अर्धचालक युक्ति
अर्धचालक युक्तियों के निर्माण की सामान्य प्रक्रिया | |
अर्धचालक युक्तियां बहुत ही स्वच्छ वातावरण में निर्मित की जातीं हैं क्योंकि धूल और अन्य अशुद्धियों की उपस्थिति में इनकी गुणवत्ता अच्छी नहीं होती]] | |
सिलिकॉन के बेलनाकार दण्ड से काटकर सिलिकॉन वेफर बनाये जाते हैं। | |
एक ही वेफर पर बहुत से परिपथ बना लिये जाते हैं। इन्हें हीरा कर्तक से काटकर अलग-अलग कर लिया जाता है। | |
वेफर को काटने के बाद प्राप्त परिपथ (डाई के ऊपर परिपथ दिखाई दे रहा है।) | |
अन्तिम कार्य। यह एक 'चिप' है जिस पर बनी सर्किट दिखाई दे रही है। | |
अन्ततः, इन ये युक्तियाँ (जैसे आईसी आदि) विभिन्न कामों में लिये जाते हैं। (जैसे पीसी या टीवी के निर्माण में ) |
अर्धचालक युक्तियाँ (Semiconductor devices) उन एलेक्ट्रानिक अवयवों को कहते हैं जो अर्धचालक पदार्थों के गुण-धर्मों का उपयोग करके बनाये जाते हैं। सिलिकॉन, जर्मेनियम और गैलिअम आर्सेनाइड मुख्य अर्धचालक पदार्थ हैं। अधिकांश अनुप्रयोगों में अब उन सभी स्थानों पर अर्धचालक युक्तियाँ प्रयोग की जाने लगी हैं जहाँ पहले उष्मायनिक युक्तियाँ (निर्वात ट्यूब) प्रयोग की जाती थीं। अर्धचालक युक्तियाँ, ठोस अवस्था में इलेक्ट्रानिक संचलन पर आधारित हैं जबकि ट्यूब युक्तियाँ उच्चा निर्वात या गैसीय अवस्था में उष्मायनों के चालन पर आधारित थीं।
निर्माण के आधार पर अर्धचालक युक्तियाँ मुख्यतः दो प्रकार की होती हैं - अकेली युक्तियाँ और एकीकृत परिपथ (IC)
अर्धचालक युक्ति मूल तत्त्व
अर्धचालक पदार्थों का सबसे महत्वपूर्ण आकर्शण है के इन्हे दूषित कर इनके व्यवहार को नियंत्रित किया जा सकता है। दूषण की इस प्रक्रिया को डोपिगं कहते हैं। अर्धचालकों के चालन को वैद्युत क्षेत्र, रोशनी, ऊष्मा, यहाँ तक दबाव से भी नियंत्रित किया जा सकता है। इसलिये, अर्धचालकों का उपयोग संवेदकों को बनाने में होता है। विद्युतधारा का प्रवाह होता है "मुक्त" इलेक्ट्रान और "छिद्रों" के द्वारा, जिन्हे आवेश वाहक भी कहते हैं।
सिलिकॉन जैसे अर्धचालक में फॉस्फोरस या बोरॉन जैसे तत्वों को डालकर डोपिगं किया जाता है, जिससे अर्धचालक में उपलब्ध मुक्त इलेक्ट्रान या छिद्रों की मात्रा काफी हद तक बढ़ जाती है। जब दूषित अर्धचालक में अधिक्षम छिद्र होतें हैं तो उसे P-प्रकार अर्धचालक कहतें हैं और जब अधिक्षम इलेक्ट्रान होतें हैं तो उसे N-प्रकार अर्धचालक कहतें हैं, जहाँ P या N धनात्मक प्रभार या ऋणात्मक प्रभार के आवेश वाहकों का सूचक हैं।
अर्धचालकों का उत्पादन और उनके डोपिगं की प्रकृया अत्यंत ही नियंत्रित वातावरण, जिसे फैब कहते हैं, में होती है। P-प्रकार और N-प्रकार के अर्धचालकों के बीच के जोड़ को P-N जोड कहते हैं।
डायोड
P-N जोड़ से बने डायोड में P-प्रकार और N-प्रकार के अर्धचालकों के बीच के जोड़ में अवक्षय क्षेत्र होता है जो विद्युतधारा के प्रवाह को N से P की ओर नहीं होने देता, पर P से N की ओर होने देता है। जब डायोड अग्र अभिनत होता है, जहाँ P की तरफ उच्चतर वैद्युत सन्चालन शक्ति होती है, तब विद्युतधारा प्रवाह होता है। इसके विपरीत, उत्त्क्रम अभिनत डायोड में धारा प्रवाह ना के बराबर होता है।
अर्धचालक पर रोशनी डालने से इलेक्ट्रान-छिद्र के जोडे बढ़ जातें हैं, जिससे चालकता बढ़ जाती है। इस प्रतिभास का फायदा उठाकर फोटो डायोड बनाया गया। संयोजित अर्धचालक डायोडों से प्रकाश पैदा की जा सकती है, जैसे प्रकाश उत्सर्जक डायोड (LED) और लेज़र डायोड में।
ट्रांज़िस्टर
ट्रांज़िस्टरों के प्रमुख प्रकार, द्विध्रुवीय जोड़ ट्रांज़िस्टर दो p-n जोडों, n-p-n या p-n-p समग्राकृतों में बनते हैं। मध्य खण्ड, जिसे "बेस" भी कहा जाता है, संकीर्ण होता है। अन्य खण्डों को उत्सर्जक (एमिटर) और समाहर्ता (कलेक्टर) कहते हैं। बेस और उत्सर्जक के बीच आवेश के अंतरावहित करने से बेस-समाहर्ता के गुणस्वभाव में अन्तर आ जाता है, ततः, बेस-समाहर्ता के अग्र अभिनत होने के बावजूद धारा प्रवाह होता है। बेस-उत्सर्जक के छोटे से प्रवाह के बदलाव के अनुपात से कई गुना अधिक प्रवाह बेस-समाहर्ता के बीच मिलता है।
एक अन्य तरह का ट्रांज़िस्टर है क्षेत्र प्रभाव ट्रांज़िस्टर - इस अर्धचालक के चालकता को विद्युत क्षेत्र के प्रभाव से बढाया-घटाया जाता है। विद्युत क्षेत्र के प्रभाव से मुक्त इलेक्ट्रान और या छिद्रों की मात्रा तक बढ़ जाती है, इस प्रकार चालकता बढ़ जाती है। अगर इस विद्युत क्षेत्र को लगाने के लिये उत्त्क्रम अभिनत P-N जोड़ का प्रयोग करें, तो उसे जोड क्षेत्र प्रभाव ट्रांज़िस्टर (JFET) कहतें हैं; अगर इस विद्युत क्षेत्र को लगाने के लिये धातु ऑक्साइड का प्रयोग करतें हैं, तो बनता है धातु ऑक्साइड अर्धचालक क्षेत्र प्रभाव ट्रांज़िस्टर (MOSFET)
आज मॉस्फेट (MOSFET) सबसे महत्वपूर्ण अर्धचालक युक्ति है। विद्युत क्षेत्र को उत्पन्न करने का काम "गेट" (द्वार) विद्युदग्र करती है, जिससे "सोर्स" और "ड्रैन" के बीच के चैनल के चालकता का नियंत्रण होता है। इस चैनल के दो प्रकार हैं, P-चैनल (छिद्र) या N-चैनल (इलेक्ट्रान)। हालांकि धातु से मॉस्फेट को उसका नाम मिला, पर आज पॉलि सिलिकॉन को उपयोगित किया जाता है।
अर्धचालक पदार्थ
अर्धचालक युक्तियों के निर्माण में सिलिकॉन (Si) का सबसे अधिक प्रयोग होता है। अन्य पदार्थों की तुलना में इसके मुख्य गुण हैं कच्चे माल की कम लागत, निर्माण में आसानी और व्यापक तापमान परिचालन सीमा। वर्तमान में अर्धचालक युक्तियों के निर्माण के लिये पहले सिलिकॉन को कम से कम ३००mm की चौड़ाई के बउल के निर्माण से किया जाता है, ताकी इस से इतनी ही चौडी वेफर बन सके।
पहले जर्मेनियम (Ge) का प्रयोग व्यापक था, किन्तु इसके उष्ण अतिसंवेदनशीलता के करण सिलिकॉन ने इसकी जगह ले ली है। आज जर्मेनियम और सिलिकॉन के कुधातु का प्रयोग अकसर अतिवेगशाली युक्तियों के निर्माण में होता है; आई बी एम एसे युक्तियों का प्रमुख उत्पादक है।
गैलिअम आर्सेनाइड (GaAs) का प्रयोग भी व्यापक है अतिवेगशाली युक्तियों के निर्माण में, मगर इस पदार्थ के चौडे बउल नहीं बन पाते, जिसके कारण सिलिकॉन की तुलना में गैलिअम आर्सेनाइड से अर्धचालक युक्तियों को बनाना मेहंगा पड़ता है।
अन्य पदार्थ जिनका प्रयोग या तो कम व्यापक है, या उन पर अनुसंधान हो रहा है:
- सिलिकॉन कार्बाइड (SiC) का प्रयोग नीले प्रकाश उत्सर्जक डायोड (एल-ई-डी, LED) के लिये हो रहा है। प्रतिकूल वातावरण, जैसे उच्च तापमान या अत्यधिक आयनित विकिरण, के होने पर इसके उपयोग पर अनुसंधान हो रहा है। सिलिकॉन कार्बाइड से इंपैट डायोड (IMPATT) को भी बनाया गया है।
- इंडियम के समास, जैसे इंडियम आर्सेनाइड, इंडियम एन्टिमोनाइड और इंडियम फॉस्फाइड, का भी प्रयोग एल-ई-डी और ठोस अवस्था लेसर डायोड में हो रहा है।
- सौर फोटो वोल्टायिक सेल के निर्माण के लिये सेलेनियम सल्फाइड पर अनुसंधान हो रहा है।
अर्धचालक युक्तियाँ
- दो टर्मिनल वाली युक्तियाँ
- डायोड (रेक्टिफायर डायोड)
- गन्न डायोड
- इंपैट डायोड
- लेज़र डायोड
- प्रकाश उत्सर्जक डायोड
- फोटोसेल
- पिन डायोड
- शोटकी डायोड
- सौर फोटो वोल्टायिक सेल
- टनल डायोड
- ऊर्ध्वाधर-क्षिद्र सतह-स्कंदन लेसर (VCSEL)
- ऊर्ध्वाधर-बाह्य-क्षिद्र सतह-स्कंदन लेसर (VECSEL)
- जे़नर डायोड
- अवलांच ब्रेकडाउन डायोड
- डायक
- तीन टर्मिनल वाली युक्तियाँ
- बीजेटी
- डार्लिंटन ट्रांज़िस्टर
- क्षेत्र प्रभाव ट्रांज़िस्टर
- आईजीबीटी (IGBT)
- सिलिकॉन कन्ट्रोल्ड रेक्टिफायर (SCR)
- थाइरिस्टर
- ट्रायक
- एकिक जोड़ ट्रांज़िस्टर
- चार टर्मिनल वाली युक्तियाँ
- हॉल संवेदक (चुम्बकीय क्षेत्र संवेदक)
- बहु-टर्मिनल युक्तियाँ
- आवेश-युग्मित युक्ति (CCD)
- एकीकृत परिपथ (IC)
- माइक्रोप्रोसेसर
- यादृच्छिक अभिगम स्मृति (RAM)
- केवल पठीय स्मृति (ROM)
अर्धचालक युक्ती उपयोग
तर्क द्वार के बनने में ट्रांज़िस्टर (सभी प्रकार के ट्रान्जिस्टर) मूलभूत अंग हैं। पुनश्च, तर्क गेट, अंकीय प्रपथ के मूलभूत निर्माण-अवयव हैं। माइक्रोप्रोसेसर जैसे अंकीय परिरपथों में ट्रांज़िस्टर स्विच की भांति काम करते हैं। उदाहरण के लिये, मॉसफेट पर विद्युत संचालन शक्ति को लगाने से निर्धारित होता है कि स्विच बंद होता है या खुलता है।
जिन ट्रांज़िस्टरों का प्रयोग अनुरूप परिपथों में होता है, वहाँ इनका प्रयोजन स्विच के रूप में ना हो कर, प्रवर्धन और दोलन के लिये होता है। इनमे निवेश (इन्पुट) और निर्गम (आउटपुट), दोनों ही अनुरूप होते हैं।
पावर अर्धचालक युक्तीयों का उपयोग उच्च वोल्ट या धारा के प्रकलन में होता है। कम्प्यूटर का एसएमपीएस या मोटर ड्राइव आदि में पावर अर्धचालक युक्तियों का प्रयोग करना पड़ता है।। पावर अंकीय प्रपथ, जिन्हे "स्मार्ट" पावर युक्ती भी कहते हैं, में IC तकनीकों को उच्च शक्ति पर लगाया जाता है।
अवयव अभिज्ञापक (component identifiers)
अर्धचालक युक्तियों के अवयव अभिज्ञापक अलग-अलग निर्माता अलग-अलग तरह से करते हैं। फिर भी कई कोशिशों के बाद कुछ मानकों का प्रचलन देखने में आ रहा है, जैसे की अमरीका में JEDEC JESD370B, यूरोप में प्रो एलेक्ट्रोन और जापान में JIS.
अर्धचालक युक्ती इतिहास
उन्नीसवीं सदी
अर्धचालकों का प्रयोग एलेक्ट्रोनिकी के क्षेत्र में ट्रांज़िस्टर के खोज के पहले से ही हो रहा है। बीसवीं सदी के शुरुवात के समय के रेडियो में इन्हें "बिल्ली की मूछ" नामक संसूचक अवयव के रूप में देखा गया। इन प्रारम्भिक संसूचकों के चालन में काफी असुविधायें थीं - टंग्स्टन के बने तंतु को गैलेना (लेड समल्फाइड) या कार्बोरन्डम (सिलिकॉन कार्बाइड) क्रिस्टल के आसपास तब तक हिलाना पड़ता था जब तक की वो अचानक ही काम ना करना शुरू कर दे! उस समय इनके परिचालन प्रणाली के बारे में पता नहीं था। निर्वात नलिका, जो ज़्यादा टिकाऊ थे, के उपलब्धी के बाद इनका उपयोग थम गया। आज के "बिल्ली की मूछों" को उनके नये रुप, शोटकी डायोड, में देखा जा सकता हैं।
द्वितीय विश्वयुद्ध
द्वितीय विश्व युध के दोरान उच्च-आवृति राडार अनुसन्धान पर जोर पड़ा, जिन्के प्रवर्धन के लिये नलिका पर आधारित अभिग्राहों ने काम करना बन्द कर दिया। कोटक मैग्नेट्रोन के विकास के बाद उच्च-आवृति प्रवर्धक (ऐम्प्लीफायर) की सक्त ज़रुरत पडी।
एक झक, बेल लैब्स के रसल ओह्ल ने "बिल्ली की मूछों" को दोबारा परीक्षा। कई दशकों से इसके प्रयोग में ना होने के कारण प्रयोगशाला में इसकी एक इकाई भी न थी और इसे वे ढूंड के लाये मेन्हैटन के किसी रेडियो के दुकान से। ओह्ल ने तहकीकात की कि बिल्ली की मूछें इतने गुणकारक क्यों थे। १९३९ में उन्होंने और भी शुद्धिकृत क्रिस्टल पर प्रयत्न किया और पाया की हालांकि इसका जुगती रवैया खत्म हो गया, पर इसके संसूचन की क्षमता भी गायब हो गयी। फिर एक दिन अचानक उनके पास पड़े एक उच्चतम शुद्धता के क्रिस्टल ने काम करना शुरू कर दिया - ध्यान से देखने पर पता चला के इस क्रिस्टल के बीचों बीच एक छोटी सी दरार थी। फिर उनका ध्यान इस बात पर गया के संसूचक के कमरे में जगह बदलने से कभी यह काम करना शुरू कर दे तो कभी बंद कर दे। उन्होंने पता लगाया के क्रिस्टल का यह बर्ताव उस पर पड रहे रोशनी पर निर्भर करता है। जब उन्होंने इसे अन्य लोगों को दिखया, वॉल्टर ब्रैट्टैन ने तुरंत बूझ लिया कि क्रिस्टल के दरार पर किसी तरह का जोड़ बन रहा है।
भेद खुलने में देर नहीं लगी। क्रिस्टल में दरार का कारण था दरार के दोनों तरफ के बीच दूषण में असंतुलन, जिसके कारण जहाँ एक तरफ कुछ एलेक्ट्रोन अधिक थे, तो दूसरी तरफ कुछ कम। चूंकि दोनों भाग जुडे हुए थे, एलेक्ट्रोन के अधिक्षमता के तरफ से दूसरी तरफ का प्रवाह तब शुरू हुआ जब बैटरी को लगाने से बैटरी के विद्युत संचालन शक्ति से अधिक्षम एलेक्ट्रोन दूसरी तरफ कूद पड़े और त्रुटिपूर्ण "छिद्रों" में जा बैठे। मगर इससे एक अस्थिरता पैदा हो गयी! अधिक्षम पक्ष में सहज संतुलन के लिये एक एलेक्ट्रोन की कमी हेई, जिसे बैटरी ने अपने एलेक्ट्रोन को दे कर पूर्ति की और दुसरे तरफ के अतिरिक्त एलेक्ट्रोन को अवशोषण करके बैटरी ने सम्पूर्ण चक्र को पूरा किया। इस तरह बिजली का धार प्रवाह स्थापित हो गया। बैटरी की दिशा को बदलने से यह प्रवाह थम जाता है क्योंकि "छिद्रों" में बैटरी के एलेक्ट्रोन भर जातें हैं और दूसरी तरफ के अधिक्षम एलेक्ट्रोनों के कारण एलेक्ट्रोन आगे नहीं बढ़ पाते।
दो ठोस क्रिस्टलों के बने इस डायोड के इस आचरण को अर्धचालन कहते हैं। डायोड के बंद होने की प्रवृत्ति जोड़ के पास के आवेश वाहकों के पृथक होने के कारण है और इस क्षेत्र को | अवक्षय क्षेत्र कहते हैं।
डायोड का विकास
अर्धचालकों के इस नये ज्ञान को सहेजने के लिये परडू विश्वविद्यालय, बेल लैब्स, एम आइ टी और [[शिकागो विश्वविद्यालय|शिकागो विश्वविद्यालयों] ने मिलकर नये बेहतर क्रिस्टल बनाये और तकनीकों को समापित किया। एक साल के अंदर ही जर्मेनियम उत्पादन में इतनी परिपक्वता आ गयी कि इनका प्रयोग सामरिक रडारों में शुरू हो गया।
ट्रांज़िस्टर का विकास
युध के बाद्, विलियम शोक्ली ने ट्रायोड जैसे अर्धचालक युक्ति को बनाने का प्रयास किया। इसके लिये उन्होंने निधीयन और लैब हासिल किया, जॉन बर्दीन और ब्रट्टैन के साथ काम करनअ शुरू किया।
ट्रांज़िस्टर के विकास के लिये अर्धचालकों में एलेक्ट्रोंनों के सचलन को समझना महत्वपूर्ण था। अगर डायोड के उत्सर्जक (एमिटर) और समाहर्ता (कलेक्टर) के बीच के इस सचलन को किसी तरह नियंत्रित किया जा सके, तो प्रवर्द्धक (ऐम्प्लीफायर) का विकास किया जा सकेगा। यदि एक तरह के कृस्टल के दोनों तरफ विद्युत प्रचलन शक्ति को लगायें, तो एलेक्ट्रोंनों का प्रवाह स्थापित नहीं होता; अगर एलेक्ट्रोंन या "छिद्रों" (एलेक्ट्रोंन की त्रुटिपूर्णता) को तीसरे अंतक से अंतरावहित करें तो यह प्रवाह स्थपित हो सकता है। बड़े कृस्टल की प्रवर्द्धक के रूप में उपयोगिता भी कम होती है, क्योंकि इसमें काफी मात्रा में एलेक्ट्रोंनों या छिद्रों का अंतरावहन करना पड़ता है। कुल मिलाकर, ट्रांज़िस्टर के बनाने में कृस्टल के अवक्षय क्षेत्र द्वारा छोटी दूरियों में एलेक्ट्रोंनों का प्रबंध और निवेश और निर्गम के संपर्क को सतह से निकटता पर निर्भर करती है।
ब्रट्टैन ने जब एसे युक्ति को बनाना शुरू किया, तो प्रवर्द्धन की झलकें दिखतीं और लुप्त हों जाती। एक बार तो आदिप्रयोग को पानी में डालने से अकस्मात् इसने कार्य करना शुरू कर दिया (ओह्ल और ब्रट्टैन ने इस भेद को सुलझाने के लिये प्रमात्रा (क्वांटम) यांत्रिकी के शाख़, सतह भौतिकी को परिभाषित किया)।
कृस्टल के एलेक्ट्रोंनों की विशेषता होती है कि वे पास के आवेशों के प्रभाव से एकत्र होतें हैं - उत्सर्जक की सतह के पास एलेक्ट्रोंन और समाहर्ता के सतह के पास छिद्र एकत्र होते हैं विपरीत आवेशों को ढूंढते हुए। इन्हे बडी आसानी से इस सतह से हटाया जा सकता है कृस्टल के किसी भी सही कोने में थोडे से आवेशों के अंतरावहन से। अगर उत्सर्जक और समाहर्ता पास-पास हों, तो आवेशों के अंतरावहन से इनके बीच एलेक्ट्रोंनों का धार प्रवाह स्थापित हो जाता है। जहाँ आवेशों का यह अंतरावहन किसी हलके से संकेत (सिग्नल) का निरूपण करता है, उत्सर्जक और समाहर्ता के बीच का धार प्रवाह इस संकेत का प्रवर्द्धित उत्पाद होता है।
पहला ट्रांज़िस्टर
बेल लैब्स में कई कोशिशों के बाद सफलता आखिर मिल ही गयी नोक-संयोग (पॉइन्ट कॉन्टैक्ट) ट्रांज़िस्टर के रूप में। सोने की पन्नी को प्लास्टिक के पच्चर पर चिपकाकर, फिर पच्चर की धार से सोने को हलका सा छील दिया गया। इससे मिला दो बहुत ही करीबी सोने का संयोग। अब इस प्लास्टिक के पच्चर को कृस्टल में गाड़कर कृस्टल के दोनों तरफ विद्युत संचालन शक्ति को लगाया गया। धारा प्रवाह तब हुआ जब कृस्टल के तल पर लगे दूसरे विद्युत शक्ति से कृस्टल के एलेक्ट्रोंन तल की तरफ बह गये। एसे हुआ नोक-संयोग ट्रांज़िस्टर का आविष्कार। २३ दिसम्बर १९४७ को अकसर ट्रांज़िस्टर का जन्म दिवस कहा जाता है। इस "PNP नोक-संयोग जर्मेनियम ट्रांज़िस्टर" की वाक प्रवर्द्धन शक्ति १८ गुना थी।
१९५७ में विलियम शोक्ली, जॉन बर्दीन और वॉल्टर ब्रैट्टैन को भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला।
"ट्रांज़िस्टर" नाम का स्रोत
बेल लैब्स के आंतरिक मतदान में कई नाम सुझाए गये, जैसे की "अर्धचालक ट्रायोड", "ठोस ट्रायोड", आदि। जॉन पिएर्स के सुझाव, ट्रांज़िस्टर, को सबसे ज्यादा मत मिले। नाम का विच्छेद करें तो मिलता है "ट्रांस्फर" और "वैरिस्टर"।
ट्रांज़िस्टर डिज़ाइन में तरक्की
शोक्ली को अप्रसन्नता थी कि उन्हे बर्दीन और ब्रैट्टैन के साथ ट्रांज़िस्टर के आविष्कार के श्रेय में भाग देना पड़ा। बैल लैब्स के वकीलों को जब पता चला के शोक्ली के लेखों में कुछ समान्ताएँ थीं जूलियस एड्गर लिलियन के १९२५ के पेटेंट से, तो उन्होंने शोक्ली के नाम को ट्रांज़िस्टर के पेटेंट से बाहर रखने का विचार किया।
शोक्ली इससे अत्यंत नाराज हुए और उन ने ठान ली यह दिखाने की कि असली दिमाग किसका है। कुछ ही महीनों में एक नये तरह के ट्रांज़िस्टर का आविष्कार किया, जो नोक-संयोग ट्रांज़िस्टर की तुलना में स्थिर और टिकाऊ था। साठवें दशक में इस ट्रांज़िस्टर की धूम थी। यह और विक्सित हो कर द्विध्रुवीय जोड़ ट्रांज़िस्टर बना।
अस्थिरता की समस्याओं को दूर करने के बाद बची समस्या शुद्धता की। जर्मेनियम का शुद्धिकरण काफी जटिल था - इसमें कुछ सुधार शुद्धिकृत पानी के प्रयोग से हुआ, मगर फिर भी, जर्मेनियम के तापमान पर अतिसंवेदनशीलता के कारण यह सुझाया गया के सिलिकॉन एक बेहतर विकल्प होगा। बहुत कम वैज्ञानिकों ने इस पर ध्यान दिया। सिलिकॉन से बने ट्रांज़िस्टर को पहले बनाया गॉर्डन टील ने, जिनकी कंपनी, टेक्सस इन्सट्रुमैन्ट्स, ने भरपूर फायदा उठाया। इसके बाद जर्मेनियम का प्रयोग ट्रांज़िस्टरों में खत्म सा हो गया। "ज़ोन घोलन" के तकनीक का प्रयोग करके कृस्टकों को और भी शुद्ध किया गया।
ट्रांज़िस्टर के बने रेडियो और अन्य उपकरण मार्केट में बहुतायत से मिलने लगे।
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
- Muller, Richard S., and Theodore I. Kamins (1986). Device Electronics for Integrated Circuits. John Wiley and Sons. ISBN 0-471-88758-7.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)