आदर्शोन्मुख यथार्थवाद
Q1. प्रेमचंद के आदर्शवादी प्रगतिशीलि विचारों की व्याख्या अपने शब्द न मै करे?
Ans आदर्शोन्मुख यथार्थवाद (Idealistic Realism) आदर्शवाद तथा यथार्थवाद का समन्वय करने वाली
विचारधारा है। आदर्शवाद और यथार्थवाद बीसवीं शती के साहित्य की दो प्रमुख विचार धाराएँ थीं। आदर्शवाद में सत्य की अवहेलना या उस पर विजय प्राप्त कर के आदर्शवाद की स्थापना की जाती थी। जबकि यथार्थवाद में आदर्श का पालन नहीं किया जाता था, या उसका ध्यान नहीं रखा जाता था। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद में यथार्थ का चित्रण करते हुए भी आदर्श की स्थापना पर बल दिया जाता था। इस प्रवृत्ति की ओर प्रथम महत्त्वपूर्ण संकेत प्रेमचन्द का है। उन्होंने कथा साहित्य को यथार्थवादी रखते हुए भी आदर्शोन्मुख बनाने की प्रेरणा दी और स्वतः अपने उपन्यासों और कहनियों में इस प्रवृत्ति को जीवन्त रूप में अंकित किया। उनका उपन्यास प्रेमाश्रम इसी प्रकार की कृति है। पर प्रेमचन्द के बाद इस साहित्यिक विचारधारा का आगे विकास प्रायः नहीं हुआ। इस चिंतन पद्धति को कदाचित कलात्मक स्तर पर कृत्रिम समझकर छोड़ दिया गया।[1]
प्रेमचन्द कला के क्षेत्र में यथार्थवादी होते हुए भी सन्देश की दृष्टि से आदर्शवादी हँ। आदर्श प्रतिष्ठा करना उनके सभी उपन्यासों का लक्ष्य हॅ। ऐसा करने में चाहे चरित्र की स्वाभाविकता नष्ट हो जाय, किन्तु वह अपने सभी पात्रों को आदर्श तक पहुँचाते अवश्य है। प्रेमचन्द की कला का चरमोत्कर्ष उनके अन्तिम उपन्यास गोदान में दिखाई पड़ता हॅ। "गोदान" लिखने से पहले प्रेमचन्द आदर्शोन्मुख यथार्थवादी थे, परन्तु "गोदान" में उनका आदर्शोन्मुख यथार्थवाद जवाब दे गया है।[2] प्रेमचंद इस विचारधारा के प्रमुख लेखक थे।
सन्दर्भ
- ↑ चतुर्वेदी, राम स्वरूप (जुलाई १९८६). हिन्दी साहित्य कोश भाग-२. वाराणसी: ज्ञानमंडल लिमिटेड,. पृ॰ ८३.
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दिए जाने पर|url= भी दिया जाना चाहिए
(मदद)सीएस1 रखरखाव: फालतू चिह्न (link) - ↑ अवस्थी, डॉ॰ मोहन (१९८३). हिन्दी साहित्य का अद्यतन इतिहास. इलाहाबाद, दिल्ली: सरस्वती प्रेस. पृ॰ २०३.
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(मदद)