उत्प्रेषण
उत्प्रेषण रिट' - यह रिट किसी वरिष्ठ न्यायालय द्वारा किसी अधीनस्थ न्यायालय या न्यायिक निकाय जो अपनी अधिकारिता का उल्लंघन कर रहा है, को रोकने के उद्देश्य से जारी की जाती है। प्रतिषेध व उत्प्रेषण में एक अंतर है। प्रतिषेध रिट उस समय जारी की जाती है जब कोई कार्यवाही चल रही हो। इसका मूल उद्देश्य कार्रवाई को रोकना होता है, जबकि उत्प्रेषण रिट कार्रवाई समाप्त होने के बाद निर्णय समाप्ति के उद्देश्य से की जाती है।
परिचय
उत्प्रेषण भी निषेधादेश (prohibition) की ही भाँति एक अत्यंत प्राचीन प्रादेश है जिसके द्वारा आंग्ल न्यायालय का "क्वींस बेंच डिवीजन" न्यायाधिकरणों तथा कल्प न्यायधिकरणों की कार्यवाहियों को नियंत्रित किया करता था। इस विचित्र नामकरण का रहस्य यह है कि इसके लैटिन प्रारूप के लिए यह आवश्यक था कि अन्वेषणीय कार्यवाहियों को सम्राज्ञी के समक्ष प्रस्तुत किए जाने के पूर्व उनका "क्वींस बेंच डिवीजन" द्वारा प्रमाणीकरण हो जाए।
उत्प्रेषणादेश तभी जारी किए जाते हैं जब कि न्यायाधिकरण, अथवा कल्प न्यायाधिकारण के आदेश उनकी शक्तिसीमा का अतिक्रमण करते हों, प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों की अवहेलना करते हों अथवा विधान के किसी ऐसे भ्रम से दूषित हों जो उनमें (आदेशों में) स्पष्ट दिखाई पड़ते हों (apparent on the face of the rceord)।
अद्यावधि किसी ऐसी निभ्रम परीक्षणविधि की उद्भावना नहीं की जा सकी है जिसके द्वारा हम कल्प न्यायिक (quasi judicial) कार्यवाही तथा प्रशासनिक कार्यवाही के बीच कोई विभाजक रेखा खींच सकें। केवल कल्प न्यायिक कार्यवाहियों से उत्पन्न आदेशों के विरुद्ध ही उत्प्रेषणादेश जारी किया जा सकता है, इसीलिए विभाजन की आवश्यकता उपस्थित हुई है। स्थल आधार पर कहा जा सकता है कि जब एक वर्गविशेष के व्यक्तियों को यह वैध शक्ति प्रदान की जाती है कि वे न्यायिक कर्तव्यों का पालन करते हुए व्यक्तिविशेष के अधिकारों का निर्णय करेंगे, उस दशा में उनको कार्यवाही कल्पन्यायिक होगी। इसके विपरीत यदि किसी अधिकारी के निर्णय का मूल्यांकन उसकी नीति के आधार पर किया जाता है, उस दशा में वह कार्यवाही सामान्यत: प्रशासनिक कही जाएगी किंतु संबंधित अधिकारी यदि साक्षी द्वारा संवलित प्रज्ञप्ति (proposal) तथा आपत्ति (objection) के ही आधार पर किसी निर्णय पर पहुँचता है उस दशा में यह आवश्यक है कि अधिकारी न्यायिक पद्धति का अवलंबन करे। इस प्रकार की कार्यवाही अंशत: कल्प-न्यायिक होगी, भले ही अंतिम निर्णय प्रशासनिक कहा जाए। कोई कार्यवाही कल्प-न्यायिक है या नहीं, इसका निर्णय अंततोगत्वा तीन बातों पर निर्भर होता है-
- (1) वाद की प्रकृति,
- (2) संविधि,
- (3) अनुविध्यात्मक अधिकारी (statutary authority) के प्राधिकार तथा कार्यपद्धति एवं तत्सबंधी अधिकारी के प्रतिष्ठापन से संबद्ध अन्य नियम।
उत्प्रेषण प्रादेश, किसी अधिकारी द्वारा दिए गए उस आदेश को ध्वस्त (quash) करने के लिए जारी किया जाता है जब कि अधिकारी का बाद विषय में व्यक्तिगत स्वार्थ हो, अथवा बाद विषय के पक्ष या विपक्ष के प्रति उसके मस्तिष्क में पूर्वाग्रह विद्यमान हो। केवल न्याय का होना ही पर्याप्त नहीं है अपितु आवश्यक है कि यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो कि न्याय किया गया। जब कोई आदेश, किसी अधिकारी द्वारा, दूसरे पक्ष को सुनवाई का अवसर दिए बिना ही पारित कर दिया जाता है उस अवस्था में भी उत्प्रेषणादेश जारी किया जाता है।
उत्प्रेषण प्रादेश उस निर्णय को ध्वस्त करने के लिए भी जारी किया जाता है जिसका दोष उसमें प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। ""प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने"" (menifest on the face of the record) की कोई निश्चित व्याख्या संभव नहीं किंतु इतना तो निश्चित है कि इस कथन की आड़ में न्यायालय अपील न्यायालयवत् आचरण नहीं करेगा।
जो निर्णय साक्षी द्वारा संबलित नहीं है, वे भी इस आदेश द्वारा ध्वस्त किए जा सकते हैं।
जहाँ न्यायिक अथवा कल्पन्याधिक (Judicial or quasijudicial) अधिकारी, सीमाविषयक तथा किसी दोषपूर्ण धारणा पर अपनी सीमा का बलात् अतिक्रमण कर कोई निर्णय देता है, वहाँ न्यायालय तद्विषयक तथ्यों की उपस्थिति की छानबीन भी कर सकता है। अन्य साधारण दशाओं में न्यायालय साक्षी द्वारा संबलित निष्कर्षों में हस्तक्षेप नहीं करेगा। प्रकारांतर से उल्लिखित साक्षी को न्यायालय उसी दशा में स्वीकृत करेगा जब यह सिद्ध होगा कि ध्वस्त निर्णय कपट द्वारा प्राप्त (obtained by fraud) था अथवा ऐसा करते हुए अधिकारसीमा का अतिक्रमण किया गया।
यह आदेश प्रकृत्वा नहीं किंतु आधिकारिक रूप से जारी किया जाता है और न्याय की पूर्ति के लिए (exdebito justitiae), कार्यसीमा का अतिक्रमण अथवा प्राकृतिक न्यायपद्धति की अवहेलना से पीड़ित पक्ष की याचिका पर जारी किया जाता है।