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अल-क़मर

सूरा अल-कमर (इंग्लिश: Al-Qamar) इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरआन का 54 वां सूरा (अध्याय) है। इसमें 55 आयतें हैं।

नाम

सूरा अल-कमर[1]या सूरा अल्-क़मर[2] पहली ही आयत के वाक्य "और चाँद (क़मर) फट गया" से उद्धृत है। मतलब यह है कि वह सूरा जिसमें अल-क़मर शब्द आया है।

अवतरणकाल

मक्की सूरा अर्थात् पैग़म्बर मुहम्मद के मक्का के निवास के समय हिजरत से पहले अवतरित हुई।

इसमें चाँद के फटने की इस्लामी धारणा का उल्लेख हुआ है, जिससे इसका अवतरणकाल निश्चित हो जाता है। हदीस के ज्ञाता और कुरआन के टीकाकार इसपर सहमत हैं कि यह घटना हिजरत के लगभग पाँच वर्ष पूर्व मक्का मुअज्जमा में मिना के स्थान पर घटित हुई थी।

विषय और वार्ताएँ

इस्लाम के विद्वान मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी लिखते हैं कि इसमें मक्का के इन्कार करने वालों को उस हठधर्मी पर चेतावनी दी गई है जो उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के आह्वान के मुक़ाबले में अपना रखी थी। चाँद के फटने की आश्चर्यजनक घटना इस बात का स्पष्ट प्रमाण थी कि जगत् की व्यवस्था अनादिकालिक और शाश्वत और अनश्वर नहीं है। वह छिन्न-भिन्न हो सकती बड़े-बड़े नक्षत्र और तारे फट सकते हैं और वह सब कुछ हो सकता है जिसका चित्रण क़ियामत के विस्तृत वर्णन में कुरआन ने किया है। यही नहीं, बल्कि यह इस बात का भी पता दे रहा था कि जगत् - व्यवस्था के टूट - फूट का आरम्भ हो गया है और वह समय निकट है जब क़ियामत घटित होगी। मगर काफ़िरों ने इसे जादू का चम्तकार घोषित किया और अपने इनकार पर दृढ रहे। इसी हठधर्मी पर इस सूरा में उनकी निन्दा की गई है । वार्ता का आरम्भ करते हुए कहा गया है कि ये लोग न समझाने से मानते हैं, न इतिहास से शिक्षा ग्रहण करते हैं और न आँखो से खुली निशानियाँ देखकर ईमान लाते हैं। अब ये उसी समय मानेंगे जब क़ियामत वास्तव में घटित हो जाएगी। इसके बाद उनके सामने नूह (अलै.) की जाति , आद , समूद , लूत (अलै.) की क़ौम और फ़िरऔनियों का वृत्तान्त संक्षिप्त शब्दों में वर्णित करके बताया गया है कि ईश्वर के भेजे हुए पैग़म्बरों की चेतावनियों को झुठलाकर इन जातियों को किस पीड़ाजनक यातना का सामना करना पड़ा और एक-एक जाति का वृत्तान्त प्रस्तुत करने के बाद बार-बार यह बात दोहराई गई है कि यह क़ुरआन शिक्षा का सहज आधार है जिससे यदि कोई जाति शिक्षा ग्रहण करके सीधे मार्ग पर आ जाए तो उन यातनाओं की नौबत नहीं आ सकती जिनमें वे जातियाँ ग्रस्त हुई। इसके बाद मक्का के काफ़िरों को सम्बोधित करके कहा गया है कि जिस नीति पर दूसरी जातियाँ दण्डित हो चुकी हैं, वही नीति यदि तुम अपनाओगे तो आख़िर तुम दण्ड क्यों नहीं पाओगे? और यदि तुम अपने जत्थे परफूले हुए हो तो शीघ्र ही तुम्हारा यह जत्था पराजित होकर भागता दिखाई देगा और इससे अधिक कठोर मामला तुम्हारे साथ क़ियामत के दिन होगा। अन्त में इनकार करने को यह बताया गया है कि सर्वोच्च अल्लाह को क़ियामत लाने के लिए किसी बड़ी तैयारी की आवश्यकता नहीं है। उसका बस एक हुक्म होते ही पलक झपकाते ही वह घटित हो जाएगी। किन्तु हर चीज़ की तरह जगत्-व्यवस्था और मानव - जाति की भी एक नियति है । इस नियति के अनुसार जो समय इस काम के लिए निश्चित है, उसी समय पर यह होगा । यह नहीं हो सकता कि जब कोई चुनौती दे तो उसको क़ाइल करने के लिए क़ियामत ला खड़ी की जाए।

सुरह "अल-कमर का अनुवाद

बिस्मिल्ला हिर्रह्मा निर्रहीम अल्लाह के नाम से जो दयालु और कृपाशील है।

इस सूरा का प्रमुख अनुवाद:

क़ुरआन की मूल भाषा अरबी से उर्दू अनुवाद "मौलाना मुहम्मद फ़ारूक़ खान", उर्दू से हिंदी "मुहम्मद अहमद" [3] ने किया।

बाहरी कडियाँ

इस सूरह का प्रसिद्ध अनुवादकों द्वारा किया अनुवाद क़ुरआन प्रोजेक्ट पर देखें Al-Qamar 54:1

पिछला सूरा:
अन-नज्म
क़ुरआनअगला सूरा:
अर-रहमान
सूरा 54 - अल-कमर

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सन्दर्भ:

  1. अनुवादक: मौलाना फारूक़ खाँ, भाष्य: मौलाना मौदूदी. अनुदित क़ुरआन - संक्षिप्त टीका सहित. पृ॰ 788 से.
  2. "सूरा अल्-क़मर का अनुवाद (किंग फ़हद प्रेस)". https://quranenc.com. मूल से 22 जून 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 16 जुलाई 2020. |website= में बाहरी कड़ी (मदद)
  3. "Al-Qamar सूरा का अनुवाद". http://tanzil.net. मूल से 25 अप्रैल 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 जुलाई 2020. |website= में बाहरी कड़ी (मदद)

इन्हें भी देखें