उद्योतकर
उद्योतकर (६३५ ई.) न्याय दर्शन के आचार्य थे। गौतम के न्यायसूत्र पर वात्स्यायन ने भाष्य (न्यायभाष्यम्) की रचना की। बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग ने अपने प्रमाणसमुच्चय में इस भाष्य की बड़ी आलोचना की। उद्योतकर ने वात्स्यायन भाष्य पर 'न्यायवार्तिक' नामक वार्तिक लिखकर न्यायशास्त्र की दृष्टि से बौद्धों का खण्डन किया। इनके वार्तिक पर वाचस्पति मिश्र ने तात्पर्यटीका लिखकर बौद्धों के तर्कपंक से उद्योतकर की वाणी का उद्धार किया। सुबन्धु द्वारा रचित वासवदत्ता में उद्योतकर को न्यायदर्शन का उद्धारक बताया गया है।
उद्योतकर, दिङ्नाग तथा प्रशस्तपाद के पश्चात् हुए, यह निश्चित है। धर्मकीर्ति से उद्योतकर का क्या सम्बन्ध था, इस बारे में विद्वानों में मतभेद हैं। कई विद्वानों ने ऐसा माना है कि उद्योतकर धर्मकीर्ति के पश्चात् हुए। लेकिन न्यायवार्तिक में जो बौद्धों के बहुत सारे तर्कशास्त्र विषयक सन्दर्भ आते हैं, वे दिङ्नाग तथा वसुबन्धु से ही लिए हुए हैं। ऐसा कोई भी नहीं, जिसका धर्मकीर्ति से ही लिया जाना सिद्ध हो सके। इसलिए अधिकतर विद्वानों का यही कहना है कि धर्मकीर्ति के मत से उद्योतकर परिचित नहीं थे। सम्भवतः धर्मकीर्ति उद्योतकर के पश्चात् ही हुए। सुबन्धुकृत 'वासवदत्ता' नामक आख्यायिका में 'न्यायस्थितिमिव उद्योतकरस्वरूपाम्' इस निर्दश से स्पष्ट है कि उद्योतकर सुबंधु से पहले हुए थे। इस तथा दूसरे प्रमाणों के आधार पर न्यायवार्तिक समय सातवीं सदी का पूर्वार्ध माना जा सकता है।
उद्योतकर का अन्य दो नामों से भी उल्लेख हुआ है। वाचस्पति मिश्र ने न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका में उद्योतकर का निर्देश 'भारद्वाज' नाम से किया है। गंगानाथ झा का मत है कि 'उद्योतकर' नाम उद्योतकर के भारद्वाज कुल में उत्पन्न होने के कारण है। उद्योतकर को 'पाशुपताचार्य' भी कहा गया है। शायद इस नाम के पीछे यह कारण है कि उद्योतकर शैव सम्प्रदाय के आचार्य थे।
उद्योतकर का न्यायवार्तिक नामक ग्रन्थ ही उपलब्ध है। न्यायवार्तिक में ही उद्योतकर ने अपने 'हेत्वाभासवार्तिक' नामक ग्रंथ का भी उल्लेख किया है लेकिन वह ग्रंथ अब उपलब्ध नहीं है। न्यायवार्तिक, वात्स्यायन भाष्य के ऊपर की हुई टीका है। उसमें अनेक जगह न्यायभाष्य में मिलने वाले मतों को एक ओर रखते हुए न्यायसूत्र की अलग व्याख्याएं दी गई हैं। वार्तिक का लक्षण है-
- उक्तानुक्त दुरूक्तानां चिन्ता यत्र प्रसज्यते। तं ग्रन्थं वार्तिकं प्रहुर्वार्तिकज्ञा मनीषिणः॥
इसके अनुसार यहाँ वात्स्यायन के मत में कुछ बढ़ाया गया है, कुछ दुरुक्तियाँ भी बताई गई हैं। इसलिए उद्योतकर का न्यायवार्तिक सच्चे अर्थ में वार्तिक है। लेकिन इस वार्तिक को दूसरी दृष्टि से भी देखा जा सकता है। यद्यपि न्यायवार्तिक में कभी-कभी न्यायभाष्य से भिन्न मत भी मिलते हैं तथापि कहीं भी न्यायभाष्य में प्रकटित मत का उद्योतकर ने स्पष्ट विरोध नहीं किया है। उद्योतकर ने न्यायसूत्रों की व्याख्या अपने ढंग से करते हुए न्याय में कुछ नये विचारों को प्रविष्ट किया है तथा न्यायदर्शन का विकास किया है। न्यायदर्शन के इतिहास की यह विशेषता लगती है कि उसका विकास न्यायसूत्रों के अशुद्ध व्याख्या के द्वारा हुआ है। ऐसा लगता है कि बौद्ध दर्शन के उदय से न्यायदर्शन को बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। उसे नये विचार अपनाने पड़े। लेकिन परम्परावादी होने के कारण कोई भी नैयायिक परम्परागत न्यायसूत्र की उपेक्षा नहीं कर सकता था, जिससे बौद्ध न्याय का प्रतिरोध करने वाले नये विचार न्यायदर्शन के परम्परागत विचार ही माने जाते। उद्योतकर ने यही तरीका अपनाया। उद्योतकर ने न्यायसूत्र की नई व्याख्या की, बौद्धों के भी थोड़े बहुत विचार तथा पारिभाषिक शब्द अपनाकर उन्हें न्याय की परत्परागत विचार पद्धति में स्थान दिया।
उद्योतकर के सिद्धान्त
इस हेतु त्रैरूप्य-सिद्धांत का महत्त्व जानते हुए तथा इस सिद्धांत की परिभाषा को अपनाते हुए, उस परिभाषा को न्यायदर्शन में प्रविष्ट करते हुए भी उद्योतकर ने उस पक्ष के खंडन की कड़ी आलोचना की। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि ऐसा हेतु भी हो सकता है, जिसमें उक्त तीनों रूप मौजूद न हों। उद्योतकर ने अनुमान के ऐसे उदाहरण भी दिये, जिनमें हेतु के पक्षसत्व तथा सपक्षसत्व वाले दो रूप हैं, लेकिन विपक्षव्यावृत्तत्व वाला रूप नहीं है हेतु के पक्षसत्व तथा विपक्षव्यावृत्तत्व वाले दो रूप हैं, लेकिन सपक्षसत्व वाला रूप नहीं है।
इन दो अनुमानों को उद्योतकर ने क्रमशः 'अन्वयी' और 'व्यतिरेकी अनुमान' गौतम प्रणीत न्यायदर्शन में है। उद्योतकर ने गौतम के अनुमान के वर्गीकरण में ही अन्वयी तथा व्यतिरेकी अनुमान को स्थान दिया 'त्रिविधमिति अन्वयी, व्यतिरेकी, अन्वयव्यतिरेकी चेति'। ऐसा करते समय गौतम के अनुमान विषयक प्रस्तुत सूत्र का वात्स्यायन ने जो अर्थ लगाया था, उसे उद्योतकर ने उपेक्षित किया और यद्यपि अन्वयी तथा व्यतिरेकी अनुमान का विचार मूल न्यायसूत्र में कहीं नहीं दिखता है तथापि उद्योतकर ने जब इन अनुमानों का विचार किया, तब न्यायदर्शन में उन पर बड़ी चर्चा हुई और आखिर में केवलान्वयी, केवल व्यतिरेकी तथा अन्वयव्यतिरेकी इन तीन प्रकारों में अनुमान का तथा हेतु का वर्गीकरण न्यायदर्शन में सर्वसम्मत हो गया।
षड्विधसन्निकर्ष का सिद्धान्त
दूसरे भी ऐसे कई सिद्धान्त हैं, जो पहली बार उद्योतकर के न्यायवार्तिक में दिखाई देते हैं और बाद में न्यायदर्शन में स्वीकृत किये गए। गौतम के प्रत्यक्ष लक्षण में जो 'इन्द्रियार्थसन्निकर्षजनयं' यह पद है, उसकी व्याख्या करते हुए उद्योतकर ने षड्विधसन्निकर्ष का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। बाद में प्रत्यक्ष का लौकिक तथा आलौकिक प्रत्यय में जो वर्गीकरण किया गया, उद्योतकर में यद्यपि नहीं मिलता है तथापि उस वर्गीकरण के बाद भी षड्विधसन्निकर्ष का सिद्धांत ज्यों का त्यों लौकिक प्रत्यक्ष के वर्गीकरण में समाविष्ट किया गया। इस सिद्धान्त के अनुसार लौकिक प्रत्यक्ष में इन्द्रिय तथा अर्थ (विषय) में होने वाला संबंध छ: प्रकार का हो सकता है। द्रव्य के प्रत्यक्ष में उस गुण तथा तथा जाति के साथ घ्राणादि इन्द्रिय का संयुक्त समवाय नामक संन्निकर्ष होता है, द्रव्य में होने वाले गुण में जो जाति होती है, उसके प्रत्यक्ष में उस जाति के साथ इन्द्रिय का संयुक्तसमवेत समवाय सन्निकर्ष होता है। शब्द के प्रत्यक्ष में शब्द के साथ श्रोत्रेन्द्रिय का समवाय संबंध होता है, शब्दगत जाति के प्रत्यक्ष में जाति के साथ श्रोत्रेन्द्रिय का समवेत समवाय सन्निकर्ष होता है तथा समवाय और अभाव के प्रत्यक्ष में विशेष्यविशेषणभाव नाम का सन्निकर्ष कारण रूप में होता है। इस सन्निकर्ष सिद्धांत में हम देखते हैं कि न्यायदर्शन की ज्ञानमीमांसा के स्पष्टीकरण के लिए नैयायिक वैशेषिकों के सत्ताशास्त्र की सहायता ले रहे थे और धीरे धीरे न्यायदर्शन में वैशेषिक विचार का प्रभाव बढ़ता जा रहा था।
अनुमान तथा अनुमिति का सिद्धान्त
तीसरा इसी तरह का सिद्धान्त जो पहली बार न्यायवार्तिक में दिखाई देता है और जो बाद में न्यायदर्शन के सिद्धान्त के रूप में स्वीकृत किया गया, वह अनुमान के स्वरूप के बारे में है। न्यायवार्तिक में पहली बार हम देखते हैं कि अनुमान तथा अनुमिति में स्पष्ट भेद किया गया है, तथा अनुमान को अनुमिति का कारण माना गया है। हम देखते हैं कि गौतम के न्यायदर्शन में प्रमाण और प्रमा में स्पष्ट भेद कहीं नहीं दिखाया गया है। प्रमाणों के लक्षण बनाते हुए कहीं कहीं गौतम ने जो लक्षण बताया है, वह प्रमा के बारे में सही निकलता है। प्रत्यक्ष प्रमाण के गौतम कृत लक्षण में हम 'ज्ञानम्' यह भी लक्षण भेद पाते हैं, जिससे सूचित होता है कि गौतम वहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण नहीं कर रहे हैं, बल्कि प्रत्यक्ष प्रमा का ही लक्षण कर रहे हैं। उसी प्रकार अनुमान तथा उपमान के भी गौतमकृत लक्षण वस्तुत: अनुमिति तथा उपमिति के लक्षण प्रतीत होते हैं। गौतम के बाद धीरे धीरे प्रमाण और प्रमा में भेद दिखाना ज़रूरी हो गया। वस्तुतः अनुमान क्या है, इनकी चर्चा करते हुए उद्योतकर ने तीन बातों का विचार किया है :
- (१) लिङ्गदर्शन
- (२) लिङ्गलिङ्गिसम्बन्धस्मरण्
- (३) लिङ्गपरामर्श
उद्योतकर के अनुमान
जब कोई आदमी पर्वत पर धुंआ देखकर वहाँ अग्नि के होने का अनुमान करता है, तब उसकी प्रक्रिया उद्योतकर के अनुसार इस प्रकार है- पहले वह आदमी पर्वत पर धुंआ देखता है (लिङ्गदर्शन) उसके तुरन्त बाद उसे स्मरण होता है कि जहाँ जहाँ मैंने धूम को देखा वहाँ वहाँ अग्नि को भी देखा (सम्बंधस्मरण)। इसके तुरन्त बाद उसकी समझ में आता है कि किस प्रकार अग्नि से सम्बद्ध धूम ही यहाँ पर्वत पर मौजूद है (लिङ्गपरामर्श) और तदनन्तर यह अनुमिति होती है कि पर्वत पर अग्नि है। उद्योतकर समझते हैं कि पहले तीनों ज्ञान अनुमिति के अनिवार्य पूर्ववर्ती हैं, इसलिए उद्योतकर के अनुसार इन तीनों के अनुमिति का कारण यानी अनुमान समझने में कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन इन तीनों में अगर प्रधानगौणभाव का विचार करना है तो प्रधान रूप में लिंग परामर्श को ही अनुमान समझना चाहिए, लिंगदर्शन या संबंधस्मरण को नहीं। इसका कारण बताते हुए उद्योतकर कहते हैं कि लिंगपरामर्श के तुरन्त बाद अनुमिति हाती है, लेकिन लिंगदर्शन या संबंधस्मृति के तुरन्त बाद अनुमिति नहीं होती है। उद्योतकर के इस विवेचन में अनेक मुद्दे स्पष्ट होते हैं। यहाँ उद्योतकर ने प्रमाण तथा प्रमा करण तथा फल में ज़रूर भेद दिखाया है, लेकिन करण की स्पष्ट कल्पना उद्योतकर के मन में भी नहीं थी, यह भी यहाँ पर दिखता है। बाद में करण, व्यापार और फल इन तीनों में भेद तथा परस्पर सम्बन्ध स्पष्ट किया गया और अनुमान में व्याप्तिज्ञान को करण, परामर्श को व्यापार ता अनुमिति को फल माना गया। उद्योतकर ने 'प्रधानरूप से करण' की जो कल्पना यहाँ प्रस्तुत की है, उसमें करण की 'फलायोगव्यवच्छिन्नमं कारणम्' यह जो दूसरी कल्पना बाद में प्रस्तुत की गई, उसकी झलक मिलती है, क्योंकि इसी कल्पना के अनुसार लिंगपरामर्श को करण माना जा सकता है।
उद्योतकर के इस अनुमान विचार के बल पर कई विद्वानों ने ऐसा तर्क किया है कि यहाँ उद्योतकर ने व्याप्ति की कल्पना सर्वप्रथम प्रस्तुत की है। लेकिन न्यायवार्तिक के परिशीलन से तो यह प्रतीत होता है कि उद्योतकर ने जो लिंगलिंगिसंबंध बताया है, वह अनुभूत विश्व में दिखाई देने वाला संबंध है, समूचे विश्व में होने वाला सार्वत्रिक संबंध नहीं है। लिंगलिंगिसंबंधस्मृति का जो आकार उद्योतकर ने बताया है, वह इस प्रकार है- 'यत्र धूममद्राक्षं तत्राग्निमद्राक्षम्', जिसका अर्थ है 'जहाँ मैंने धूम देखा, वहाँ मैंने अग्नि देखी।' यह आकार सार्वत्रिक (सर्वोपंसारोहण) व्याप्ति का नहीं हो सकता। सार्वत्रिक व्याप्ति का आकार 'जहाँ जहाँ धूम है, वहाँ वहाँ अग्नि है' ऐसा होना चाहिए। यहाँ हम देखते हैं कि दिङनाग ने जो अनुभूतविश्व में-सपक्ष तथा विपक्ष में-प्रकटित लिंगलिंगिसंबंध की कल्पना प्रस्तुत की थी वही उद्योतकर ने भी थोड़ी बहुत परिवर्तन करके अपनाई है।
हेतुचक्र से तुलना
उद्योतकर का और एक महत्त्वपूर्ण योगदान हेत्वाभास के विषयों में है। दिङनाग ने हेतुत्रैरुप्य का जो सिद्धांत स्थापित किया था, उसी के आधार पर हेतुओं तथा हेत्वाभासों के वर्गीकरण का एक ढाँचा दिङनाग ने प्रस्तुत किया था। (इस वर्गीकरण को दिङनाग ने 'हेतुचक्र' नाम दिया था)। उद्योतकर ने यद्यपि एक तरफ़ दिङनाग के हेतुत्रैरुप्य के सिद्धांत का खंडन करने का प्रयास किया, तथापि दूसरी तरफ हेत्वाभासों का वर्णन करते समय उद्योतकर ने दिङनाग के ही हेतु चक्र का अनुकरण तथा विस्तार किया। हेत्वाभास वर्गीकरण का विकास करते समय उद्योतकर ने कहा है कि हेत्वाभास वैसे तो अनगिनत हैं, फिर भी उद्योतकर ने बहुत वर्गीकरण तत्वों का विचार करते हुए दो हज़ार बत्तीस हेत्वाभासों की गिनती की है। वैसे इन हेत्वाभासों के वर्गीकरण के मूलतत्व संख्या में थोड़े ही हैं, लेकिन इन्हीं तत्वों के भिन्न भिन्न प्रकार से योग होने पर हेत्वाभासों के भिन्न भिन्न उपप्रकारों का परिगणन हो सकता है। उद्योतकर के इस वर्गीकरण को पूर्णत: स्वीकार बाद में किसी नैयायिक ने किया, ऐसा नहीं नज़र आता है, लेकिन उद्योतकर ने जो विशेषणासिद्ध, विश्लेष्यासिद्ध, संदिग्धविशेषण, संदिग्धविशेष्य, व्याधिकरणसिद्ध, अन्यथासिद्ध जैसे हेत्वाभासों के मूल प्रकार बनाए, उनका विचार अंतरवर्ती नैयायिकों ने भी किया। उनमें से अन्यथासिद्ध विशेष महत्त्व रखता है, क्योंकि बाद में इसी का विकसित रूप 'अप्रयोजक', 'सोपाधिक' तथा 'व्याप्यत्वासिद्ध' नाम के हेत्वाभास में दीख पड़ता है।
उद्योतकर का युक्ति प्रदर्शन
बौद्धों के केवल तर्कशास्त्र पर ही उद्योतकर ने खण्डनास्त्र चलाया है, ऐसी बात नहीं है, बल्कि बौद्धों के सत्ताशास्त्र का, विशेषतः उनके अनात्मवाद का खण्डन करने का उद्योतकर ने भरसक प्रयास किया है।उद्योतकर ने जो युक्तियां प्रदर्शित की हैं, वे निम्नलिखित हैं-
• 'आत्मा नहीं है, क्योंकि उसका जन्म ही नहीं हुआ, जैसे शशश्रृंग'। यह आत्मा का अस्तित्व खंडित करने के लिए बौद्धों की युक्ति है। इनमें अनेक विसंगतियां हैं।
1. आत्मा नहीं है, ऐसा कहने में व्याघात है क्योंकि आत्मा शब्द का उच्चारण करने से ही आत्मा का अस्तित्व सूचित होता है और फिर 'नहीं है' कहने से उसी का निषेध किया गया है।
2. जब किसी का अभाव बताया जाता है, तब वह किसी देश विशेष को या काल विशेष को लेकर बताया जा सकता है। लेकिन देश विशेष में या काल विशेष में आत्मा का अभाव नहीं सिद्ध किया जा सकता है।
3. कोई शब्द निरर्थक नहीं है, इसलिए आत्मा शब्द का अर्थ है ही।
4. बौद्धों के प्रामाणिक ग्रंथों में भी आत्मा का अस्तित्व स्वीकृत किया गया है। इसलिए बौद्धों का अनात्मवाद अपने ही आगम से बाधित होता है।
5. जो वस्तुतः है उसी को जन्मरहित कहा जा सकता है। इसलिए आत्मा अगर जन्मरहित है तो उसके होने में कोई शंका नहीं हो सकती।
6. बौद्धों के उपर्युक्त अनुमान में शशश्रृंग का दिया हुआ दृष्टांत भी असंगत है, क्योंकि शश या श्रृंग असत् नहीं है और शंश और श्रृंग में संबंध भी संभव है। शंशश्रृंग का निषेध वस्तुत: शश और श्रृंग में आरोपित कार्यकारणभाव का निषेध है।
• आत्मा नहीं है, क्योंकि उसकी उपलब्धि नहीं होती। ऐसा अगर बौद्ध कहें तो वह भी ग़लत है। क्योंकि हरेक को 'मैं' के अनुभव में आत्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है।
• कोई बौद्ध 'जीने वाला शरीर आत्मा से रहित है, क्योंकि वह सत् है' ऐसा तर्क करते हुए आत्मा के बजाए शरीर को पक्ष बनाते हैं। लेकिन वहां भी आत्मा शब्द का प्रयोग करके उसी के अर्थ का सार्वत्रिक निषेध करने से विरोध आता है।
• आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए इस तरह के तर्क दिए जा सकते हैं-
1. आत्मा शब्द का विषय रूप, वेदना आदि शब्दों के विषयों से अतिरिक्त है, क्योंकि रूप आदि शब्दों से 'आत्मा' शब्द भिन्न है, जैसे घट शब्द।
2. चक्षु आदि इन्द्रिय किसी दूसरे के लिए (आत्मा के लिए) होते हैं, क्योंकि वे संधानरूप हैं, जैसे शयन, आसन आदि संधानरूप होते हुए, किसी दूसरे के लिए (आदमी के लिए) काम आते हैं।
उद्योतकर के द्वारा प्रस्तुत ये युक्तियां उसके उत्तरवर्ती नैयायिकों को बौद्धों की आलोचना करने में बहुत उपयुक्त सिद्ध हुई। ऐसा न्यायदर्शन के इतिहास के परिशीलन से प्रकट होता है।[1]