अवध के नवाब
भारत के अवध के १८वीं तथा १९वीं सदी में शासकों को अवध के नवाब कहते हैं। अवध के नवाब, इरान के निशापुर के कारागोयुन्लु वंश के थे। नवाब अकबर प्रथम नवाब थे।
स्थापना
अवध का इतिहास अनादिकाल से है। यहाँ के सर्वप्रसिद्ध राजा मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम थे जिनके पूर्वजों ने ही अवध की स्थापना की थी। राम के १२१ पूर्वजों और वंशजो का वर्णन लखनऊ स्थित राजकीय संग्रहालय में सुरक्षित है। यहाँ प्रदर्शित राजकीय चिह्न राम जी के युग के ही हैं। लखनऊ की स्थापना रामजी के अनुज वीरपुरुष श्री लक्ष्मण ने की थी। एक अन्य मान्यता के अनुसार लखनऊ की स्थापना महाराजा लाखन पासी द्वारा की गयी थी जो 11वीऺ शदी के सरदार थे। मुग़ल शक्ति का ह्रास होता गया और शहंशाहों की ज़ोर कम होने लगा। वे धीरे-धीरे पहले अपने जागीरदारों के कठपुतले और अंततः उनके क़ैदी बनते गए, साथ ही साथ अवध और शक्तिशाली व अधिक स्वाधीन होता गया। इसकी राजधानी फ़ैज़ाबाद थी।
मुग़ल साम्राज्य के सभी मुस्लिम प्रांतों और अधीनस्थों में अवध का शाही परिवार सबसे नया था। इनका वंश एक फ़ारसी दिलेर सआदत खान से उपजा था, जो कि मूलतः फ़ारस के ख़ोरासान इलाके से थे। मुग़लों की सेवा में कई ख़ोरासानी थे, अधिकतर सिपाही थे और उनके सफल होने पर काफ़ी दौलतमंद होने की उम्मीद रखी जा सकती थी। इस समूह में सआदत खान सबसे अधिक सफल हुए। १७३२ में उन्हें अवध प्रांत का जागीरदार बना दिया गया। उन्हें पहले पहल नज़ीम का खिताब दिया गया था, जिसका अर्थ होता है राज्यपाल, पर उन्हें जल्द ही नवाब बना दिया गया। १७४० में नवाब को वज़ीर अर्थात् मुख्य मंत्री कहा जाने लगा और इसके बाद उन्हें नवाब वज़ीर के नाम से जाना जाने लगा। व्यावहारिक तौर पर ये उपाधियाँ आनुवंशिक थीं, हालाँकि कागज़ी तौर पर ये मुग़ल बादशाह की ओर से भेंट की तरह थीं और उनके प्रति वफ़ादारी कबूल की जाती थी। हर साल एक नज़र दिल्ली भेजी जाती थी और शाही परिवार के सदस्यों की बड़ी इज़्ज़त होती थी: बल्कि दो तो १८१९ के बाद लखनऊ में ही रहते थे और उन्हें बड़े अदब के पेश आया जाता था।
अंग्रेज़ों की ओर झुकाव
अफ़सोस, कि मुग़लों से बहुत सीमा तक स्वतन्त्रता का अर्थ यह नहीं था कि नवाब जैसे चाहें शासन चला सकें। वास्तव में एक स्वामी का स्थान जगह दूसरे ने ले लिया था। कलकत्ता में आधारित ईस्ट इंडिया कंपनी के रूप में अंग्रेज़ों ने बहुत समय से अवध की दौलत पर आँखें गड़ाई हुई थीं। इस प्रांत में दखलंदाज़ी के बहाने खोजना कोई मुश्किल नहीं था। अवध की दृष्ठि से सबसे अधिक दर्दनाक था शुजाउद्दौला द्वारा बंगाल पर आक्रमण, जिसके बाद उन्होंने कुछ समय तक कलकत्ता पर शासन भी किया था। लेकिन १७५७ में प्लासी तथा १७६४ में बक्सर की लड़ाई में अंग्रेज़ों की जीत के बाद नवाब पूरी तरह मटियामेट हो गए। युद्ध समाप्त होने के बाद अवध ने अपनी काफ़ी ज़मीन खो दी थी। फिर भी सतही तौर पर ही सही, दुश्मन दोस्त बन गए और ब्रिटिश संसद में, संपूर्ण भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रमुख मित्र के तौर पर नवाब वज़ीर के तारीफ़ के पुल बाँधे गए।
कई सालों के दर्मियान नवाब थोड़ा थोड़ा कर के अपनी आज़ादी खोते गए। अंग्रेज़ फ़ौज की सुरक्षा और युद्ध में सहायता का खर्च चुकाने के लिए अवध ने पहले चुनार का किला और फिर बनारस और ग़ाज़ीपुर के जिले और फि इलाहाबाद का किला दे दिया। इस दौरान नवाब द्वारा कंपनी को दिए जाने वाली नकदी सहायता भी बढ़ती ही गई।
१७७३ में नवाब ने लखनऊ में ब्रिटिश रेज़िडेंट स्वीकार करने का आत्मघाती कदम उठाया, इसकी बदौलत विदेश नीति पर सारा नियंत्रण कंपनी का हो गया। जल्दी ही, औपचारिक तौर पर नवाब को इज़्ज़त बख्शने के बावजूद वास्तविक शासक रेज़िडेंट ही हो गया।
नई राजधानी
शुजाउद्दौला के पुत्र आसफ़ुद्दौला १७७५ में राजधानी फ़ैज़ाबाद से लखनऊ ले गए और उन्होंने लखनऊ को भारत के सबसे रईस और चमचमाते शहरों में से एक बना दिया। कहा जाता है कि अपनी माँ की सख्ती से बचने के लिए उन्होंने यह स्थानांतरण किया। लखनऊ जैसे शहर की क़िस्मत कैसी परिस्थितियों ने बनाई!
नवाब आसफ़ुद्दौला दयालु व संवेदनशील शासक थे, उन्होंने कई इमारतें बनाईं और कलाओं को प्रोत्साहन दिया। भूल भुलइया व निकट के मस्जिद सहित उन्होंने बड़ा इमामबाड़ा बनवाया, इसे बनवाने का मुख्य कारण था सूखे के समय अपनी प्रजा को रोजगार दिलवाना। रूमी दरवाज़ा भी उनकी वास्तुशिल्प के प्रति चेतना को दर्शाता है।
अंग्रेज़ों का हस्तक्षेप
उनके पुत्र, वज़ीर अली, को ही अपने पितामह द्वारा लखनऊ में ब्रिटिश रेज़िडेंट स्वीकारने के फ़ैसले का सबसे ज़्यादा अफ़सोस हुआ होगा। १७९८ में गवर्नर जनरल ने उन्हें सिंहासन से हटा दिया, बहाना यह था कि इस बात का शक था कि वे वास्तव में आसफ़ुद्दौला के बेटे हैं या नहीं, लेकिन संभवतः हटाने का वास्तविक कारण यह था कि वे स्वायत्तता की ओर बढ़ रहे थे। उन्होंने आसफ़ुद्दौला के भाई सआदत अली खान को ताजपोश किया। सआदत अली खान, वित्तीय मामलों में काफ़ी अच्छा प्रबंधन करते थे, लेकिन फिर भी उन्होंने काफ़ी निर्माण भी कराए, जिनमें दिलकुशा, हयात बक्श और फ़रहात बक्श तथा मशहूर लाल बारादरी भी शामिल हें। इसके बाद से उत्तराधिकार के लिए यह वंश दिल्ली के बजाय कलकत्ता की ओर मुँह ताकने लगा।
१७९८ में बनारस में पदच्युत वज़ीर अली द्वारा एक ब्रिटिश रेज़िडेंट की हत्या होने से हस्तक्षेप का और बहाना मिल गया और लॉर्ड वेलेस्ली (वेलिंग्टन के ड्यूक के भाई) ने इसका पूरा फ़ायदा उठाया। १८०१ की संधि के अनुसार नवाब को अपनी फ़ौज का त्याग कर के उसके बजाय एक अंग्रेज़ों के नेतृत्व वाली सेना का भारी खर्चा देना पड़ा। दक्षिणी दोआब (रोहिलखंड) दे दिया गया और इलाहाबाद के बाकी इलाके व अन्य क्षेत्र ब्रिटिश भारत का अंग बन गए। तीस साल में अवध ने अपनी आधी ज़मीन अंग्रेज़ों को दे दी थी।
इन रियायतों के एवज में नवाब ने बाकी इलाके के शासन में खुली छूट की माँग की, ताकि अंग्रेज़ों की सलाह और हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश न रहे। लेकिन इसमें दिक्कत यह थी कि उनके निर्देशों का क्रियान्वयन करने के लिए अंग्रेज़ी फ़ौज की ही ज़रूरत पड़ती। वेलेस्ली के पास एक और चाल भी थी: संधि में एक धारा थी जिसके तहत प्रशासन प्रणाली "आदरणीय कंपनी के अधिकारियों की सलाह के आधार पर और उन्हीं के अनुरूप" होनी चाहिए थी। यह धारा यूँ तो नुक्सानदेह नहीं लगती थी, पर इसी के जरिए अंग्रेज़ों ने अंततः अवध का अधिग्रहण किया।
स्वर्णिम युग
१८१९ के बाद से अवध में गतिविधियाँ चलती रहगीं। सआदत अली के देहांत के बाद उनके पुत्र ग़ाज़ी मसनद पर बैठे और उन्होंने उद्-दीन की उपाधि ली, जिसका अर्थ होता है धर्म के रक्षक। अंग्रेज़ों ने औपचारिक तौर पर उन्हें राजा की उपाधि दी, हालाँकि यह एक ऐसा काल था जब वे पूरी तरह अंग्रेज़ों पर ही निर्भर थे। नेपाल युद्ध के लिए उन्होंने अंग्रेज़ फ़िरंगी को २० लाख रुपए का उधार दिया और आधे उधार की वापसी के तौर पर युद्ध के अंत में नेपाली तराई अंग्रेज़ों से प्राप्त की - यह हिमालय पर्वतमाला के पहले मौजूद एक कीचड़ वाला जंगल था। कुछ का सोचना था कि सौदा अच्छा नहीं था, लेकिन अंततः तराई में काफ़ी क़ीमती लकड़ी पैदा हुई।
ग़ाज़ीउद्दीन एक अच्छे शासक थे और उन्होंने कई सार्वजनिक व भवन निर्माण कार्य किए, तथा इंसाफ़ दिलाने पर भी काफ़ी ध्यान दिया। उन्होंने मुबारक मंज़िल, शाह मंज़िल व हज़ारी बाग़ भी बनाए। यहाँ उन्होंने जानवरों की लड़ाइयों के खेलों से लखनऊ को पहली बार परिचित कराया।
लेकिन उनके पुत्र नासिरुद्दीन, जो उनके बाद गद्दी पर बैठे, अंग्रेज़ों के प्रति आकर्षित तो थे, पर इंसाफ़, आज़ादी, लोकतंत्र आदि चीज़ों के प्रति नहीं, बल्कि उनके कपड़ों, खान पान और, अफ़सोस, शराब पीने की आदत के प्रति, जो कि उनके आस पास के कुछ खराब अंग्रेज़ साहसियों में थी।
नासिरुद्दीन, इस स्वभाव के बावजूद काफ़ी लोकप्रिय राजा थे और उन्होंने एक खगोलीय केंद्र, तारोंवाली कोठी भी बनवाई, जिसमें कई नज़ाकत वाले उपकरण थे। इसका रखरखाव एक अंग्रेज़ खगोलविद करता था। उनकी मौत के बाद एक और उत्तराधिकार युद्ध हुआ, जिसमें अंग्रेज़ों ने ज़ोर दिया कि सआदत अली का एक और पुत्र, मोहम्मद अली गद्दी पर बैठे। मोहम्मद अली एक न्यायप्रिय व लोकप्रिय शासक थे और उनके अधीन लखनऊ ने कुछ समय के लिए वापस पुरानी शानोशौकत हासिल की। लेकिन वे गठिया से पीड़ित थे। १८४२ में उनका देहांत हुआ और उनके पुत्र अमजद अली शासक बने, इनका रुझान मज़हबी और रुहानी दुनिया की ओर अधिक था, जिसकी वजह से प्रशासन पर पकड़ ढीली हुई।
अंग्रेज़ों द्वारा अधिग्रहण
अमजद अली के बाद वाजिद अली शाह आए, वे कवि, गायक, कला के कद्रदान और लखनऊ से मोहब्बत करने वाले थे। उनके बारे में यह लिखा गया है, "वे केवल अनपी निजी इंद्रियों को सुखी करने में तल्लीन हैं। उनका सार्वजनिक मामलों में कोई रुझान नहीं है और उच्च पद के कर्तव्यों और ज़िम्मेदारियों से उन्हें कोई लेना देना नहीं है। वे कवल गायकों, हिजड़ों और औरतों के बीच ही रहते हैं, बचपन से ही ऐसे रहे हैं और अंत तक भी ऐसे ही रहने की आशंका है।"[1]
वाजिद अली शाह के इस वर्णन को अवध का अंग्रेज़ों द्वारा अधिग्रहण की दलील के तौर पर इस्तेमाल किया गया। यदि वाजिद अली शाह के खिलाफ़ बद-इंतज़ामी का इल्ज़ाम सच था, तो इसके लिए अंग्रेज़ भी नवाब के बराबर ज़िम्मेदार थे। १७८० के दशक के बाद से अवध के प्रशान और वित्त का नियंत्रण उनके पास अधिक था। साथ ही, अंग्रेज़ों द्वारा नवाब से लगातार धन की माँग से अवध काफ़ी निर्धन हो चुका था।
अंततः अंग्रेज़ों को १८०१ की संधि की धारा लागू करने का बहाना मिल ही गया और १८५६ में गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौज़ी इस काम के लिए बिल्कुल उपयुक्त थे। अवध का अधिग्रहण हुआ, वाजिद अली शाह को कलकत्ता में मटियाबुर्ज में लगभग बंदी ही बना दिया गया, हालाँकि ये अंग्रेज़ों की योजना में नहीं था। भारत में अंग्रेज़ों की सत्ता के खिलाफ़ सबसे बड़े विद्रोह के लिए मंच सज चुका था।
१८५७ का स्वाधीनता संग्राम
वाजिद अली शाह की एक पत्नी, बेगम हज़रत महल लखनऊ में ही रहीं और जब १८५७ में युद्ध हुआ तो स्वाधीनता के लिए लड़ने वालों की उन्होंने अगुआई की।
बेगम ने कभी हार नहीं मानी और १८७९ में नेपाल में उनका देहांत हुआ।
अवध के शासक
अवध के शासक १७३२-१८५८ | ||||
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से | तक | शासक का नाम | (जन्म - मृत्यु) | टिप्पणी |
१७३२ - मुग़ल साम्राज्य का एक वरिष्ठ अधिकारी ने मुग़ल सल्तनत के अधीन अवध में एक आनुवंशिक राज्यतंत्र की स्थापना की। | ||||
शासक (खिताब सूबेदार नवाब) | ||||
१७३२ | १९ मार्च १७३९ | बोर्हन अल-मुल्क मीर मोहम्मद अमीन मुसावी सादत अली खान प्रथम | (१६८० - १७३९) | |
१९ मार्च १७३९ | २८ अप्रैल १७४८ | अबू अल मंसूर मोहम्मद मोक़िम खान (१ली बार) | (१७०८-१७५४) | |
शासक (खिताब नवाब वज़ीर अल मामालिक) | ||||
२८ अप्रैल १७४८ | १३ मई १७५३ | अबू अल मंसूर मोहम्मद मोक़िम खान (१९ जून १७४८ तक कार्यकारी) | ||
शासक (खिताब सूबेदार नवाब) | ||||
५ नवम्बर १७५३ | ५ अक्टूबर १७५४ | अबू अल मंसूर मोहम्मद मोक़िम खान (२सरी बारी) | ||
५ अक्टूबर १७५४ | १५ फ़रवरी १७६२ | जलालुद्दीन शुजाउद्दौला हैदर | (१७३२-१७७५) | |
शासक (खिताब नवाब वज़ीर अल ममालिक) | ||||
१५ फ़रवरी १७६२ | २६ जनवरी १७७५ | जलालुद्दीन शुजाउद्दौला हैदर | ||
२६ जनवरी १७७५ | २१ सितंबर १७९७ | आसफ़ुद्दौला अमनी | (१७४८ - १७९७) | |
११ सितंबर १७९७ | २१ जनवरी १७९८ | मिर्ज़ा वज़ीर अली खान | (१७८० - १८१७) | |
२१ जनवरी १७९८ | ११ जुलाई १८१४ | यामीनुद्दौला नाज़िम अल मुल्क सादत अली खान बहादुर द्वितीय | (१७५२ - १८१४) | |
११ जुलाई १८१४ | १९ अक्टूबर १८१८ | ग़ाज़ीउद्दीन रफ़ातद्दौला अबू अल मुज़फ़्फ़र हैदर खान | (१७६९ - १८२७) | |
८ अक्टूबर १८१९ - शासकों ने बादशाह की उपाधि का प्रयोग शुरू किया, अर्थात् औपचारिक रूप से स्वाधीनता की घोषणा। | ||||
राजा (खिताब बादशाह-ए-अवध, शाह-ए-ज़माँ) | ||||
१९ अक्टूबर १८१८ | १९ अक्टूबर १८२७ | ग़ाज़ीउद्दीन रफ़ातद्दौला अबू अल मुज़फ़्फ़र हैदर खान | ||
१९ अक्टूबर १८२७ | ७ जुलाई १८३७ | नसीरुद्दीन हैदर सुलेमान जाह शाह | (१८०३ - १८३७) | |
७ जुलाई १८३७ | १७ मई १८४२ | मोइनुद्दीन अबू अल फथ मोहम्मद अली शाह | (१७७७ - १८४२) | |
१७ मई १८४२ | १३ फ़रवरी १८४७ | नसीरुद्दौला अमजद अली तोरय्या जाह शाह | (१८०१ - १८४७) | |
१३ फ़रवरी १८४७ | ७ फ़रवरी १८५६ | नसीरुद्दीन अब्दुल मंसूर मोहम्मद वाजिद अली शाह | (१८२२ - १८८७) | |
७ फ़रवरी १८५६ - राजा अपदस्थ, अवध ब्रिटिश भारत का हिस्सा बना। | ||||
५ जुलाई १८५७ से ३ मार्च १८५८ - अपदस्थ राजा ने स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया | ||||
५ जुलाई १८५७ | ३ मार्च १८५८ | बिरजिस क़द्र (स्वाधीनता संग्राम के दौरान) | (१८४५? - १८९३) | [2] |
Source: भारत के रजवाड़े, १९४७ के पहले के राज्य ए-जे |
चित्र दीर्घा
अवध के वज़ीर नवाब
- शुजाउद्दौला (१७५३-१७७५)
- आसफ़ुद्दौला (१७७५-१७९७)
- हैदर बेग खान अवध के नवाब आसफ़ुद्दौला के वज़ीर, १७८६ का चित्र।
अवध के राजा
- नसीरुद्दीन हैदर (१८२७-१८३७)
- वाजिद अली शाह (१८४७-१८५६)
यहाँ भी देखें
अतिरिक्त सामग्री
सन्दर्भ
- ↑ 'एक पूर्वी राजा का निजी जीवन', विलियम नाइटन द्वारा
- ↑ "अवध का इतिहास - भारत का एक रजवाड़ा, लेखक हमीद अख्तर सिद्दीक़ी". मूल से 1 सितंबर 2001 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 4 सितंबर 2009.