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अप्पय दीक्षित

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अप्पय दीक्षित (जन्म लगभग 1520 ई.) वेदांत दर्शन के विद्वान्‌ थे । अप्पय दीक्षित दक्षिण भारत के महान आध्यात्मिक योगियों, मौलिक दार्शनिकों और जाने-माने संस्कृत काव्यशास्त्रियों में अग्रगण्य हैं ।

यद्यपि उनके जीवन-वृत्त का एकजाई विवरण हिंदी के किसी भी प्रकाशन में सहज उपलब्ध नहीं है किन्तु अन्य भाषाओं– संस्कृत, तेलुगु तमिल और अंग्रेजी आदि में उनकी कृतियों के विषय में हुए अनेक मौलिक अनुसंधानों ने इस विद्वान के सम्बन्ध में पूरे अकादमिक जगत में अब तक इतनी उत्सुकता पैदा कर दी है कि उनके सम्बन्ध में किये जाने वाले अनुसंधानों की संख्या हर दिन आश्चर्यजनक अनुपात में बढ़ती ही चली जा रही है ! उनके जीवन और कृतित्व के विषय में जो कुछ भी यहाँ-वहां चलताऊ ढंग से लिखा गया है- (खास तौर पर हिंदी में), वह उनके विशाल बौद्धिकत्व का पूरा परिचय नहीं देता, फिर भी यह उनकी अद्भुत रचनाओं का ही प्रताप है, जो आज तक विद्वानों को इनके विषय में सोचने और लिखने के लिए नया आलोक देती आयी हैं । हालाँकि न तो डॉ. थ्योडोर अल्ब्रेष्ट और जॉन बैंटले (A Catalogue of Sanskrit Manuscripts in the Library of Trinity College, Cambridge by Theodor Aufrecht , John Bentley, Trinity College (University of Cambridge ). Library Publication date 1869) और न ही डॉ. आर्थर एंथनी मैकडॉनेल ने अपने संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध इतिहासों में अप्पय दीक्षित के योगदान की चर्चा की, न मैक्स मूलर की प्रख्यात पुस्तक "भारतीय दर्शन की छह प्रणालियां" में उनके बारे में कोई संदर्भ आया, पर पश्चिमी विद्वानों की इस अज्ञान (या बौद्धिक दुराग्रह (?) के बावजूद अनेकानेक लोग एक स्वर से स्वीकार करते हैं- शंकराचार्य के बाद, भारत की अकादमिक दुनिया ने श्री अप्पय दीक्षित जैसा प्रतिभाशाली योगी, आस्तिक और विद्वान दूसरा नहीं देखा । वह संस्कृत काव्यशास्त्री, वेदांत दर्शन के विद्वान्‌ दार्शनिक, सिद्ध याग्निक, हर प्राचीन ज्ञान के दिग्गज व्याख्याकार और चमत्कार कर सकने वाले योगी; सब एक-साथ थे ।

 जन्म और परिवार

कहीं लिखा मिलता है- “अप्पय दीक्षितार का जन्म 1554 ई. में उत्तरी अर्काट जिले में ‘अमी’ के पास, आद्यापलम नामक ग्राम में प्रमतीच वर्ष के कन्या मास के कृष्ण पक्ष में उत्तर प्रौष्ठापद नक्षत्र में हुआ था । ” उनके पिता का नाम था : रंगराजध्वरी दीक्षित । अप्पय का जन्म कब किस तिथि या समय हुआ इस पर अनेक मतभेद हैं ! चार तिथियां हैं जो आम तौर पर उनका जन्म दिवस या जन्मवर्ष बताई जाती हैं : (i) सोमवार 22 सितंबर, 1553 ई. (श्री शिवानंद योगी द्वारा निर्धारित ) (ii) शुक्रवार 15 जुलाई, 1558 (श्री पी.पी.एस. शास्त्री द्वारा उल्लिखित ) (iii) वर्ष 1520 ई. (श्री वाई. महालिंग शास्त्री द्वारा बताया गया ) (iv) वर्ष 1587 ई. (श्री पी. सी. दीवानजी और अन्य द्वारा माना गया ) ऊपर बताई गई पहली तीन का उल्लेख अप्पय दीक्षित के परिवार के वंशजों द्वारा किया गया है जबकि आम तौर पर उत्तर भारतीय शोधकों द्वारा इनका जन्म वर्ष 1587 ईस्वी माना जाता रहा है । असल में है इनका जन्मसमय-जन्मवर्ष क्या है- दृढ़तापूर्वक कुछ भी कहा जाना संभव नहीं पर मोटे-मोटे कुछ तथ्य अवश्य हैं जिनसे प्रायः सभी अनुसंधानकर्ता विद्वान सहमत हैं । जैसे- नामकरण संस्कार के समय भारद्वाज गोत्र के इस अय्यर ब्राह्मण बालक अप्पय का नाम (अपने दादा के नाम पर) ‘विनायक सुब्रमण्य’ रखा गया । आचार्य दीक्षित (या अच्छन दीक्षित) अप्पय के सगे छोटे भाई थे । यथासमय अप्पय ने गुरु रामकवि के अधीन पवित्र शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया और उन्होंने चौदह विद्याएं आश्चर्यजनक सफलता से पूरी कर लीं । एक मेधावी युवा पंडित के बतौर अप्पय का नाम किसी तरह राजदरबार तक भी जा पहुंचा । वेलोर के राजा चिन्ना बोम्मा ने अपने राज्य के मुख्य पंडित रंगराज के निधन के बाद, अप्पय और उनके भाई अच्चन दीक्षित को राजधानी में आमंत्रित किया । वेलोर राज्य के दीवान ताताचार्य, शिवभक्तों के प्रति स्वभाव से बड़ा विद्वेष रखते आये थे, किन्तु अप्पय ने ताताचार्य की उपस्थिति में निर्भीकता से शिव-तत्व की मुक्तकंठ व्याख्या में अपने अगाध ज्ञान, तर्क-शक्ति और वाग्मिता से समस्त विपरीत मतावलंबियों को निरुत्तर कर दिया क्यों कि वे व्याकरण, तत्वमीमांसा और अन्य विद्याओं के गहरे जानकार थे । वेदांत इनकी की व्याख्या अद्वितीय थी। उन्होंने वेलोर की इस आरंभिक राजसभा में सभी उपस्थितों की अनेक दार्शनिक शंकाओं का समुचित समाधान किया जिसके बाद तो उनका नाम और कीर्ति दूर-दूर तक फैल गयी । बाद में तंजावूर, कालहस्ती और तिरुपति के राजाओं ने उन्हें अपने दरबारों में शास्त्र-चर्चा आदि के लिए सम्मानपूर्वक आमंत्रित किया । पर ताताचार्य ने मन ही मन इनसे विद्वेष पाल लिया !इधर रत्नखेट श्रीनिवास दीक्षित, नामक संस्कृत के एक युगीन विद्वान, कामाक्षी देवी, कांचीपुरम के भक्त, चोल दरबार के मुख्य पंडित थे । एक बार चोल राजा ने इन पंडितजी से पूछा, "पंडित जी , आज कौन सा दिन है?" पंडित ने उत्तर दिया, "महाराज आज पूर्णिमा है"। लेकिन, वास्तव में, वह अमावस्या का दिन था। श्रीनिवास दीक्षित के इस जवाब पर सब हँस पड़े । कामाक्षी देवी के सच्चे भक्त श्रीनिवास दीक्षित को बहुत बुरा लगा। श्रीनिवास ने उनसे मन ही मन प्रार्थना की। देवी (सिर्फ श्रीनिवास की दृष्टि के सामने) प्रकट हुईं, उन्हें अपनी एक बाली दी और उसे आकाश की ओर उछाल देने के लिए कहा । श्रीनिवास ने ऐसा ही किया। देवी की कान की बाली ने पूर्णिमा के चाँद का रूप धारण कर लिया और अमावस्या की अंधेरी रात में जैसे पूर्ण चन्द्र उदित हो गया । राजा, मंत्री और अन्य सभी लोग इस अद्भुत दृश्य को देख कर ताज्जुब से जड़ हो गए ! इस अविश्सनीय चमत्कार के बाद राजा ने श्रीनिवास को स्वर्ण सिंहासन दिया, उन्हें आभूषणों से अलंकृत किया और उन का बहुत सम्मान किया ।


  एक विलक्षण-विवाह 

तब तक इन श्रीनिवास को भी पता चल गया था कि अप्पय उस क्षेत्र के दूसरे महान युवा विद्वान थे । श्रीनिवास उन्हें शास्त्रार्थ में हराना चाहते थे इसलिए वह कामाक्षी देवी का आशीर्वाद पाने के लिए कांचीपुरम गए । उन्होंने वहां घोर तपस्या की । अंततः देवी उनके सामने प्रकट हुईं और जब उनसे कोई वरदान मांगने को कहा तो श्रीनिवास ने कहा, "हे देवि! अगर मुझ पर आपकी कृपा है तो सभी कलाएँ मेरी जिव्हा पर साक्षात् आसीन हों । मुझे आपकी कृपा और सहायता से बस उस अप्पय दीक्षित को पराजित करना है, जो महान् विद्वान और वक्ता है । आपके अनुग्रह से मेरा नाम और यश सारी दुनिया जानती है । कृपया इसे बनाए रखने में अपना आशीष प्रदान करें! ” इस पर देवी ने कहा- "भक्त श्रीनिवास, अप्पय कोई साधारण मनुष्य नहीं । वे वास्तव में भगवान शिव के अंश-अवतार हैं और तुम्हारे रूप में तो स्वयं, मैं ही हूँ- अतः उन के साथ आप किसी वाद-विवाद में न पड़ें । अपनी बड़ी पुत्री मंगलाम्बिका का विवाह अप्पय से कर दें और इस विधि से उसके ससुर बन जाएं, तभी आपकी वांछित मनोकामना पूरी होगी”। उसी समय, भगवान शिव भी अप्पय के सपने में प्रकट हुए और कहा, "वत्स, कांचीपुरम चले जाओ। वहां पंडित श्रीनिवास अपनी पुत्री का विवाह तुम से कर देंगे !" इस स्वप्न को ही ईश्वरीय आज्ञा मान कर अप्पय कांचीपुरम गए और वहीं रहने लगे । तब श्रीनिवास एक दिन अपनी बेटी को लेकर अप्पय के घर जा पहुंचे । अप्पय ने श्रीनिवास को विधिवत अर्घ्य, पद्य, आसन आदि देकर सम्मानित किया । जब श्रीनिवास ने तब अपने आगमन का उद्देश्य उनके सामने स्पष्ट किया तो अप्पय ने मंगलाम्बिका से विवाह कर लिया । तत्पश्चात उन्होंने एक सद्गृहस्थ का जीवन व्यतीत किया। उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों से उनके पास आने वाले सभी छात्रों को नि:शुल्क शिक्षा दी। मुक्त कंठ से शिव का यशोगान किया ! अप्पय की दो बेटियां थीं। छोटी बेटी, मंगलाम्बा, भगवान शिव की बहुत बड़ी भक्त हुई । अप्पय्या ने आद्यपालम में एक मंदिर का निर्माण किया और अपनी दैनिक आराधना के लिए ‘कलाकान्तेश्वर’ का विग्रह स्थापित किया । वह तीर्थयात्रा पर भी गए और उन्होंने भावभक्ति में निमग्न हो कर नंदी पर्वत , मध्यार्जुन, पंचनदम (थिरुवयारु), मदुरै, रामेश्वरम, शिवगंगई, जम्बुकेश्वरम, श्रीरंगम, श्वेतारण्यम, कांचीपुरम, काशी, वेदारण्यम, मातृभुतेस्वरम, चिदंबरम, विरुधचलम, तिरुवन्नामलाई, विरिंचिपुरम और अन्य तीर्थों का दर्शन किया । अप्पय जब चिदंबरम गए तो कुछ अतिरिक्त समय के लिए वहाँ रहे । उन्होंने कहा कि उनके पोते नीलकंठ मदुरै में पांडियन राजा के मंत्री बनेंगे और शिवद्वैत की स्थापना करेंगे । यह भविष्यवाणी कालांतर में एकदम सटीक निकली!

इनके अध्ययन और लेखन का प्रमुख लक्ष्य था- अद्वैत वेदांत का ज्ञान फैलाना । शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित अद्वैत दर्शन की पुनः स्थापना करना ही इनका अभीष्ट था । द्वैत और विशिष्टाद्वैत सम्प्रदायों के आलोचनात्मक परीक्षण के माध्यम से अप्पय दीक्षित ने यह काम महर्षि व्यास के ब्रह्मसूत्र पर लिखे अपने भाष्य में किया ! उन्होंने उत्तर भारतीय विचारक और धर्माचार्य वल्लभ के दर्शन, शुद्ध अद्वैत का वैचारिक आधार पर सफलतापूर्वक खंडन करते हुए इस संप्रदाय के अनेक विद्वानों से कई मंचों पर वाद-विवाद-शास्त्रार्थ किया! उन्होंने पूरे दक्षिण भारत में शैव-धर्म और दर्शन को एक नया जीवन और दिशा दी, अनगिनत लोगों को भक्ति के मार्ग पर चलाया। अपने स्वयं के अनुकरणीय जीवन से उन्होंने नास्तिकों को धर्मांतरित किया, विधर्मी हो चुके लोगों को पुनः स्वधर्म में लौटने के लिए प्रेरित किया उनमें और भगवान शिव की भक्ति के प्रति एक दृढ़ विश्वास पैदा किया । अपनी कृति ‘शिवर्कमणिदीपिका’ में उन्होंने घोषित किया कि केवल ईश्वरीय अनुकम्पा से ही मनुष्यगण वेदांत-दर्शन के अध्ययन का स्वाद प्राप्त कर सकते हैं । किसी दार्शनिक ने शंकर-दर्शन को इतने आश्वस्तिपरक और दृढ़ताजनक ढंग से नहीं समझाया जैसा अप्पय ने किया । अप्पय ने ब्रह्मसूत्र और अन्य अद्वैतिक ग्रंथों पर अपनी टिप्पणियों के माध्यम से श्री शंकर के विचारों को अनगिनत पाठकों तक पहुँचाया । विलक्षण बात यह है- अप्पय दीक्षित ने अन्य धर्मों और दर्शनों पर एक निष्पक्ष दृष्टिकोण रखा। उनकी पुस्तक ‘चतुर्मत-सार-संग्रह’ से पता चलता है कि वह विचार के अन्य सम्प्रदायों, अर्थात् द्वैत, विशिष्टाद्वैत और शुद्ध अद्वैत आदि के प्रति सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त थे । अप्पय दीक्षित वेदांत के प्रत्येक स्कूल की व्याख्या उस सम्प्रदाय के सबसे प्रबल प्रतिपादक के मत-अनुसार ही करते हैं, अपने स्वयं के व्यक्तिगत झुकाव को कम से कम प्रकट किए बिना ऐसा करना कितनी बड़ी बौद्धिक ईमानदारी की बात है । अप्पय दीक्षित के मन में किसी भी देवता के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं था। जैसे श्री शंकराचार्य, जो स्वयं भगवान शिव के अवतार माने जाते हैं, ने अल्पायु में संन्यास ग्रहण किया और लोगों को सन्यास का महत्त्व प्रतिपादित किया कुछ इसी तरह, अप्पय दीक्षित, भगवान शिव के एक अंशावतार, ने गृहस्थाश्रम में रहते हुए दुनिया को उसके माध्यम से ही मोक्ष की विधि सिखाई । श्री शंकराचार्य भगवान शिव के अवतार थे, इस कथन के समर्थन में हमें ‘शिवरहस्य’ में निम्नलिखित उद्धरण मिलता है : "चतुर्भि सहशिष्यस्थु शंकरोवतारिश्यति’। चार शिष्यों के साथ शंकर अवतार लेंगे”। फिर दीक्षित के मामले में भी, हम उसी शास्त्र पाठ में पाते हैं: "दीक्षितोपि भवेत कश्चिच छैवासछान्दोदग्यवंशज" हालांकि श्री शंकराचार्य ने भले निवृत्ति-मार्ग का अनुसरण किया हो , उन्होंने ‘प्रवृत्ति-मार्ग’ की उपेक्षा नहीं की। वे अपने ‘साधना-पंचक’ में कहते भी हैं: ‘वेदो नित्यमधीयाताम् तदुदिताम् कर्मस्वनुष्ठेयताम् ।’ वेदों को सीखो और पढ़ाओ और उनके आदेशों के अनुसार कर्म करो । इसी तरह अप्पय ने निवृत्ति या सन्यास की उपेक्षा नहीं की। वे कई वेदांतिक ग्रंथों के प्रसिद्ध लेखक हैं जिनमें सभी उपनिषदों का सार निहित है ।

     अप्पय के बहुश्रुत चमत्कार 

जीवन-काल के अपने आरंभिक वर्षों से ही अप्पय के साथ अनगिनत दंतकथाएं जुड़ती चली गयी हैं और वैज्ञानिक-तर्क की कसौटी पर वे विचित्र घटनाएं वे ये साबित ज़रूर करती हैं, दक्षिणी प्रान्तों  के अलावा,  पूरे संस्कृत साहित्य में अप्पय की जगह और महत्त्व क्या है !  बौद्धिक-जगत में अप्पय का माहात्म्य उनके साथ जुड़ी चमत्कारों की अनेकानेक घटनाओं की बजाय उनकी ज्ञान से परिपूर्ण कृतियों के कारण कहीं अधिक है फिर भी उनका उल्लेख किया जा सकता है-

1. सोम यज्ञ आहुति : अप्पय, जिन्हें ‘दीक्षितेंद्र’ के नाम से भी जाना जाता है, ने चंद्रमौलेश्वर को प्रसन्न करने के लिए सोम-यज्ञ किया। उन्होंने कांचीपुरम में वाजपेय-यज्ञ किया। इस यज्ञ में सत्रह घोड़ों की बलि दी गई । कुछ विद्वानों ने आरोप लगाया कि अश्व-बलि से हिंसा हुई। लेकिन अप्पय ने दर्शकों को दिखा दिया कि वैदिक मंत्रों के माध्यम से से किस तरह इन घोड़ों को उन्होंने मोक्ष ही दिया है । सिद्धों, चारणों और गंधर्वों के स्तुतिपाठ  के बीच यज्ञ के दर्शकों ने घोड़ों को स्थूल शरीर छोड़ कर स्वर्ग की ओर बढ़ते देखा । यही नहीं आकाश से इन मृत अश्वों ने अप्पय की स्तुति कीऔर कहा, "आपकी कृपा के कारण, हमें स्वर्ग में प्रवेश करने का सौभाग्य मिला है" । इस पर शंकालु विद्वानों का संदेह दूर हो गया । 2. मृगचर्म को ज्वर एक बार अप्पय को तेज बुखार हो गया । राजा चिन्ना बोम्मा अप्पय  को देखने उनके घर आए । तब कुछ देर को अप्पय  ने अपना रोग पास रखे मृगचर्म (हिरण की खाल के आसन)  में स्थानांतरित कर दिया । मृगचर्म ज्वर से काँपने लगा । राजा को यह देख कर गहरा विस्मय हुआ । 3. कांचीपुरम में एक चमत्कार तंजावुर के राजा नरसिम्हा और कई अन्य लोगों ने देखा था । अप्पय ने कांचीपुरम् में ‘पासुबंध यज्ञ’ किया । वरदराजा की मूर्ति के समक्ष पवित्र अग्नि में आहुति देने वाले सभी पीतांबर और अन्य आभूषण डाले गए । यज्ञ कुंड में उठी अग्नि आकाश तक पहुँची जिसने अप्पय की महिमा का सशब्द बखान किया और अप्पय को वे सभी पीले वस्त्रादि वापस भेंट कर दिए जो उसके द्वारा अग्नि में बतौर आहुति डाले गए थे । 4. जब वे दक्षिण भारत के प्रसिद्ध तिरुपति मंदिर गए तो कुछ वैष्णवों ने उन्हें दर्शनार्थ प्रवेश देने से मना कर दिया । पर अगली सुबह पुजारियों ने मंदिर के  विष्णु विग्रह  को शिवमूर्ति में बदल गया पाया । इस पर महंत चौंक गए बहुत व्यथित  हुए और तब उन्होंने अप्पय दीक्षित से हार्दिक क्षमा मांगी और उनसे मूर्ति को फिर से विष्णु मूर्ति में बदलने की प्रार्थना की । 5. ताताचार्य के उकसाने पर कुछ लोगों द्वारा किए गए जादू-टोने के कारण वेलोर की रानियां बीमार पड़ गईं । तब अप्पय ने ही उन्हें मंत्र-शक्ति से ठीक किया । इसके बाद भी ताताचार्य  ने विभिन्न तरीकों से अप्पय  को परेशान करना जारी रखा । उसने अप्पय  को जहर देने के लिए विष्णु मंदिर के पुजारी को भारी रिश्वत तक दी । लालच में अंधे हो गए पुजारी ने चरणामृत में विष मिला कर अप्पय को दे दिया । अप्पय को इसका भान हो गया, पर चरणामृत भूमि पर फेंकने की बजाय अप्पय ने भगवान हरि से प्रार्थना की और तब वह विष शरबत में बदल गया । 6. ताताचार्य  ने अप्पय  को मारने की एक और योजना बनाई । उन्होंने अप्पय  को एक पत्र लिखा और राजा चिन्ना बोम्मा के जाली हस्ताक्षर किए । उस पत्र में चिन्ना बोम्मा ने अप्पय  से रात को अंधेरे में मिलने का अनुरोध किया था । ताताचार्य ने सेनापति को आदेश दिया कि वे अप्पय को मारने के लिए सैनिकों को हथियार ले कर भेजें । जब अप्पय अपने राजा से मिलने के लिए आगे बढ़े तो सैनिक अप्पय की हत्या के लिए तैयार थे । जैसे ही उन्होंने अप्पय को अपने सामने देखा, वे हिलने-डुलने में असमर्थ हाथ में नंगी तलवारें लिए अपने स्थान पर जड़वत्, मूर्तिवत् खड़े रह गए और अप्पय का बाल भी बांका न कर सके । 7. एक बार अप्पय अपने शिष्यों के साथ मार्ग-सहाय उत्सव में भाग लेने के लिए विरिंचिपुरम जा रहे थे । रास्ते में उन्हें ताताचार्य  द्वारा भेजे कुछ दुर्दांत डकैतों ने घेर लिया । (ताताचार्य खुद भी डकैतों की भीड़ में अप्पय का अंत देखने को भेस बदल कर शामिल थे)  अब अप्पय ने उन्हें सबक सिखाना ज़रूरी माना और अपनी नेत्रज्योति की भयंकर ज्वाला से पहले तो  सब को जला कर राख कर दिया फिर इसी करुणामयी अप्पय ने अपने हाथों से उस भस्म का स्पर्श किया और सभी को जीवनदान दे दिया । तब ताताचार्य  ने अप्पय से अपने गत सभी कुकृत्यों के लिए बार बार क्षमा माँगी और उनके चरणों में नतमस्तक हो गए। जैसे ही ताताचार्य ने अप्पय के चरणों में आत्म-समर्पण किया, उनके सारे पाप धुल गए । एक क्षण में उनके बरसों से चले आये सारे शत्रुतापूर्ण विचार भी गायब हो गए मन-कलुष धुल गया और इसके बाद तो वह अप्पय के बहुत अच्छे मित्र और भक्त बन गए । अप्पय ने तब प्रायश्चित्त के लिए ताताचार्य को पक्षी-तीर्थ* जाने और वहाँ अड़तालीस दिनों तक आराधना में अहर्निश संलिप्त  रहने की सलाह दी । ताताचार्य ने इस आज्ञा का पालन किया । उन्होंने बाद में ‘पक्षी तीर्थ’ के इस मंदिर का भव्य पुनर्निर्माण किया !


    ग्रन्थ-संपदा

अप्पय दीक्षित एक सौ चार से अधिक ग्रंथों के प्रतिष्ठित लेखक कहे गए हैं, जो संस्कृत भाषा और साहित्य में ज्ञान की सभी शाखाओं का जैसे प्रतिनिधित्व करते हैं । उन्होंने मुख्य रूप से वेदांत-दर्शन पर अपने मौलिक लेखन से बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त की ।


संस्कृत-शिक्षा और साहित्यशास्त्र  की लगभग सभी शाखाओं-कविता, अलंकार, काव्य-दर्शन आदि में-अप्पय  दीक्षित का नाम उनके समकालीनों में अद्वितीय था ।  इनमें से कम से कम 104 तो इन्हीं की रची रचनाएं निर्विवादित रूप से हैं ही...

दक्षिण भारत के एक प्रख्यात शोधक जे. एम. नल्लस्वामी पिल्लई  (1864-1920)  ने जो तमिल आदि भाषाओँ में अप्पय दीक्षित का  का संक्षिप्त जीवनवृत्त लिख चुके हैं  94 ग्रंथों का अकारादिक्रम से सूचीकरण किया है ! (1) अधिकारमाला (2) अपितुकुचमबस्तव (3) अमरकोशस्य व्याख्या  (4) अरुणाचलेश्वरस्तुति (5) आत्मापनास्तुति (या शिव-पंचसिका) (6) आदित्यस्तवरत्नम (या द्वादसादित्यस्तव)। सूर्य के अधिष्ठाता देवता की स्तुति में बारह श्रागधारा छंद। (7) उपर्युक्त पर एक टिप्पणी। (8) उपक्रमपराक्रम  जो डॉ. बर्नेल को मीमांसा पर किसी कार्य का एक भाग प्रतीत होता है । (9) कुवलयानंद । जयदेव के चंद्रलोक पर व्यापक रूप से ज्ञात टिप्पणी, अलंकार पर एक काम। (10) कृष्णध्यानपद्धति। (11) उसी पर एक टिप्पणी। (12) (दुर्गा) चंद्रकलास्तुति (13) उपर्युक्त पर एक टिप्पणी। (14) चित्रपुट । मीमांसा पर एक कृति। (15) चित्रमीमांसा, लोकप्रिय अलंकार कार्य, जिसकी आलोचना जगन्नाथ ने अपने ग्रन्थ चित्रमिमांसखंडन में की थी। (16) जयोलसनिधि । (17) तत्वमुक्तावली (वेदांतिक)

अप्पय दीक्षित की लिखी 104 पुस्तकों की पूरी सूची यहाँ द्रष्टव्य है : https://shaivam.org/devotees/works-of-sri-appaiya-dikshita/

  निधन

श्री जे. एम. नल्लास्वमी पिल्लई ने लिखा है- अप्पय दीक्षित ने  भट्टोजि को वेदांत पढ़ाया था और उन्हें अपने स्वयं के वेदांत-सूत्रों से भी परिचित कराया। यह बात भट्टोजि द्वारा अपने ‘तत्वकौस्तुभ’ में उद्धृत अप्पय के सम्बन्ध में लिखे कई छंदों से साबित है।

अप्पय को हम उनके 72वें वर्ष में काशी (बनारस) में ‘भामिनीविलास’ के लेखक प्रसिद्ध जगन्नाथ पंडितराज और ‘सिद्धांतकौमुदी’ के लेखक भट्टोजि दीक्षित के साथ पाते हैं  !  अपने जीवन के अंतिम वर्ष के पहले हिस्से में, अप्पय भट्टोजि और जगन्नाथ दोनों के संपर्क में थे, और बाद के आधे हिस्से में, उन्होंने वेल्लोर के पास विरिंचिपुरम में एक महान यज्ञ किया, और उसके बाद अपने ग्यारह पुत्रों और पौत्र नीलकंठ के साथ वह चिदंबरम चले गए, जहां विधि ने उनके जीवन का समापन-दृश्य लिख रखा था ।

जाने-माने संस्कृतज्ञ नीलकंठ दीक्षित अप्पय के पोते थे । जिन्होंने लिखा है- अप्पय 72 वर्ष की आयु तक जीवित रहे। उनकी आयु नीलकंठ के शिवलीलार्नव के एक छंद से भी ज्ञात होती  है- मार्गशीर्ष महीने के चैत्र पूर्णिमा के दिन, अपने बहत्तरवें वर्ष में, अप्पय की देह चिदंबरम के नटराज के साथ एकात्मक हो गयी!

कृतियाँ

इनके द्वारा रचित अलंकार ग्रन्थ निम्नलिखित हैं-

  • वृत्तिवार्तिकम्
  • कुवलयानन्दः
  • चित्रमीमांसा
  • लक्षणरत्नावली

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

Special issue of Journal of Indian Philosophy (March 2016, edited by Christopher Minkowski):

Other (scholarly journal articles):

Still other:

  • N. Ramesan, Sri Appayya Dikshita (1972; Srimad Appayya Dikshitendra Granthavaliu Prakashana Samithi, Hyderabad, India)
  • https://web.archive.org/web/20070111220640/http://www.shaivam.org/adappayya_works.htm