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अफ़्रीका का भूगोल

अफ़्रीका

अफ्रीका ऊंचे पठारों का महाद्वीप है, इसका निर्माण अत्यन्त प्राचीन एवं कठोर चट्टानों से हुआ है। इस लावा निर्मित पठार को शील्ड कहते हैं। अफ्रीका महादेश का धरातल प्राचीन गोंडवाना लैंड का ही एक भाग है। बड़े पठारों के बीच अनेक छोटे-छोटे पठार विभिन्न ढाल वाले हैं। इसके उत्तर में विश्व का वृहत्तम शुष्क मरुस्थल सहारा उपस्थित है। इसके नदी बेसिनों का मानव सभ्यता के विकाश में उल्लेखनीय योगदान रहा है, जिसमें नील नदी बेसिन का विशेष स्थान है। समुद्रतटीय मैदानों को छोड़कर किसी भी भाग की ऊँचाई 325 मीटर से कम नहीं है। महाद्वीप के उत्तरी-पश्चिमी भाग तथा सुदूर दक्षिण में मोड़दार पर्वत मिलते हैं।

उत्तर के मोड़दार पर्वत

अफ्रीका के उत्तर-पश्चिम में एटलस पर्वत की श्रेणियाँ हैं, जो यूरोप के आल्प्स पर्वतमाला की ही एक शाखा है। ये पर्वत दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व दिशा में फैले हुए हैं और उत्तर की अपेक्षा दक्षिण में अधिक ऊँचे हैं। ये पर्वत-श्रेणियाँ तीन भागों में विभक्त हैं- टेल एटलस, महान एटलस एवं लघु एटलस। टेल एटलस भूमध्य सागर के तट के समानान्तर है तथा भूमध्य सागर की ओर इसका ढाल खड़ा है। महान एटलस अटलांटिक तट से प्रारम्भ होकर प्रथम श्रेणी के दक्षिण व उसके समानान्तर गयी है। इसकी सबसे ऊँची चोटी जेबेल टूबकल है जिसकी ऊँचाई 4,167 मीटर है। लघु एटलस को सहारा एटलस भी कहते हैं। यह टेल एटलस एवं महान एटलस के मध्य में स्थित है। यहाँ खारे पानी की कई झीलें हैं जिन्हें शॉट कहते हैं।

मध्य का निम्न पठार

यह पठार भूमध्य रेखा के उत्तर पश्चिम में अन्ध महासागर तट से पूर्व में नील नदी की घाटी तक फैला हुआ है। इसकी ऊँचाई 300 से 600 मीटर है। यह एक पठार केवल मरुस्थल है जो सहारा तथा लीबिया के नाम से प्रसिद्ध है। यह एक प्राचीन पठार है तथा नाइजर, कांगो (जायरे), बहर एल गजल तथा चाड नदीयों की घाटियों द्वारा कट-फट गया है। इस पठार के मध्य भाग में अहगर एवं टिबेस्टी के उच्च भाग हैं जबकि पूर्वी भाग में कैमरून, निम्बा एवं फूटा जालौन के उच्च भाग हैं। कैमरून के पठार पर स्थित कैमरून (4069 मीटर) पश्चिमी अफ्रीका की सबसे ऊँचा चोटी है। कैमरून गिनि खाड़ी के समानान्तर स्थित एक शांत ज्वालामुखी है।

पूर्व एवं दक्षिण के उच्च पठार

इथियोपिया का पठार
ड्रेकेन्सबर्ग पर्वत

यह पठार भूमध्य रेखा के पूर्व तथा दक्षिण में स्थित है तथा अपेक्षाकृत अधिक ऊँचा है। प्राचीन समय में यह पठार दक्षिण भारत के पठार से मिला था। बाद में बीच की भूमि के धँसने के कारण यह हिन्द महासागर द्वारा अलग हो गया। इस पठार का एक भाग अबीसिनिया में लाल सागर के तटीय भाग से होकर मिस्त्र देश तक पहुँचती है। इसमें इथोपिया, पूर्वी अफ्रीका एवं दक्षिणी अफ्रीका के पठार सम्मिलित हैं। अफ्रीका के उत्तर-पश्चिम में इथोपिया का पठार है। इस पठार का अधिकांश भाग २००० मीटर से ऊँचा है तथा प्राचीनकालीन ज्वालामुखी के उद्गार से निकले है लावा से निर्मित है। इसी पठार से नील नदी की सहायक नीली नील नदी निकलती है। नील नदी की कई सहायक नदियों ने इस पठार को काट कर घाटियाँ बना दिया है। इथोपिया की पर्वतीय गाँठ से कई उच्च श्रेणियाँ निकलकर पूर्वी अफ्रीका के झील प्रदेश से होती हुई दक्षिण की ओर जाती हैं। इथोपिया की उच्च भूमि के दक्षिण में पूर्वी अफ्रीका की उच्च भूमि है। इस पठार का निर्माण भी ज्वालामुखी की क्रिया द्वारा हुआ है। इस श्रेणी में किलिमांजारो (५,८९५ मीटर), रोबेनजारो (५,१८० मीटर) और केनिया (५,४९० मीटर) की बर्फीली चोटियाँ भूमध्यरेखा के समीप पायी जाती हैं। ये तीनों ज्वालामुखी पर्वत हैं। केनिया तथा किलिमांजारो गुटका पर्वत भी हैं। किलिमांजारो अफ्रीका का सबसे ऊँचा पर्वत एवं चोटी है।

पठार के पूर्वी किनारे पर ड्रेकेन्सबर्ग पर्वत है जो समुद्र तट की ओर एक दीवार की भाँति खड़ा है। ड्रेकेन्सबर्ग का स्थानीय नाम क्वाथालम्बा है। केप प्रान्त में यह पठार दक्षिण की ओर चबूतरे के रूप में समुद्र तक नीचे उतरता है। इन चबूतरों को कारू कहते हैं। इनमें उत्तरी चबूतरे को महान कारू तथा दक्षिणी चबूतरे को लघू कारू कहते हैं। दक्षिणी-पश्चिमी भाग में कालाहारी का मरूस्थल है।

महान दरार घाटी

अफ्रीका के दरार घाटी की कुछ झीलों का आकाशीय दृश्य

अफ्रीका महाद्वीप की एक मुख्य भौतिक विशेषता पृथ्वी की आन्तरिक हलचलों के कारण अफ्रीका के पठार के पूर्वी भाग में भ्रंश घाटियों की उपस्थिति है। यह दरार घाटी पूर्वी अफ्रीका की महान दरार घाटी के नाम से प्रसिद्ध है तथा उत्तर से दक्षिण फैली है। भ्रंश घाटी एक लम्बी, संकरी एवं गहरी घाटी है जिसके किनारे के ढाल खड़े हैं। प्राचीन काल में पृथ्वी की आन्तरिक शक्तियों के कारण इस पठार पर दो विपरीत दिशाओं से दबाव पड़ा जिससे उसमें कई समानान्तर दरारें पड़ गयीं। जब दो समानान्तर दरारों के बीच का भाग नीचे धँस गया तो उस धँसे भाग को दरार घाटी कहते हैं। इनके दोनों किनारे दीवार की तरह ढाल वाले होते हैं। यह विश्व की सबसे लम्बी दरार घाटी है तथा ४,८०० किलोमीटर लम्बी है। अफ्रीका की महान दरार घाटी की दो शाखाएँ हैं- पूर्वी एवं पश्चिमी। पूर्वी शाखा दक्षिण में मलावी झील से रूडाल्फ झील तथा लाल सागर होती हुई सहारा तक फैली हुई है तथा पश्चिमी शाखा मलावी झील से न्यासा झील एवं टांगानिका झील होती हुई एलबर्ट झील तक चली गयी है। भ्रंश घाटियों में अनेक गहरी झीलें हैं। रुकवा, कियू, एडवर्ड, अलबर्ट, टाना व न्यासा झीलें भ्रंश घाटी में स्थित हैं। विक्टोरिया अफ्रीका की सबसे बड़ी झील है परन्तु यह झील दरार घाटी में नहीं है।

समद्र तटीय मैदान

दक्षिण अफ्रीका के तट का उपग्रह से खींचा गया चित्र

अफ्रीका महाद्वीप के चारों ओर संकरे तटीय मैदान हैं जिनकी ऊँचाई १८० मीटर से भी कम है। भूमध्य सागर एवं अन्ध महासागर के तटों के समीप अपेक्षाकृत चौड़े मैदान हैं। अफ्रीका महाद्वीप में तटवर्ती प्रदेश सीमित एवं अनुपयोगी हैं क्योंकि अधिकांश भागों में पठारी कगार तट तक आ गये हैं और शेष में तट में दलदली एवं प्रवाल भित्ति से प्रभावित हैं। मौरूतानिया और सेनेगल का तटवर्ती प्रदेश काफी विस्तृत है, गिनी की खाड़ी का तट दलदली एवं लैगून झीलों से प्रभावित है। जगह-जगह पर रेतीले टीले हैं तथा अच्छे पोताश्रयों का अबाव है। पश्चिमी अफ्रीका का तट की सामान्यतः गीनी तट के समान है जिसमें लैगून एवं दलदलों की अधिकता है। दक्षिणी अफ्रीका में पठार एवं तट में बहुत ही कम अन्तर है। पूर्वी अफ्रीका में रीफ की अधिकता है। अफ्रीका में निम्न मैदानों का अभाव है। केवल कांगो, जेम्बेजी, ओरेंज, नाइजर तथा नील नदियों के सँकरे बेसिन हैं।

जल अपवाह प्रणाली

अफ़्रीका की अधिकांश नदीयाँ मध्य अफ़्रीका के उच्च पठारी भाग से निकलती हैं यहाँ खूब वर्षा होती है। अफ़्रीका के उच्च पठार इस महाद्वीप में जल विभाजक का कार्य करते हैं। नील, नाइजर, जेम्बेजी, कांगो, लिम्पोपो एवं ओरंज इस महाद्वीप की बड़ी नदियाँ हैं। महादेश के आधे से अधिक भाग इन्हीं नदियों के प्रवाह क्षेत्र के अन्तर्गत हैं। शेष का अधिकांश आन्तरिक प्रवाह-क्षेत्र में पड़ता है; जैसे- चाड झील का क्षेत्र, उत्तरी सहारा-क्षेत्र, कालाहारी-क्षेत्र इत्यादि। पठारी भाग से मैदानी भाग में उतरते समय ये नदियाँ जलप्रपात एवं द्रुतवाह बनाती हैं अतः इनमें अपार सम्भावित जलशक्ति है। संसार की सम्भावित जलशक्ति का एक-तिहाई भाग अफ़्रीका में ही कृता गया है। इन नदियों के उल्लेखनीय जलप्रपात विक्टोरिया (जाम्बेजी में), स्टैनली (कांगो में) और लिविंग्स्टोन (कांगो में) हैं। नील नाइजर, कांगो और जम्बेजी को छोड़कर अधिकांश नदियाँ नाव चलाने योग्य नहीं हैं।

भूमध्यसागरीय जल अपवाह प्रणाली

यह जल अपवाह प्रणाली अफ़्रीका के उत्तरी भाग में विस्तृत है। नील इस क्षेत्र की प्रमुख नदी है जो अफ्रीका की सबसे बड़ी झील विक्टोरिया से निकलकर विस्तृत सहारा मरुस्थल के पूर्वी भाग को पार करती हुई उत्तर में भूमध्यसागर में उतर पड़ती है। सफेद नील और नीली नील दो प्रमुख धाराओं से नील नदी निर्मित होती है। सफेद और नीली नील सूडान के खारतूम के पास मिलती है। इसका स्रोत वर्षा बहुल भूमध्यरेखीय क्षेत्र है, अतः इसमें जल का अभाव नहीं होता। इस नदी ने सूडान और मुश्र की मरुभूमि को अपने शीतल जल से सींचकर हरा-भरा बना दिया है। इसीलिए मिश्र को नील नदी का बरदान कहा जाता है। नीलीनील, असबास और सोबात इसकी सहायक नदीयां हैं।

अटलांटिक महासागरीय जल अपवाह प्रणाली

अटलांटिक महासागरीय जल अपवाह प्रणाली

अटलांटिक महासागर अफ़्रीका महाद्वीप के पश्चिमी भाग में स्थित है अतः यह जल अपवाह प्रणाली महाद्वीप के पश्चिमी भाग में स्थित है। कांगो, नाइजर, सेनीगल, किनाने और ओरेंज इस अपवाह प्रणाली की प्रमुख नदीयां हैं। कांगो अफ़्रीका की दूसरी सबसे बड़ी नदी है। इसेजीरे नदी भी कहा जाता है। यह नदी टैगानिक झील से निकलती है। ४३७६ किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद यह अटलांटिक महासागर में गिरती है। नाइजर गिनी तट की पहाड़ियों से निकलकर ४१०० किलोमीटर की यात्रा करने के बाद अटलांटिक महासागर में अपनी यात्रा समाप्त करती है। इसमें पानी की कमी रहती है क्योंकि यह शुष्क क्षेत्र से निकलती है तथा शुष्क क्षेत्र से ही बहती है। इसका प्रवाह मार्ग धनुषाकार है। नाइजर अफ़्रीका की तीसरी सबसे बड़ी नदी है। ओरेंज ड्रेकिन्सवर्ग पर्वत से निकलकर पश्चिम की ओर बहती है। यह गर्मीयों में सुख जाती है।

हिन्द महासागरीय जल अपवाह प्रणाली

यह अपवाह प्रणाली अफ़्रीका के पूर्वी भाग में विस्तृत है। इस क्षेत्र की प्रमुख नदियाँ हैं- जैम्बेजी, जूना, रुबमा, लिम्पोपो तथा शिबेली। जैम्बेजी (२,६५५ किलोमीटर) इस क्षेत्र की सबसे प्रमुख नदी है। यह दक्षिणी अफ़्रीका के मध्य पठारी भाग से निकलकर पूर्व की ओर बहते हुए हिन्द महासागर में गिरती है। जैम्बेजी अफ़्रीका की चौथी सबसे लम्बी नदी है। इस नदी पर अनेक जल प्रपात हैं अतः इस नदी का कुछ भाग ही नौकागमन योग्य है। विश्वप्रसिद्ध विक्टोरिया जलप्रपात इसी नदी पर है।