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आयुर्विज्ञान का इतिहास

सूत्रबद्ध विचारव्यंजन के हेतु आयुर्विज्ञान (मेडिसिन) के क्रमिक विकास को लक्ष्य में रखते हुए इसके इतिहास के तीन भाग किए जा सकते हैं :

(1) आदिम आयुर्विज्ञान

(2) प्राचीन आयुर्विज्ञान

(3) अर्वाचीन आयुर्विज्ञान

आदिम आयुर्विज्ञान

मानव की सृष्टि हुई। आहार, विहार तथा स्वाभाविक एवं सामाजिक परिस्थितियों के कारण मानव जाति पीड़ित होने लगी। उस पीड़ा की निवृत्ति के लिए उपायों के अन्वेषणों से ही आयुर्विज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ।

पीड़ा होने के कारणों के संबंध में लोगों की निम्नलिखित धारणाएँ थीं :

(1) शत्रु द्वारा मूठ (जादू, टोना) का प्रयोग या भूत पिशाचादि का शरीर में प्रवेश।

(2) अकस्मात् विषाक्त पदार्थ खा जाना अथवा शत्रु द्वारा जान बूझकर मारक विष का प्रयोग।

(3) स्पर्श द्वारा किसी पीड़ित से पीड़ा का संक्रमण।

(4) इंद्रियविशेष का तत्सदृश अथवा तन्नामधारी वस्तु के प्रति आकर्षण या सहानुभूति।

(5) किन्हीं क्रियाओं, पदार्थों अथवा मनुष्यों में विद्यमान रोगोत्पादक शक्ति।

इन्हीं सामान्य विचारों को भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से अनेक देशों में दर्शाया।

उस समय चिकित्सा त्राटक (योग की एक मुद्रा), प्रयोग अथवा अनुभव के आधार पर होती थी, जिसके अंतर्गत शीतल एवं उष्ण पदार्थों का सेवन, रक्तनि:सारण, स्नान, आचूषण तथा स्नेहमर्दन आदि आते थे। पाषाणयुग से ही वेधनक्रिया सदृश विस्मयकारी शल्यक्रियाएँ प्रचलित थीं। निर्मित भेषजों में वमनकारी और विरेचनकारी योगों तथा भूत पिशाचादि के निस्सारण के लिए तीव्र यातनादायक द्रव्यों का उपयोग होता था। इस प्रकार आदिम आयुर्विज्ञान तत्कालीन संस्कृति पर आधारित था, किंतु विभिन्न देशों में संस्कृतियाँ स्वयं विभिन थीं।

भारतीय आयुर्विज्ञान

यह अत्यंत प्राचीन समय में भी समुन्नत दशा में था। आज भी इसका कुलश रूप से प्रयोग होता है। आयुर्विज्ञान के उद्गम वेद हैं (समय के लिए द्र. वेद)। वेदों में, विशेषत: अथर्ववेद में, शरीरविज्ञान, औषधिविज्ञान, चिकित्साविज्ञान, कीटाणुविज्ञान, शल्यविज्ञान आदि की ऋचाएँ उपलब्ध हैं। चरक एवं सुश्रुत (सुश्रुत के लैटिन आनुवादक हेसलर के अनुसार समय लगभग 1,000 वर्ष ई.पू.) में इसके पृथक्-पृथक् शल्य एवं कायचिकित्सा के रूप में, दो भेद हो गए हैं। सुश्रुत शल्यचिकित्सा-प्रधान एवं कायचिकित्सा में गौण तथा चरक कायचिकित्सा में प्रधान एवं शल्यचिकित्सा में गौण माने जाते हैं। पाँच भौतिक तत्वों (क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर) के आधार पर वात, पित्त, कफ इन तीनों को रोगोत्पादक कारण माना है। कहा गया कि शरीर में इनकी विषमता ही रोग है एवं समता आरोग्य। अत: विषम दोषों को सम करने के उपाय को चिकित्सा कहते थे। इसके आठ अंग माने गए : काय, शल्य, शालाक्य, बाल, ग्रह, विष, रसायन एवं बाजीकरण। निदान में दोषों के साथ ही साथ कीटाणु संक्रमण को भी रोगों का कारण माना गया था। प्रसंग, गात्रसंस्पर्श, सहभोज, सहशय्यासन, माल्यधारण, गंधानुलेपन आदि के द्वारा प्रतिश्याय (जुकाम), यक्ष्मादि रोगों के एक व्यक्ति से दूसरे में संक्रमण का निर्देश सुश्रुत में है। उसमें प्रथम निदान पर, तत्पश्चात् चिकित्सा पर भी जोर दिया गया है।

त्रिदोषों के संचय, प्रकोप, प्रसार, स्थान, संस्रय (मेल), व्यक्ति ओर भेद के अनुसार रोगों की चिकित्सा का निर्देश किया गया है। अनुचित बाह्य पदार्थों के प्रयोग से शरीर में दोषों का संचय न हो, इस विचार से भोजन—निर्माण--काल में ही, अथवा भोजन करने के समय ही, भोज्य पदार्थों में उनके वृद्धिनिवारक भेषजतत्वों का प्रयोग किया जाय, जैसे बैंगन की भाजी बनाते समय हींग एवं मेथी का प्रयोग और ककड़ी के सेवनकाल के पूर्व उसमें काली मिर्च एवं लवण का योग आदि, क्योंकि विश्वास था कि हींग, मिर्च आदि के साथ बैंगन और ककड़ी के शरीर में प्रवेश करने पर इन भाजियों से उत्पन्न दोषों का अवरोध हो जाता है। यह प्रथम चिकित्सालय समझा जाता था। संचय के अवरोध के लिए पहले से ही उपाय न करने पर दोषों का प्रकोप माना जाता था। इस अवस्था में भी चिकित्सा न हो तो उनका प्रसार होना माना गया। सिद्धांत यह था कि फिर भी यदि चिकित्सा न की जाय तो दोष घर कर लेते हैं। इसके पश्चात् विशिष्ट दोषों से विशिष्ट स्थानों में विभिन्न लक्षणों की उत्पत्ति होती है। तत्पश्चात् भी चिकित्सा में अवहेलना से रोग गंभीर होता है और असाध्य कोटि का हो जाता है। अत: परिवर्जन (परहेज) मुख्यत: प्रारंभिक चिकित्सा मानी गई। आयुर्वेद में निदान चिकित्सा का प्रारंभिक अंग है। देश की विशालता एवं जलवायु की विषमता होने से यहाँ औषधविज्ञान का भी बड़ा विकास हुआ। अत: एक ही प्रकार के ज्वर के लिए भिन्न-भिन्न औषधियों के प्रयोग निर्णीत किए गए। इसी से निघंटु में औषधियों की बहुलता एवं भेषज-निर्माण-ग्रंथों में प्रयोग की बहुलता दृष्टिगोचर होती है। रक्तपरिभ्रमण, श्वसन, पाचन आदि शारीरिक क्रियाओं का ज्ञान भारत में हजारों वर्ष पूर्व ही हो गया था। शल्यचिकित्सा में यह देश प्रधान था। प्राय: सभी अवयवों की चिकित्सा शल्य और शालाक्य (चीर फाड़) द्वारा होती थी। प्लास्टिक सर्जरी, शिरावेध, सूचीवेध आदि सभी सूक्ष्म कार्य होते थे। बाल को खड़ा चीर सकनेवाले शस्त्र थे। अस्थियों का स्थानभ्रंश, क्षति आदि का भिन्न-भिन्न भग्नास्थिबंधों (स्प्लिंट्स) द्वारा उपचार होता था। अत: भारतीय आयुर्विज्ञान अपने समय में सर्वगुणसंपन्न था।

ईजिप्ट का आयुर्विज्ञान

यह अति प्राचीनकाल के परंपरागत अभ्यासों तथा इंद्रजाल पर अवलंबित था। इसके चिकित्सक मंदिरों के पुरोहित या कुछ अभ्यस्त व्यक्ति ही होते थे। ये स्वास्थ्यविज्ञान, आहारनियम, विरेचन, वस्तिकर्म आदि पर ध्यान देते थे, परंतु ये पर्याप्त सफल नहीं हुए। अनुलेप, प्रलेप तथा अंतग्राह्म भेषजों का भी प्रयोग होता था। मधु, क्षार, देवदारुतैल, अंजीरत्वचा, तूतिया, फिटकरी तथा प्राणियों के यकृत, हृदय, रक्त और सींग आदि का प्रयोग होता था। इन सबसे अच्छे चिकित्सकों के उत्पन्न होने में भी प्रगति हुई। इम्होटेप (समय खृष्टाब्द के 3,000 वर्ष पूर्व) राजा जोसर का राजवैद्य था और ईश्वरतुल्य पूजा जाता था। उसके नाम से मंदिर भी बने हैं। ईजिप्ट के प्राचीन लेखों (पैपिराई) में आयुर्विज्ञान के क्षेत्र में शरीरविज्ञान और शल्यविज्ञान का यत्किंचित् उल्लेख है।

मेसोपोटैमिया का आयुर्विज्ञान

इसमें यकृत शरीर का प्रधान अंग माना जाता था और इसकी स्थिति से फलानुमान किया जाता था। शरीर में प्रेतादि का प्रकोप रोग का मुख्य कारण या व्याधिशास्त्र का आधार समझा जाता था तथा प्रेतादिकों का नि:सरण, पूजा पाठ आदि उनके उपचार थे। शल्यचिकित्सा श्रेष्ठ मानी जाती थी। अत: शरीरविज्ञान का ज्ञान भी आवश्यक समझा जाता था। औषधिक्षेत्र में सैकड़ों खनिज एवं जीवजात भेषजों का उपयोग भी होता था। तारपीन, देवदारु, हिंगु, सरसों, लोबान, एरंड, तैल, खसखस, अंजीर तथा कुछ विषैली वनस्पतियों का भी प्रयोग होता था।

प्राचीन आयुर्विज्ञान

एक प्रकार से उस वैज्ञानिक आयुर्विज्ञान की उत्पत्ति ग्रीस से हुई जिससे आधुनिक पाश्चात्य आयुर्विज्ञान निकला। ईसा से 500 वर्ष पूर्व से लेकर रोम राज्य के उत्थान तक यह इसी देश में सीमित था; इसके पश्चात् इसका विकास मध्य एशिया, एथेंस, इटली आदि ग्रीस के अधिराज्यों में भी हुआ। इसमें तत्कालीन सभी प्रचलित पद्धतियाँ सम्मिलित थीं। प्राचीन क्रीट, मेसोपोटैमिया, ईजिप्ट, पर्शिया तथा भारत की चिकित्सापद्धतियों के सिद्धांत इसमें समाविष्ट थे। अत: एक सम्मिलित वैज्ञानिक आयुर्विज्ञान का प्रादुर्भाव यहाँ से हुआ। ईसा के लगभग 400 वर्ष पूर्व ग्रीस देश के हिपोक्रेटीज़ ने इसके विकास में योग दिया। हिपोक्रेटीज़ ने वैद्यों के लिए जिस शपथ का निर्देश किया था वह प्रभावशाली थी, यथा-""मैं आयुर्विज्ञान के गुरुजनों का अपने पूज्य गृहजनों के समान सादर करूँगा। उनकी आवश्यकताओं पर उपस्थित रहूँगा। उनकी संतति में भ्रातृभाव रखूँगा और यदि वे चाहेंगे तो उन्हें यह विज्ञान सिखाऊँगा तथा इस विज्ञान के विकास के लिए सतत प्रयत्नशील रहूँगा। रोगियों की भलाई के लिए औषधिप्रयोग करूँगा, किसी के घात अथवा गर्भपात के लिए नहीं। रुग्णों की गुप्त बातों तथा व्यवहारों को गुप्त रखूँगा इत्यादि।""

हिपोक्रेटीज़ का शिरोव्रण नामक ग्रंथ उल्लेखनीय है। उसमें शिरोभेद का उल्लेख तथा शिरोस्थिभंग का उपचार तथा अन्य अवयवों का शल्योपचार भी पाया जाता है। उस काल में अन्य अस्थिभंग तथा अस्थिभ्रंश के भी सफल उपचार होते थे।

उस काल में किसी विशेष रोग के विशेषज्ञ नहीं होते थे। सभी सब प्रकार के रोगियों को देखते थे। जहाँ शल्यचिकित्सा संभव नहीं होती थी वहाँ वे शरीर को पुष्ट रखने का उपाय करते थे, क्योंकि उनका विश्वास था कि शरीर में स्वयं व्रणरोधक शक्ति है। इसके अतिरिक्त रोगी की बाह्य चिकित्सा, सेवा शुश्रुषा आदि का भी उल्लेख पाया जाता है। हिपोक्रेटीज़ की "सूत्र" नामक पुस्तक भी बड़ी सफल हुई। इस पुस्तक में दर्शाए कुछ विचार निम्नलिखित हैं :

(1) वृद्धावस्था में उपवास का सहन सरल होता है।

(2) अकारण थकावट रोग की द्योतक है।

(3) उत्तम भोजन के पश्चात् शरीर का शुष्क रहना व्याधि निर्देशित करता है।

(4) वृद्धावस्था में व्याधियाँ कम होती हैं, परंतु यदि कोई व्याधि दीर्घकाल तक रह जाती है ता असाध्य ही हो जाती है।

(5) घाव के साथ आक्षेपक (शरीर में ऐंठन) होना अच्छा लक्षण नहीं है।

(6) क्षय लगभग 18 से 35 वर्ष की आयु के बीच होता है।

इस तरह के इनके कई उल्लेख आज भी अकाट्य हैं। हिपोक्रेटीज़ ने निदानविज्ञान एवं रोगों के भावी परिणाम विषयक ज्ञान का भी विकास किया।

अरस्तू (अरिस्टौटिल) (384-322 ई.पू.) ने प्राणिशास्त्र को महत्त्व देते हुए आयुर्विज्ञान के विषय में अपने वक्तव्य में कहा कि उष्ण एवं शीत, आर्द्र एवं शुष्क ये चार प्रारंभिक गुण हैं। इनके भिन्न-भिन्न मात्राओं में संयोग से चार पदार्थों का निर्माण हुआ जिन्हें तत्त्व कहते हैं। ये तत्त्व पृथ्वी, वायु, अग्नि एवं जल हैं। इस विचार का हिपोक्रेटीज़ के आयुर्विज्ञान से समन्वय कर इन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि शरीर मुख्य चार द्रवों (ह्यमर्स) से निर्मित है, जिन्हें रक्त, कफ, कृष्ण पित्त (ब्लैक बाइल) एँव पीत पित्त (यलो बाइल) कहते हैं और इन्हीं द्रवों में आरोग्यावस्था के अनुपात से भिन्नता रोगोत्पादक होती है। इस तरह द्रव-व्याधि-शास्त्र (ह्यमरल पैथॉलॉजी) का उदय हुआ। भारत के प्राचीन त्रिदोषसिद्धांत से यह इतना मिलता जुलता है कि प्रश्न उठता है कि क्या यह ज्ञान ग्रीस में भारत से पहुँचा। कई पाश्चात्य तथा भारतीय विद्वानों का मत है कि अवश्य ही यह ज्ञान वहाँ भारत से गया होगा (कारणों तथा पूरे ब्योरे के लिए द्र. महेंद्रनाथ शास्त्री कृत "आयुर्वेद का संक्षिप्त इतिहास")।

अरिस्टौटिल की मृत्यु के पश्चात् उसी के देश के हिरोफिलस तथ एरासिसट्राटस (समय लगभग 300 वर्ष ई.पू.) ने अपने नए संघ का निर्माण किया जिसे ऐलेक्ज़ैड्रियन संप्रदाय कहते हैं। हिरोफिलस ने नाड़ी, धमनी एवं शिराओं के गुणों का वर्णन कर शरीरशास्त्र को जन्म दिया। इसीलिए वह शरीरशास्त्र का जनक माना गया। एरासिसट्राटस ने श्वसन क्रिया का अध्ययन कर प्रथम बार वायु एवं शरीर में संबंध स्थापित करने का प्रस्ताव किया। उसका मत था कि वायु में एक अदृष्ट शक्ति है, जो शक्ति एवं कंपन स्थापित करती है। इसने यह भी कहा कि अवयवों का निर्माण नाड़ी, धमनी तथा शिरा से है, जो विभाजित होते-होते अत्यंत सूक्ष्म हो जाती हैं। मस्तिष्क का भी अध्ययन कर इसने इसके विभिन्न भागों को दर्शाया। रक्त की अधिकता को कई व्याधियों, जैसे मिर्गी, न्यूमोनिया, रक्तवमन इत्यादि, का कारण बताया एवं इनके शमन के हेतु नियमित व्यायाम, पथ्य, वाष्पस्नानादि विहित किए।

रोम राज्य के अंतर्गत आयुर्विज्ञान-ग्रीस के विज्ञान तथा संस्कृति के विकास के समय आयुर्विज्ञान के विकास का भी आरंभ हुआ, किंतु दीर्घकाल तक यह सुषुप्त रहा। ग्रीक ऐक्स्लेपियाडीज़ ने 40 वर्ष ईसा से पूर्व हिपोक्रेटीज़ के प्रकृति पर भरोसा करनेवाले उपचार का खंडन कर शीघ्र प्रभावकारी का अनुमोदन किया। शनै:-शनै: इसका विकास होता गया तथा डियोस्कोरिडीज़ ने एक आयुर्वेज्ञानिक निघंटु की रचना की।

सन् 30 ई. में सेल्सस् ने पुन: आयुर्विज्ञान को सुसंगठित किया। उसने स्वच्छता (सैनिटेशन) तथा जनस्वास्थ्य का भी विकास किया। औषधालयपद्धति का आरंभ रोम से हुआ, किंतु दीर्घकाल तक यह प्रयोग सेना तक ही सीमित रहा; पीछे जनसाधारण को भी यह सुविधा उपलब्ध हुई।

गैलन (130-200) ने अपने वक्तव्य में दर्शाया कि मुख्यत: तीन शक्तियों का जीवन से घनिष्ठ संबंध है :

(1) प्राकृतिक शक्ति (नैचुरल स्पिरिट), जो यकृत में निर्मित होकर शिराओं द्वारा शरीर में विस्तारित होती है।

(2) दैवी शक्ति (वाइटल स्पिरिट), जो हृदय में बनकर धमनियों द्वारा प्रसारित होती है।

(3) पाशव शक्ति (ऐनिमल स्पिरिट), जो मस्तिष्क में बनकर नाड़ियों द्वारा प्रसारित होती है। गैलन ने कहा कि पाशव शक्ति का संबंध स्पर्श का कार्यसंचालन से है। प्राकृतिक शक्ति हृदय में और दैवी शक्ति मस्तिष्क में पाशव शक्ति में परिणत हो जाती है।

भेषजशास्त्र की उन्नति में भी गैलन ने बड़ा योग दिया, किंतु इसकी मृत्यु के पश्चात् इसके प्रयासों को प्रोत्साहन न मिल सका।

आधुनिक आयुर्विज्ञान

डॉ विल्लेम वान दर मीर का शरीररचना विज्ञान का पाठ (डच पेंटर द्वारा १६१७ में चित्रित)

16वीं शताब्दी में क्षेत्रविस्तार तथा उच्च कोटि की उपलब्ध सुविधाओं द्वारा आयुर्विज्ञान में नवीन स्फूर्ति प्रस्फुटित हुई। संक्रामक व्याधियों की अधिकता से इनकी ओर भी ध्यान आकर्षित हुआ। एँड्रियस विसेलियस (1514-1564 ई.) में पैडुआ में शरीरशास्त्र का पुन: आरंभ से अध्ययन किया। तदुपरांत पैडुआ नगर शिक्षा का उत्तम केंद्र बन गया। शरीरशास्त्र के विकास में शल्यचिकित्सा को भी प्रोत्साहन मिला। इस क्षेत्र में फ्रांस के शल्यचिकित्सक आंब्राज पारे (1517-90 ई.) के कार्य उल्लेखनीय हैं : परंतु इस काल में शरीर-क्रिया-विज्ञान में विकास न होने से भेषजचिकित्सा उन्नति न कर सकी। रोग--निदान--शास्त्र में 16वीं एवं 17वीं शताब्दी में सराहनीय कार्य हुए, परंतु इसमें हिपोक्रेटीज़ तथा गैलस की कृतियों से बराबर सहायता ली जाती थी। पृथ्वी के अज्ञात भागों की खोज के बाद औषधि क्षेत्र में भी विकास हुआ, क्योंकि कई नई औषधियाँ प्राप्त हुईं, जैसे कुड़की (इपिकाकुआन्हा), कुनैन और तंबाकू। वनस्पति शास्त्र का भी विस्तार हुआ। संक्रामक रोगों के विषय में अधिक जानकारी हुई। सन् 1546 ई. में वेरोना के फ्राकास्टोरो ने रोगाक्रमणों पर प्रभाव डाला। इन प्रयत्नों के फलस्वरूप कीटाणुजगत् के विषय का भी आभास हुआ। उपदंश, मोतीझरा, कुकरखाँसी, आमवात, गठिया और खसरा आदि रोगों पर प्रकाश डाला जा सका। 15वीं शताब्दी में उपदंश महामारी के रूप में फैला और इस रोग के संबंध में अनुसंधान हुए, किंतु अनेक भिन्न मत होने से कोई निश्चित अनुमान नहीं लगाया जा सका।

शरीर-क्रिया-विज्ञान का विकासकाल

16वीं तथा 17वीं शताब्दियों में शरीर-क्रिया-विज्ञान, भौतिकी तथा चिकित्साविज्ञान का विकास समांतर रीति से हुआ। इसी समय पैडुआ (इटली) के सेक्टोरियस (सन् 1561-1636) ने शरीर की ताप-संतुलन-क्रिया को समझाते हुए तापमापी यंत्र की रचना की और उपापचय (मेटाबॉलिज़्म) की नींव डाली। पैडुआ के शिक्षक जेरोम फाब्रिशियस (सन् 1537-1619) ने भ्रूणविज्ञान एवं रक्तसंचरण पर कार्य किया। तदुपरांत उसके शिष्य हार्वी (सन् 1578-1657) ने इन परिणामों का अध्ययन कर आयुर्विज्ञानजगत् की बड़ी समृद्धि की। उसी ने रुधिरपरिवहन का पता लगाया, जो आधुनिक आयुर्विज्ञान का आधार है। इसीकाल में शरीरशास्त्र तथा शरीर-क्रिया-विज्ञान का आधुनिक रूप प्राप्त हुआ। सूक्ष्मदर्शक यंत्र (माइक्रॉस्कोप) के आविष्कार ने भी कई कठिनाइयों को हल करने में सहायता दी तथा कई भ्रम दूर किए। 17वीं शताब्दी के इस यंत्र के कारण कई बातों का पता चला।

शरीररसायन

राबर्ट बाएल (सन् 1627-91) ने प्राचीन आधारहीन धारणाओं को नष्ट कर आयुर्विज्ञान को आधुनिक रूपरेखा दी। 1662 ई. में रेने डेकार्ट ने शरीर-क्रिया-विज्ञान पर डिहोमीन नामक प्रथम पाट्यपुस्तक रची। क्षार पर लाइडेन (निदरलैंड) के सिलवियस (सन् 1614-72) का कार्य भी बहुत सराहनीय रहा। इन्होंने सर्वप्रथम वैज्ञानिक तरीकों से पाचक रसों का विश्लेषण किया। हरमान बूरहावे (सन् 1688-1738) ने 18वीं शताब्दी में शरीररसायन पर उल्लेखनीय कार्य किया। बूरहावे को उस समय आयुर्विज्ञान में सर्वोच्च पद प्राप्त था। इन्होंने प्रयोगशालाओं का निर्माण किया तथा प्रायोगिक शिक्षा की ओर ध्यान आकर्षित किया। उचित रूप की वैज्ञानिक शालाओं को जन्म देने में इनका बड़ा सहयोग था। इन्होंने एडिनबरा के आयुर्विज्ञान विद्यालय को जन्म दिया। स्विट्ज़रलैंड के अलब्रेख्ट फोन हालर (सन् 1708-77) ने श्वसनक्रिया, अस्थि--निर्माण--क्रिया, भ्रूणवृद्धि तथा पाचनक्रिया, मांसपेशियों के कार्य एवं नाड़ीतंतुओं का सूक्ष्म अध्ययन किया। इन सबका वर्णन इन्होंने अपनी ""शरीर--क्रिया--विज्ञान के तत्व"" नामक पुस्तक में किया। पाचन क्रिया एवं भोजन के जारण की क्रिया पर सिलवियस के पश्चात् फ्रेंच वैज्ञानिक रेओम्यूर (सन् 1683-1757), इटली के स्पालानज़ानी (सन् 1729-99) तथा इंग्लैंडवासी प्राउट (सन् 1785-1850) का कार्य सराहनीय है। प्राणिविद्युत के क्षेत्र में इटालियन गैलवैनी (सन् 1737-98), स्कॉटलैंड निवासी ब्लैक (सन् 1728-99) एवं अंग्रेज प्रीस्टले (सन् 1733-1804) ने कार्य किया। 1791 ई. में गैलवैनी ने दिखाया कि विद्युद्धारा से मांसपेशियों में संकोच होता है। 18वीं शताब्दी में रसायनशास्त्र के विस्तार के साथ-साथ शरीररसायन भी प्रगति कर सका। ऑक्सीजन का आविष्कार तथा प्रणियों से उसका संबंध फ्रांस के रासायनिक लेवाज्ये (सन् 1743-94) ने स्थापित किया।

विकृत शरीर एवं निदानशास्त्र

18वीं शताब्दी के आरंभ में कुछ मरणोत्तर शवपरीक्षाओं द्वारा शरीरों का अध्ययन हुआ। व्याधि संबंधी ज्ञान में आशातीत उन्नति हुई। अवयवों का सूक्ष्म निरीक्षण कर इनका व्याधि से संबंध स्थापित किया। पैडुआ (इटली) में 56 वर्ष तक अध्यापन करनेवाले मोरगान्थि (सन् 1682-1771) का कार्य इस क्षेत्र में सर्वोच्च रहा।

निदान के लिए इस युग में नाड़ीपरीक्षा को महत्त्व दिया गया एवं तापमापक यंत्र की भी रचना की गई। वियना में थियोपोल्ड औएनबूज़र (सन् 1722 से 1870) ने अभिताडन (परकशन) विधि तथा आर.टी.एच. लेनेक (सन् 1781-1826) ने संश्रवणक्रिया (ऑस्कुलेशन) का आविष्कार 18वीं शताब्दी के अंत में किया। लेनेक ने 1819 ई. में प्रथम उरश्श्रवणयंत्र (स्टिथस्कोप) की रचना कर निदानशास्त्र को सुसज्जित किया।

इसी युग से निदान में रोगियों का अवलोकन, स्पर्श, अभिताडन तथा अवयवों के श्रवण आदि क्रियाओं का प्रचार हुआ। इस अध्ययन के पश्चात् भेषजशास्त्र तथा शल्यचिकित्सा में बड़ा विकास हुआ।

शल्य तथा स्त्री-रोग-चिकित्सा

18वीं शताब्दी में स्वस्थ तथा व्याधिकीय शरीर--रचना--विज्ञान के विकास ने इस शल्यचिकित्सा की उन्नति में भी अधिक योग दिया। कई शल्ययंत्रों का निर्माण हुआ। प्रसूति में चिकित्सक विलियम हंटर (सन् 1718-83) ने प्रथम बार संदंशिका (फ़ॉरसेप्स) का उपयोग किया। इनके भाई जान हंटर ने इस क्षेत्र में अन्य सराहनीय कार्य किए और आयुर्विज्ञान के संग्रहालयों का निर्माण कर उनका महत्त्व दर्शाया। सर विलियम पेटी (सन् 1623-87) द्वारा आयुर्विज्ञान के अन्वेषणों को दर्शित करने का नवीन मार्ग बताया गया और जन्म, मृत्यु तथा विविध रोगों से पीड़ितों की संख्याओं का पता लगाया गया। इसे जीवनांक (वाइटल स्टैटिस्टिक्स) नाम दिया गया। इसी काल से जीवन और मरण का ब्योरा बनाया जाने लगा। इस तरह के अध्ययन ने व्याधिरोधक कार्यों की सफलता पर बहुत प्रकाश डाला। सर्वप्रथम इस कार्य का प्रारंभ इंग्लैंड में बंदियों से हुआ; तदुपरांत जब इसकी महत्ता का ज्ञान हुआ, तब इसका विस्तार जनसाधारण में भी हो सका। सर जान पिं्रगिल (सन् 1707-82) एवं जेम्स लिंड (सन् 1716-94) ने मोतोझिरा तथा उष्ण देशों में होनेवाली व्याधियों का अध्ययन किया।

जनस्वास्थ्य में सुधार

विज्ञान एँव संस्कृति की उन्नति के साथ-साथ यंत्रयुग में कारखानों तथा श्रमिकों के विकास से श्रमिकों के स्वास्थ्य पर भी ध्यान दिया जाने लगा और मलेरिया (जूड़ी) आदि कई व्याधियों से छुटकारा पाने के उपाय खोज निकाले गए।

इंग्लैंड में सन् 1762 ई. में जो विधान बने उनके कारण बड़े नगरों में स्वच्छता आदि पर पर्याप्त ध्यान दिया जाने लगा।

औषधालयों का विकास

चिकित्सा की आवश्यकताओं के कारण वैज्ञानिक रूप से स्वच्छता पर ध्यान रखते हुए उत्तम अस्पतालों का निर्माण 18वीं शताब्दी के मध्य से होना आरंभ हुआ। परिचारिकाओं की व्यवस्था से भी अस्पताल बहुत जनप्रिय बन गए और विशेष उन्नति कर सके।

रोगप्रतिरोध के लिए टीके का विकास

यह कार्य 18वीं शताब्दी से आरंभ हुआ। सर्वप्रथम 1796 ई. में ऐडवर्ड जेनर ने चेचक की बीमारी का अध्ययन कर उसके प्रतिरोध के हेतु टीके का आविष्कार किया। धार्मिक एवं अन्य बाधाओं के कारण कुछ समय तक इसका प्रचार न हो सका, किंतु इसके पश्चात् टीके की व्याधिरोधक शक्ति पर ध्यान गया और धीरे-धीरे टीका लगवाने की प्रथा बढ़ी। फ्रांस के लुई पाश्चर (सन् 1822-95), लार्ड लिस्टर (सन् 1827-1912), राबर्ट कोख (सन् 1843-1910), एमिल फान बेरिंग (सन् 1854-1917) आदि वैज्ञानिकों का कार्य इस क्षेत्र में सराहनीय रहा।

19वीं तथा 20वीं शताब्दी में शरीरविज्ञान के सूक्ष्म अध्ययन की प्रेरणा मिली तथा तंतुओं की रचना पर भी प्रकाश डाला गया।

जर्मनों ने 19वीं शताब्दी में शरीर-क्रिया-विज्ञान के क्षेत्र में कई उल्लेखनीय कार्य किए। फ्रांस ने भी इस कार्य में सहयोग दिया। इस देश के विद्वान् क्लाड बरनार्ड (सन् 1813-78) के कार्य इस क्षेत्र में सराहनीय रहे। उसने शरीर को एक यंत्र मानकर उसके विभिन्न अवयवों के कार्यों का, जैसे यकृत के कार्यों तथा रक्तसंचालन एवं पाचनक्रिया संबंधी कार्यों का, सूक्ष्म अन्वेषण किया। इसी क्षेत्र में मुलर (सन् 1801-58) ने एक पाठ्यपुस्तक की रचना की, जिससे इस शास्त्र की उन्नति में बहुत सहायता मिली।

फान लीविंग (सन् 1803-73) ने शरीररसायन में आविष्कार किए। उनकी खोजों में यूरिया को पहचानने तथा मापन की विधि, पदार्थ की परिभाषा, जारणक्रिया तथा उससे उत्पन्न ताप, नेत्रजनचक्र आदि प्रमुख हैं।

1840 ई. में शरीर की कोशिकाओं (सेल्स) का पता चला। जीवद्रव्य (प्रोटोप्लाज्म) पर भी बहुत खोज हुई। रूडोल्फ फिर्शो (सन् 1821-1902) ने रक्त के श्वेत कणों के कार्यों पर प्रकाश डाला। इसने कैंसर आदि व्याधियों के संबंध में भी बहुत अन्वेषण किए।

कीटाणु तथा व्याधि

19वीं शताब्दी के प्रारंभ में यह आभास हुआ कि कुछ व्याधियाँ कीटाणुओं के आक्रमणों से संबंध रखती हैं। फ्रांस के लुई पास्चर (सन् 1822-95) ने इसकी पुष्टि के हेतु कई उल्लेखनीय प्रयोग किए। राबर्ट कोख (सन् 1843-1910) ने कीटाणुशास्त्र को अस्तित्व देकर इस क्षेत्र में बड़ा कार्य किया। यक्ष्मा, हैजा आद के कीटाणुओं का अन्वेषण किया तथा अनेक प्रकार के कीटाणुओं को पालने की विधियों तथा उनके गुणों का अध्ययन किया। भारत की इंडियन मेडिकल सर्विस के सर रोलाल्ड रॉस (सन् 1857-1932) ने मलेरिया पर सराहनीय कार्य किया। इस रोग के कीटाणुओं के जीवनचक्र का ज्ञान प्राप्त किया तथा उसके विस्तारक ऐनोफेलीज़ मच्छर का अध्ययन किया। सन् 1893 में अत्यंत सूक्ष्म विषाणुओं (वाइरस) का ज्ञान हुआ। तदुपरांत इस क्षेत्र में भी आशातीत उन्नति हुई। विषाणुओं से उत्पन्न अनेक व्याधियों, उनके लक्षणों और उनकी रोकथाम के उपायों का पता लगाया गया तथा इन रोगों का सामना करनेवाली शारीरिक शक्ति की रीति भी खोजी गई। फान बेरिंग (सन् 1854-1917) का कार्य इस क्षेत्र में सराहनीय रहा।

गत पचीस वर्षों में जीवाणुद्वेषी द्रव्यों (ऐंटीबायोटिक्स), जैसे सल्फ़ानिलैमाइड, सल्फ़ाथायाज़ोल इत्यादि तथा पेनिसिलिन, स्ट्रेप्टोमाइसिन आदि से फुफ्फुसार्ति (निमोनिया), रक्तपूतिता (सेप्टिसीमिया), क्षय (थाइसिस) आदि भयंकर रोगों पर भी नियंत्रण शक्य हो गया है।

उपसंहार

आयुर्विज्ञान के इतिहास के अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि इसका प्रादुर्भाव अति प्राचीन है। निरंतर मनुष्य व्याधियों तथा उनसे मुक्त होने के उपायों पर विचार तथा अन्वेषण करता आया है। विज्ञान एवं उसकी विभिन्न शाखाओं के विकास के साथ-साथ आयुर्विज्ञान भी अपनी दिशा में द्रुत गति से आगे की ओर बढ़ता चल रहा है।

चिकित्सा विज्ञान की खोजें

स्रोत
रनिंग प्रेस साइक्लोपीडिया (Running Press Cyclopedia), द्वितीय संस्करण

टिप्पणी

  1. Stone age man used dentist drill Archived 2009-04-22 at the वेबैक मशीन. BBC News.
  2. Hopkins, page 140
  3. Finger, Stanley (1994). Origins of Neuroscience: A History of Explorations Into Brain Function. Oxford University Press. पृ॰ 70. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0195146948.
  4. Zafarul-Islam Khan, At The Threshhold (sic) Of A New Millennium – II Archived 2017-03-24 at the वेबैक मशीन, The Milli Gazette.
  5. Khaled al-Hadidi (1978), "The Role of Muslem Scholars in Oto-rhino-Laryngology", The Egyptian Journal of O.R.L. 4 (1), p. 1-15. (cf. Ear, Nose and Throat Medical Practice in Muslim Heritage Archived 2011-10-01 at the वेबैक मशीन, Foundation for Science Technology and Civilization.)
  6. Ingrid Hehmeyer and Aliya Khan (2007). "Islam's forgotten contributions to medical science", Canadian Medical Association Journal 176 (10).
  7. A. I. Makki. "Needles & Pins", AlShindagah 68, January–February 2006.
  8. Robert Briffault (1938). The Making of Humanity, p. 191.
  9. Sigrid Hunke (1969), Allah Sonne Uber Abendland, Unser Arabische Erbe, Second Edition, p. 279-280 (cf. Prof. Dr. M. Taha Jasser, Anaesthesia in Islamic medicine and its influence on Western civilization Archived 2010-11-26 at the वेबैक मशीन, Conference on Islamic Medicine)

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