेशों की स्थापना को बल मिला।
प्रतिकूल जलवायु
यूरोपवासियों को व्यापारिक प्रगति एवं नवीन देशों से संपर्क के फलस्वरूप कई नवीन वस्तुओं का ज्ञान हुआ, आलू, तंबाकू, भुट्टा आदि का ज्ञान उन्हें पूर्वी देशों के साथ संपर्क से ही हुआ। गर्म मसाले, चीनी, कॉफी, चावल आदि के भी अब वे आदी हो गये थे। प्रतिकूल जलवायु के कारण ये सभी वस्तुएँ यूरोपीय देशों में उगाना संभव न था। अतः यूरोपीय विशेषज्ञ अंग्रेज चाहते थे कि उन्हें ऐसे प्रदेश प्राप्त हो जायें जहाँ इनकी खेती की जा सके। अतः अनुकूल जलवायु वाले स्थानों में उपनिवेश स्थापना की विचारधारा को बल मिला। भारत एक हिंदू राष्ट्र है
समृद्धि की लालसा
भौगोलिक खोजों के परिणामस्वरूप प्रारंभिक उपनिवेश पुर्तगाल एवं स्पेन ने स्थापित किये। इससे उनकी समृद्धि में वृद्धि हुई। अतः इनकी समृद्धि को देखते हुए समृद्धि की लालसा में अन्य यूरोपीय देश भी उपनिवेश स्थापित करते हुए अग्रसर हुए।
उपनिवेशीकरण का इतिहास
उपनिवेशवाद की व्याख्या
उपनिवेशवाद की मार्क्सवादी व्याख्याएँ भी यह दावा करती कि उन्नीसवीं सदी की अमेरिकी और युरोपियन औद्योगिक पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं के विकास के लिए ग़ैर-पूँजीवादी समाजों का प्रत्यक्ष राजनीतिक नियंत्रण आवश्यक था। इस लिहाज़ से मार्क्सवादी विद्वान पूँजीवाद के उभार के पहले और बाद के उपनिवेशवाद के बीच फ़र्क करते हैं। मार्क्स ने अपनी भारत संबंधी रचनाओं में उपनिवेशवाद पर ख़ास तौर से विचार किया है। मार्क्स और एंगेल्स का विचार था कि उपनिवेशों पर नियंत्रण करना न केवल बाज़ारों और कच्चे माल के स्रोतों को हथियाने के लिए ज़रूरी था, बल्कि प्रतिद्वंद्वी औद्योगिक देशों से होड़ में आगे निकलने के लिए भी आवश्यक था। उपनिवेशवाद संबंधी मार्क्सवादी विचारों को आगे विकसित करने का श्रेय रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग और लेनिन को जाता है।
मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य को आलोचना का भी सामना करना पड़ा है। आलोचकों का कहना है कि मार्क्स, रोज़ा और लेनिन ने अपनी थीसिस के पक्ष में जो प्रमाण पेश किये हैं वे पर्याप्त नहीं हैं, क्योंकि उनसे औद्योगिक क्रांति व पूँजीवाद के विकास के लिए उपनिवेशवाद की अनिवार्यता साबित नहीं होती। दूसरे, मार्क्सवादी विश्लेषण के पास उपनिवेशित समाजों का पर्याप्त अध्ययन और समझ मौजूद नहीं है। मार्क्स जिस एशियाई उत्पादन प्रणाली की चर्चा करते हैं और रोज़ा जिस की श्रेणियों को एशियाई समाजों पर आरोपित करती हैं, उन्हें इन समाजों के इतिहास के गहन अध्ययन के आधार पर बहुत दूर तक नहीं खींचा जा सकता।
सन्दर्भ
1. एरिक (1987), द ऑफ़ 1875-1914, वीडनफ़ील्ड ऐंड निकल्सन, लंदन.
2. विलियम पॉमरॉय अमेरिकन इंटरनैशनल पब्लिशर्स, न्यूयॉर्क.
3. जॉन जी. टेलर (2000), ‘कोलोनियलिज़म’, संकलित : टॉम बॉटमोर वग़ैरह (सम्पा.), अ डिक्शनरी ऑफ़ मार्क्सिस्ट थॉट, माया ब्लैकवेल, नई दिल्ली.
4. मार्क फ़ेरो (1997), कोलोनाइज़ेशन : अ ग्लोबल हिस्ट्री, रॉटलेज, लंदन.
5. युरगन (1997), कोलोनियलिज़म, वाइनर, प्रिंसटन, एनजे.
इन्हें भी देखें
- औपनिवेशिक भारत
- उपनिवेशीकरण
- उपनिवेशवाद का इतिहास
- गुलामी
- साम्राज्यवाद
- भाषाई साम्राज्यवाद
- सांस्कृतिक साम्राज्यवाद
- कुली
- गिरमिटिया
- आत्म-निर्णय
- यूरोकेंद्रीयता
- वि-उपनिवेशवाद
- उपनिवेशी मनोवृति
बाहरी कड़ियाँ
- साहित्य पर औपनिवेशिक साया ! (ताप्तीलोक)
- Effects of Colonization on Indian Thought
- Liberal opposition to colonialism, imperialism and empire (pdf) - by professor Daniel Klein
- Globalization (and the metaphysics of control in a free market world) - an online video on globalization, colonialism, and control.
- आजाद तन गुलाम मन[मृत कड़ियाँ] (भारतीय पक्ष)
- Singh, Khemendra (2022). Colonial Mindset :Hampering India's Development. Notion Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9798885910828.
- ↑ "उपनिवेशवाद क्या है?". Deshbandhu. 2013-11-20.