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आर्थिक विकास

नव औद्योगिक देश नए [औद्योगिक देश]। इनमें से कई 1997 के एशियाई आर्थिक संकट की चपेट में आ गए थे।]] देशों, क्षेत्रों या व्यक्तिओं की आर्थिक समृद्धि के वृद्धि को आर्थिक विकास कहते हैं। नीति निर्माण की दृष्टि से आर्थिक विकास उन सभी प्रयत्नों को कहते हैं जिनका लक्ष्य किसी जन-समुदाय की आर्थिक स्थिति व जीवन-स्तर के सुधार के लिये अपनाये जाते हैं। वर्तमान युग की सबसे महत्वपूर्ण समस्या 'आर्थिक विकास' की समस्या है। आर्थिक स्वतन्त्रता के बिना राजनैतिक स्वतन्त्रता का कोई महत्त्व (उपयोग) नहीं है। विकास और उससे जुड़े हुए इसके इस महत्त्व के कारण ही अर्थशास्त्र] के क्षेत्र में [विकास-अर्थशास्त्र] नामक एक अलग विषय का ही उदय हो गया। किन्तु पिछले कुछ वर्षों से विकास-अर्थशास्त्र के एक स्वतंत्र विषय के रूप में अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न-सा उभरता दिखाई दे रहा है। कई अर्थशास्त्री हैं जो "विकास-अर्थशास्त्र" नामक अलग विषय की आवश्यकता से ही इनकार करने लगे हैं, इनमें प्रमुख हैं- स्लट्ज, हैबरलर, बार, लिटिल, वाल्टर्स आदि। अर्थशास्त्रियों का एक वर्ग "विकास-अर्थशास्त्र" को ही समाप्त कर देने की मांग करने लगा है।कुछ अर्थशास्त्रियों ने 'आर्थिक विकास' (इकनॉमिक डेवलपमेन्ट), 'आर्थिक प्रगति' (इकनॉमिक ग्रोथ) और दीर्घकालीन परिवर्तन (सेक्युलर डेवलपमेन्ट) की अलग-अलग परिभाषाएँ की हैं। किन्तु मायर और बोल्डविन ने इन तीनों श्ब्द-समूहों का एक ही अर्थ में प्रयोग किया है तथा अलग-अलग अर्थ निकालने को 'बाल की खाल निकालना' कहा है। उनके अनुसार आर्थिक विकास एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी अर्थव्यवस्था की वास्तविक राष्ट्रीय आय में दीर्घकालिक वृद्धि होती है

विकास का अर्थ एवं माप

विकास के अर्थ और माप को लेकर अर्थशास्त्र में एक बहस और विवाद चला आ रहा है। किन्तु इतनी लंबी बहस के बावजूद भी विकास का अर्थ ही स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। जब कोई अर्थशास्त्री विकास के बारे में अपना मंतव्य प्रकट करना चाहे तो वह विकास का अर्थ बताता है एवं उसकी परिभाषा देता है। किन्तु कुछ समय बाद वह स्वयं ही अपनी परिभाषा से असंतुष्ट दिखाई देता है। वह महसूस करता है कि वह जो कुछ चाहता था, वह कह नहीं पा रहा है, वह जहां जाना चाहता था, जा नहीं पा रहा है। यह एक अजीब स्थिति है कि विकास का अर्थ स्पष्ट हुए बिना ही विकास योजनाएं, विकास माडल, विकास नीति एवं रणनीति तैयार हो रहीं है और विकास के नाम पर प्रत्येक देश में अनेक प्रकार की गतिविधियां भी चल रही हैं। यह एक ऐसी ही स्थिति हुई जैसे किसी व्यक्ति को जिस स्थान पर जाना हो उसे उस स्थान का नाम और दिशा ही स्पष्ट न हो, किन्तु फिर भी वह चल पड़े।

शब्दावली की दुविधा
आर्थिक समृद्धि या आर्थिक विकास?

आर्थिक समृद्धि कहें या आर्थिक विकास?- इन दोनों में से कौन-सी शब्दावली का प्रयोग करें- इसको लेकर भी अर्थशास्त्री दुविधा में हैं। साधारण बोलचाल की भाषा में तो आर्थिक समृद्धि और आर्थिक विकास इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता रहा है। लेकिन सबसे पहले प्रो. शूम्पीटर ने 1911 में प्रकाशित "थ्योरी ऑफ इक्नोमिक डेवलेपमेंट" नामक एक लेख में आर्थिक समृद्धि एवं आर्थिक विकास की अवधारणाओं में अंतर स्पष्ट किया था। उसके बाद से अनेक अर्थशास्त्रियों ने इन अवधारणाओं में अंतर बताया है। प्रो. किन्डलबर्जर के अनुसार, आर्थिक समृद्धि से तात्पर्य है अधिक उत्पादन, जबकि आर्थिक विकास में दोनों बातें शामिल होती हैं- अधिक उत्पादक तथा तकनीकी एवं संस्थागत व्यवस्थाओं में परिवर्तन। इस प्रकार आर्थिक समृद्धि की तुलना में आर्थिक विकास एक विस्तृत अवधारणा है।

तकनीकी दृष्टि से समृद्धि एवं विकास की धारणाओं में अंतर मानते हुए भी ज्यादातर अर्थशास्त्रियों ने व्यावहारिक दृष्टि से समृद्धि और विकास को एक ही अर्थ में परिभाषित किया है। वे विकास को 'आय में वृद्धि' और 'उत्पादन वृद्धि' से आगे की चीज मानते हुए भी उसे आय और उत्पादन वृद्धि के रूप में ही परिभाषित करते हैं। विकास को केवल प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) में वृद्धि के रूप में न मानते हुए भी वे विश्व के विकसित, विकासशील और अविकसित देशों के बीच विभाजन प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. के आधार पर ही करते हैं। यह विडम्बना ही है कि एक ओर वे कहते हैं कि विकास यह नहीं है किन्तु दूसरी ओर जो नहीं है उसी को विकास स्वीकार कर लेते हैं।

आर्थिक विकास के माप तथा विकास के सूचक

विकास-अर्थशास्त्र में विकास के अर्थ एवं परिभाषा से भी बड़ा विवाद और भ्रम विकास के माप एवं सूचकों (संकेतों) को लेकर है। यह भी कह सकते हैं कि विकास के माप या सूचकों के विवाद में से ही विकास का अर्थ व परिभाषा का विवाद उत्पन्न हुआ है। प्रश्न यह है कि क्या विकास को संख्यात्मक रूप से मापा जा सकता है? पश्चिमी अर्थशास्त्र ने यह माना है कि विकास को संख्यात्मक रूप से मापा जा सकता है। यह मान लेने के बाद दूसरा सवाल यह उत्पन्न होता है कि विकास को कैसे और किन मापदंडों से मापा जा सकता है कि किसी देश का विकास हुआ है या नहीं और कितना हुआ है। समय-समय पर विकास को मापने के लिए अनेक सूचकों का सुझाव दिया जाता रहा है।

विकास के विभिन्न सूचकों को हम मुख्यत: दो भागों में वर्गीकृत कर सकते हैं- आर्थिक सूचक एवं गैर-आर्थिक सूचक।

आर्थिक सूचक

कुछ अर्थशास्त्री जैसे कुजनेट्स, मेयर एवं बाल्डविन, मीड आदि वास्तविक जी.डी.पी. को ही विकास का सर्वोत्तम सूचक मानते हैं। उनके अनुसार वास्तविक जी.डी.पी. में वृद्धि दर के आधार पर हम विकास की दर को माप सकते हैं। कुछ सीमा तक जी.डी.पी. को विकास का उपयोगी मापदंड होते हुए भी इसे समुचित मापदंड नहीं माना जा सकता है। इसकी प्रमुख कमियां इस प्रकार हैं-[1]

  • (क) यदि किसी देश में जी.डी.पी. में हुई वृद्धि की तुलना में जनसंख्या में अधिक तीव्र दर से वृद्धि हो जाए तब प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. एवं वस्तुओं व सेवाओं की उपलब्धि पहले की तुलना में घट जाएगी। ऐसी स्थिति होने पर यदि हम यह घोषणा करें कि उस देश का विकास हुआ है तो यह हास्यास्पद बात ही होगी।
  • (ख) यह संभव है कि जी.डी.पी. में वृद्धि केवल अमीरों की आय में वृद्धि के कारण ही हो। इस प्रकार जी.डी.पी. से आय-वितरण के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पाती।
  • (ग) यदि जी.डी.पी. की वृद्धि केवल युद्ध सामग्री के उत्पादन में वृद्धि के कारण हुई है तो भी इस स्थिति को विकास नहीं माना जा सकता।

प्रति व्यक्ति जी.डी.पी.

अधिकांश अर्थशास्त्री प्रति व्यक्ति वास्तविक जी.डी.पी. में वृद्धि को ही विकास का सर्वोत्तम, व्यावहारिक एवं सुविधाजनक मापदंड मानते हैं। किंडलबर्जर, मेयर, हिगीन्स, हार्वे लेबेन्स्टीन, डब्ल्यू.ए. लेविस, जेकब वाइनर आदि अर्थशास्त्री इसी मत के हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इसी माप को स्वीकार किया है। प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. को विकास का मापदंड स्वीकार कर लेने पर जनसंख्या की वृद्धि के प्रभाव का भी विचार हो जाता है, क्योंकि कुल जी.डी.पी. में कुल जनसंख्या का भाग देने पर ही प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. की गणना होती है। किन्तु विकास के मापदंड के रूप में प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. भी अधूरा मापदंड है और इसके भी कई दोष हैं। इनमें से प्रमुख हैं-

  • (क) यदि किसी देश की जी.डी.पी. और जनसंख्या में समान दर से वृद्धि हो तब भी हमें यह कहना पड़ेगा कि उस देश का विकास नहीं हुआ है। इसी प्रकार यदि किसी कारण से किसी देश की जनसंख्या घट जाए किन्तु जी.डी.पी. स्थिर रहे तो कहना पड़ेगा कि उस देश का विकास हुआ है।
  • (ख) चूंकि प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. एक औसत माप है, अत: प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. में वृद्धि होने पर भी यह संभव है कि अमीर अधिक अमीर और गरीब अधिक गरीब हो जाए। यदि प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. में वृद्धि अमीरों की आय में वृद्धि के परिणामस्वरूप ही हुई है तब तो देश के आम आदमी के उपभोग व रहन-सहन स्तर में कोई वृद्धि नहीं होगी। अत: प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. में वृद्धि को आर्थिक विकास का मापदंड स्वीकार करने से भ्रम उत्पन्न हो सकता है।
  • (ग) प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. में वृद्धि होने पर भी प्रति व्यक्ति उपभोग की मात्रा में वृद्धि होना आवश्यक नहीं है। हो सकता है कि लोग पहले की तुलना में अधिक बचत करने लग जाएं अथवा सरकार बढ़ी हुई आय को सैनिक उद्देश्यों में खर्च कर दे।
  • (घ) प्रति व्यक्ति वास्तविक जी.डी.पी. में वृद्धि होने पर भी यह संभव है कि देश में गरीबी की रेखा के नीचे गुजर करने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हो जाए।

सार रूप में, जी.डी.पी. एवं प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. को विकास के मापदंड रूप में स्वीकार किए जाने के कुछ दोष हैं जो निम्नलिखित हैं-

  • (क) जी.डी.पी. की अभी तक कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं बन सकी है। इसकी गणना में क्या शामिल किया जाए और क्या नहीं- अभी तक इस प्रश्न का कोई संतोषजनक हल नहीं निकल पाया है।
  • (ख) विभिन्न देशों की जी.डी.पी. की गणना करते समय अमौद्रिक क्षेत्र की बहुत-सी वस्तुएं गणना से छूट जाती है। स्व-उपभोग तथा बाजार में विनिमय के लिए न लाई जाने वाली वस्तुओं व सेवाओं की राष्ट्रीय आय में ठीक से गणना नहीं हो पाती। उदाहरण के लिए, भारत जैसे देशों के गांवों में आज भी बहुत सारा लेन-देन मुद्रा के बिना ही होता है। किसान अनाज के बदले कपड़ा, बर्तन, लकड़ी का सामान व अन्य सेवाएं प्राप्त कर लेता है। इसी तरह किसान अपनी उपज का एक बड़ा भाग स्व-उपभोग के लिए भी रख लेते हैं। ये सब वस्तुएं बाजार में बिक्री के लिए प्रस्तुत ही नहीं की जाती। इसी प्रकार अवैतनिक सेवाओं की गणना भी राष्ट्रीय आय में नहीं हो पाती। उदाहरण के लिए: खाना बनाने, कपड़ा धोने, सफाई करने आदि का काम जब कोई नौकरानी वेतन लेकर करती है, तब तो ये सेवाएं राष्ट्रीय आय का अंग बन जाती हैं। किन्तु यही सेवाएं गृहणियों द्वारा की जाने पर वे राष्ट्रीय आय में शामिल नहीं हो पाती।
  • (ग) विभिन्न देशों की जी.डी.पी. की गणना उन देशों की मुद्रा में होती है। अत: विभिन्न देशों की जी.डी.पी. की तुलना करते समय उन्हें किसी एक मुद्रा में व्यक्त करना पड़ता है और इसके लिए विदेशी विनिमय दर का सहारा लिया जाता है। किन्तु कोई भी विदेशी विनिमय दर यह काम ठीक से नहीं कर पाती।
  • (घ) अल्पविकसित देशों में जी.डी.पी. के आंकड़े अपर्याप्त, अपूर्ण एवं अविश्वसनीय होते हैं। अत: ऐसे आंकड़ों के आधार पर विकास का सही माप हो ही नहीं सकता।

प्रति व्यक्ति उपभोग

कुछ विद्वानों का मत है कि विकास का अंतिम लक्ष्य लोगों के रहन-सहन व जीवन स्तर में वृद्धि करना होता है और रहन-सहन का स्तर उपभोग के लिए उपलब्ध वस्तुओं व सेवाओं की मात्रा पर निर्भर करता है। अत: प्रति व्यक्ति उपभोग का स्तर आर्थिक विकास का सर्वोत्तम मापदंड है। किन्तु इस माप की भी अपनी एक कठिनाई है। प्रत्येक देश को भविष्य में अधिक उत्पादन करने के लिए पूंजी-संचय व बचत की आवश्यकता होती है और इसके लिए उपभोग को कम करना पड़ता है। यदि कोई देश अपने उपभोग को कम करके बचत व पूंजी निर्माण में वृद्धि कर रहा होगा तो प्रति व्यक्ति उपभोग स्तर को विकास का मापदंड मान लेने पर उस देश का आर्थिक विकास नहीं माना जाएगा। दूसरी ओर, यदि कोई देश वर्तमान में अपने उपभोग स्तर में तो काफी वृद्धि कर लेता है किन्तु उसकी बचत व पूंजी निर्माण कम हो जाता है, तो इससे भविष्य में उसके कुल उत्पादन में कमी आने की संभावना उत्पन्न हो जाएगी। किन्तु प्रति व्यक्ति उपभोग स्तर के मापदंड के अनुसार उस देश का आर्थिक विकास हुआ है, यह कहा जाएगा।

आर्थिक कल्याण

कुछ विद्वानों के अनुसार आर्थिक कल्याण ही आर्थिक विकास का सर्वोत्तम मापदंड हो सकता है। आर्थिक कल्याण का विचार करते समय हम केवल यह नहीं देखेंगे कि क्या और कितना उत्पादन किया जा रहा यह किस प्रकार पैदा किया जा रहा है और इसका बंटवारा किस प्रकार हो रहा है। आर्थिक कल्याण में यह भी ध्यान में रखना होगा कि देश में जिन-जिन वस्तुओं का उत्पादन किया जा रहा है उनका तुलनात्मक महत्त्व कितना है? इस प्रकार इसमें हमें मूल्यात्मक निर्णय (वेल्यू जजमेंट) लेने होंगे। इसी तरह उत्पादन की सामाजिक लागत का भी विचार करना होगा। यद्यपि आर्थिक कल्याण का मापदंड विकास का अधिक उपयुक्त मापदंड है किन्तु फिर भी अभी तक अर्थशास्त्रियों ने इसका व्यवहार में प्रयोग नहीं किया है। इसका कारण उन्होंने यह बताया है कि मूल्यात्मक निर्णयों, न्यायपूर्ण वितरण, सामाजिक लागत आदि ऐसी बातें हैं जिनकी व्यवहार में गणना करना बहुत कठिन है, अत: आर्थिक कल्याण को अव्यावहारिक मानकर छोड़ दिया गया है।

समायोजित सकल राष्ट्रीय उत्पाद माप

विभिन्न देशों के बीच तुलनात्मक अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से कुछ अर्थशास्त्रियों ने समायोजित सकल राष्ट्रीय उत्पाद को विकास के मापदंड के रूप में स्वीकार करने का सुझाव दिया है। इस माप के माध्यम से राष्ट्रीय आय के लेखों को समायोजित करने के लिए क्रयशक्ति समता () की अवधारणा का प्रयोग किया जाता है। किन्तु इस मापदंड में भी राष्ट्रीय आय के माप की सभी सीमाएं तो हैं ही, उसके अलावा राष्ट्रीय आय का समायोजन करना ही कोई सरल काम नहीं है, उसकी अपनी कठिनाइयां व सीमाएं हैं।

अन्य मापदण्ड

उपर्युक्त मापदंडों के अलावा कुछ विद्वानों ने विकास के और भी कई मापदंडों के प्रयोग का सुझाव दिया है। उदाहरण के लिए, कुल जनसंख्या में निर्धन वर्ग का प्रतिशत कम होना आर्थिक विकास का एक अच्छा मापदंड हो सकता है। पर ये सभी मापदंड एकपक्षीय हैं।

गैरआर्थिक (सामाजिक) सूचक

सामाजिक सूचकों में मनुष्य की आधारभूत आवश्यकताओं के रूप में बताया गया है। मुख्य सामाजिक सूचकों में ये शामिल हैं- जीवन प्रत्याशा, केलौरी-पान, शिशु मृत्यु दर, विद्यालयों में प्राथमिक कक्षाओं में भर्ती संख्या, आवास, पोषण, स्वास्थ्य तथा ऐसी ही अन्य वे सब चीजें जो मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं से सम्बंध रखती हैं।

सामाजिक लेखा प्रणाली

इस प्रणाली को स्टोन एवं सीयर्स ने दिया था। इसी क्रम में पियट्ट एवं राउंड ने भी सोशल एकाउंटिंग मैट्रिक्स के नाम से एक सूचक दिया था। किन्तु इस प्रकार की प्रणाली की सबसे बड़ी कमी विश्वसनीय एवं उपयोगी आंकड़ों का न मिल पाना है। इसके अलावा इसमें सामाजिक विकास के सब पहलुओं को सम्मिलित कर पाना भी कठिन रहता है।

संयुक्त सामाजिक विकास सूचक

इस सूचक का विकास सामाजिक विकास पर संयुक्त राष्ट्र के शोध संस्थान द्वारा किया गया था। प्रारंभ में 73 सूचकों को जांचा गया जिनमें से अंत में 16 सूचकों का चयन किया गया। ये सूचक हैं-

  • जन्म के समय जीवन प्रत्याशा
  • 20,000 या उससे अधिक के क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धि का प्रतिशत
  • प्रति व्यक्ति, प्रतिदिन पशु प्रोटीन का उपभोग
  • प्राथमिक एवं द्वितीयक स्तर पर कुल मिलाकर भर्ती विद्यार्थियों की संख्या
  • व्यावसायिक भर्ती अनुपात
  • प्रति कमरा औसत व्यक्तियों की संख्या
  • प्रति 1000 जनसंख्या पर समाचार पत्र
  • बिजली, गैस, पानी आदि से युक्त आर्थिक रूप से सक्रिय जनसंख्या का प्रतिशत
  • प्रति पुरुष कृषि-श्रमिक कृषि उत्पादन
  • कृषि में वयस्क पुरुष श्रमिकों का प्रतिशत
  • प्रति व्यक्ति कितने किलोवाट बिजली उपभोग होता है
  • प्रति व्यक्ति कितने किलोग्राम स्टील उपभोग होता है
  • प्रति व्यक्ति ऊर्जा उपभोग
  • विनिर्माण कार्यों से प्राप्त सकल घरेलू उत्पाद (प्रतिशत में)
  • प्रति व्यक्ति विदेशी व्यापार
  • आर्थिक दृष्टि से सक्रिय कुल जनसंख्या में वेतन एवं मजदूरी पर कार्य करने वालों का प्रतिशत।

उपर्युक्त सूचकों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ये भी विकास के उपयुक्त मापदंड नहीं बन सकते।

भौतिक गुणवत्ता का जीवन सूचक

विकास के इस सूचक को 1979 में मोरिस डी. मोरिस ने दिया था। इसके अंतर्गत तीन सूचकों का प्रयोग करने की बात कही गई थी-

  • (क) एक वर्ष की आयु पर जीवन प्रत्याशा
  • (ख) शिशु मृत्यु
  • (ग) साक्षरता।

यह सूचक भी अधूरा है। क्योंकि इसमें अनेक सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक सूचकों को शामिल ही नहीं किया गया है- जैसे सुरक्षा, न्याय, मानव अधिकार आदि।

आधुनिक आर्थिक संवृद्धि की विशेषताओं के बारे में कुटनेट्स का विश्लेषण

कुटनेट्स ने आधुनिक आर्थिक संवृद्धि की सात मुख्य विशेषताएं बताई हैं-

  • (१) प्रति व्यक्ति उत्पादन में तीव्र दर से वृद्धि
  • (२) उत्पादकता की ऊंची वृद्धि दर
  • (३) संरचनात्मक परिवर्तन की ऊंची दर
  • (४) शहरीकरण एवं औद्योगिकीकरण
  • (५) तीव्र सामाजिक एवं वैचारिक परिवर्तन
  • (६) आधुनिक देशों का बाहर की ओर देखने का दृष्टिकोण
  • (७) भौतिक एवं मानवीय पूंजी का अंतरराष्ट्रीय प्रवाह।

सन्दर्भ

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ