आचारांग
आचारांगसूत्र जैन धर्म, दर्शन, अध्यात्म, तत्त्वज्ञान और आचार का सारभूत एवं मूल आधार माना गया है। आचार्य भद्रबाहु ने आचारांग के विषय में कहा है -[1]
- एत्थ य मोक्खोवाओ एत्थ य सारो पवयणस्स । - गाथा 9,10/ आचारांग निर्युक्ति
अर्थात् आचारांग में मोक्ष के उपाय ( आचार) का प्रतिपादन किया गया है और यही (मोक्षोपाय/आचार) जिनप्रवचन का सार है । यह मुक्ति महल में प्रवेश करने का भव्य द्वार है। आचारांग के माध्यम से श्रमणधर्म और अध्यात्मका यथार्थ स्वरूप समझा जा सकता है ।
आचारांग का प्रतिपाद्य विषय
आचारांग में मूलतः आचार और अध्यात्म का प्रमुखता से प्रतिपादन है । इसके 'शस्त्रपरिज्ञा' नामक प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में आत्मा का अस्तित्त्व, उसका भवान्तर में गमनागमन और गमनागमन के कारणों की मीमांसा की गयी है । उक्त मीमांसा करते हुए आत्मा के शुद्ध स्वरुप और कर्मबंध के कारणों का निरूपण किया गया है । आचारांग में जगह-जगह यह स्पष्ट किया गया है कि कर्मबंध या मोक्ष का मुख्य आधार बाह्य क्रियाओं पर उतना नहीं है जितना आत्मा कि अंतर-वृत्तियों पर । अतएव अंतर-वृत्तियों के संशोधन पर मुख्य ध्यान देना चाहिए। अहिंसा की आराधना के लिए भी अंतर-वृत्तियों में अहिंसा व्याप्त हो जानी चाहिए । बाहर से अहिंसक रहने पर भी वृत्तियों में हिंसा हो सकती है और वह हिंसा कर्म बंधन का कारण हो जाती है । इसलिए वृत्तियों में अहिंसा, सत्य आदि गुणों को रमाने का प्रयत्न आवश्यक है ।
दूसरे अध्ययन में 'लोकविजय' का वर्णन है । जब तक साधक बाह्य पदार्थों और बाह्य संबंधों में उलझा रहता है तब तक वह आत्मा के साक्षात्कार और उसकी अनुपम विभूति से वंचित रहता है । आत्मदर्शन के लिए बाह्य संसार - धन-धान्य, माता-पिता, स्त्री आदि परिवार - की ममता का परिहार करना आवश्यक होता है । अतएव इस अध्ययन में सांसारिक वस्तुओं से ममता का सम्बन्ध तोड़ लेने का मर्मस्पर्शी उपदेश दिया गया है ।
वस्तुतः त्याग मार्ग में चलते हुए अनेक इष्ट-अनिष्ट संयोगों में से गुज़रना होता है । अतः साधक को उनसे विचलित नहीं होना चाहिए । इसी के लिए तृतीय अध्ययन 'शीतोष्णीय' में सुख-दुःख सहिष्णु बनाने की समभाव रखने की शिक्षा प्रदान की गई है । इष्ट-अनिष्ट में समभाव रखना ही स्थितप्रज्ञता है । इसकी आराधना, साधना का उपयोगी अंग है ।
हमारा साध्य मोक्ष है अतः मोक्ष और मोक्ष के साधनों के प्रति जब तक पर्वत कि भाँति अडोल श्रद्धान नहीं होता तब तक उनकी ओर हार्दिक प्रवृत्ति नहीं होती। अतः श्रद्धा के दीपक को प्रबल झंझावात में भी सुरक्षित रख सकने कि शक्ति साधक में पैदा होनी चाहिए । यह 'सम्यक्त्व' नामक चतुर्थ अध्ययन का निरूपणीय विषय है ।
इसके पाँचवे अध्ययन में चारित्र को लोक का सार (लोकसार) कहा गया है और इसीलिये 'धूत' नामक छठे अध्ययन में कर्म-मैल को धो डालने के उपायों का दिग्दर्शन कराया गया है । इसमें यह भी बताया गया है कि दीक्षा लेने के बाद भी पूर्व संस्कार जागृत होकर साधक को विचलित करने का प्रयास करते हैं, अतः साधक को इस विषय में सावधान रहना चाहिए । उपयोगपूर्वक देह-दमन, अनन्य भक्ति, समभाव आदि कर्म-विनाश के उपाय हैं ।
सप्तम 'विमोह' या 'विमोक्ष' अध्ययन विच्छिन्न हो गया अतः उसके विषय में किसी प्रकार की कल्पना नहीं की जा सकती । 'उपधानश्रुत' नामक आठवें अध्ययन में कुसंग-परित्याग, प्रलोभनविजय, संकल्पबल की सिद्धि, प्रतिज्ञापालन, स्वादनिग्रह तथा समाधिमरण का वर्णन किया गया है ।
नौवें अध्ययन 'महापरिज्ञा' में साधना-जीवन के आदर्श के रूप में स्वयं भगवान् की साधक अवस्था का वर्णन किया गया है । साधना के मार्ग में आने वाले परीषह उपसर्गों में कैसी सहनशीलता रखते हुए संयम कि साधना करनी चाहिए यह बताना ही इस अध्ययन का अभिधेय है ।