अपराध
अपराध या दंडाभियोग (crime) की परिभाषा भिन्न-भिन्न रूपों में की गई है; यथा,
- दंडाभियोग समाजविरोधी क्रिया है;
- समाज द्वारा निर्धारित आचरण का उल्लंघन या उसकी अवहेलना दंडाभियोग है;
- यह ऐसी क्रिया या क्रिया में त्रुटि है, जिसके लिये दोषी व्यक्ति को कानून द्वारा निर्धारित दंड दिया जाता है।अर्थात अपराध कानूनी नियमो कानूनों के उल्लंघन करने की नकारात्मक प्रक्रिया है जिससे समाज के तत्वों का विनाश होता है ।
इन परिभाषाओं के अनुसार किसी नगरपालिका के बनाए नियमों का उल्लंघन कर यदि कोई रात में बिना बत्ती जलाए साइकिल पर नगर की सड़क पर चले अथवा बिना पर्याप्त कारण के ट्रेन की जंजीर खींचकर गाड़ी खड़ी कर दे, तो वह भी उसी प्रकार दोषी माना जाएगा, जिस तरह कोई किसी की हत्या करने पर। किंतु साधारण अर्थ में लोग दंडाभियोग को हत्या, डकैती आदि जघन्य अपराधों के पर्याय के रूप में ही लेते हैं। लौकिक मत के अनुसार कोई चालक यदि तेजी एवं असावधानी से मोटर चलाते हुए किसी को अपनी गाड़ी से कुचल दे तो वह अपराधी नहीं कहा जा सकता, यदि उसके मन में अपराध करने की भावना न रही हो। जब हम गलती करते हैं तब वह अपराध कहलाता है
दण्डाभियोग के लिए आवश्यक शर्तें
परंपरागत मान्यताओं के अनुसार दंडाभियोग की पूर्णता के लिये दो चीजें अवश्य हैं -
- अपराध करने की इच्छा से युक्त मन (mens rea), तथा
- तदनुयायी आपराधिक कार्य या दोषपूर्ण कार्य (actus reus)।
यदि कोई चोरी करने के अभिप्राय से किसी के घर की खिड़की से घर के अंदर की चीजों को देखे तथा रात्रि में सेंध लगाकर चोरी करने की योजना बनाकर ही लौट जाय तो उसपर चोरी के अपराध का अभियोग नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि अपराधी मन की योजना का कार्यान्वयन नहीं हुआ, भले ही दूसरे के घर में अनधिकार प्रवेश करने के लिये वह दोषी क्यों न हो। चोरी के अपराध की पूर्णता के लिये दूसरे की चीजों को कम से कम स्पर्श करना आवश्यक है। अत: वह व्यक्ति यदि अपनी योजना के अनुसार रात्रि में सेंध लगाकर उस घर की चीजें उठा ले जाय तभी वह चोरी के लिये अपराधी होगा। किंतु आधुनिक सभ्यता के विकास के साथ साथ समाज में जटिलता आने के कारण नित्य नए नए कानून बन रहे हैं, जिनसे दंडाभियोग का दोषपूर्ण मन (mens rea) का सिद्धांत लुप्त होता जा रहा है।
साधारणत: जो स्वयं अपराध करे या दूसरों के द्वारा अपराध करावे, वही दंडित होगा। अत: स्वामी अपने सेवक के अनधिकार अपराध के लिये दायी नहीं हो सकता। किंतु एक सीमित वर्ग के मामलों में, जहाँ अपराध करने की मानसिक प्रवृत्ति (Mens rea) आवश्यक नहीं है, यदि कोई सेवक अपने साधारण कार्य के दौरान में कोई अपराध करे या कानून द्वारा निर्धारित किसी काम को न करने से अपराधी बने, तो उनका स्वामी अपराध के लिये उसके साथ साथ दोषी होगा; भले ही स्वामी को सेवक के काम की या निर्धारित काम में त्रुटि की खबर न रही हो, या सेवक ने स्वामी के आदेश के विरुद्ध की काम क्यों न किया हो अथवा निर्धारित काम करने से विरत हुआ हो।
कारण
दंडाभियोग के भिन्न-भिन्न कारण हो सकते हैं; यथा, क्षणिक आवेग, भावुकता, पूर्वविचार, भावी विनाश से रक्षा, आदि। दृष्टांत के लिये राजनीतिक हत्याओं को ले सकते हैं। किसी राजनीतिक लक्ष्य की पूर्ति के निमित्त कुछ लोग षड्यंत्र कर राज्य के प्रमुख की हत्या कर डालते हैं। ऐसा पूर्व विचार से ही होता है, क्षणिक आवेग से नहीं। प्रत्यक्ष हत्यारा भावुकता से, पैसे के लोभ से या अपने दल के लक्ष्य की पूर्ति के कारण अपराध करता है। उसके गिरफ्तार होने पर इस आशंका से कि कहीं वह रहस्य का उद्घाटन कर अपने साथियों का विनाश न करवा दे, षडयंत्रकारी उसका वध कर देते हैं। इसी प्रकार डकैती करते हुए जब एक डाकू घायल होकर गिर पड़ता है तो उसके साथी उसे ढोकर ले जाने में अक्षम होने के कारण उसका सिर काट ले जाते हैं, ताकि उसके मृत शरीर के द्वारा उसकी पहचान न हो सके या जीवित रहने पर क्षमा पाने के आश्वासन से वह अपने दल का रहस्य न खोल दे।
अपराध के कुछ प्रमुख कारण निम्न है--
- आर्थिक कारण
- मनोवैज्ञानिक कारण
- शारीरिक विकार
- स्वास्थ्य/स्वस्थ मनोरंजन के साधनों की कमी
- चलचित्र
- मनौविज्ञानिक कारण
अपराध और वातावरण
जन्म या आनुवंशिकता (heredity) का दंडाभियोग से क्या संबंध है, निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता; किंतु हम वातावरण के प्रभाव अस्वीकार नहीं कर सकते। यह साधारण अनुभव है कि कलुषित वातावरण अपराध करने की भावना को प्रोत्साहन देता है। चोरों की संगति में यदि किसी शिशु को रख दिया जाय तो क्रमश: उसकी मनोवृत्ति चोरी की ओर अग्रसर अवश्य होगी। इस प्रकार यदि कम अवस्था के शौकिया अपराधी को साधारण कैदियों के साथ जेल में रखा जाय तो इस स्थिति का प्रभाव उसे संभवत: कारावास से मुक्त होने पर अपराध करने को प्रेरित करे। अत: प्रगतिशील समाज में शौकिया अपराधियों को दंडाभियोग से विरत करने के अभिप्राय से अपराध को प्रोत्साहन देनेवाले वातावरण से पृथक् रखने की योजना की गई है। इंग्लैंड में प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व ही वोर्स्टल नामक संस्था खुली। शौकिया तथा कम अवस्था के अपराधियों का सुधार करना इनका उद्देश्य था। क्रमश: अन्यान्य प्रगतिशील देशों में यह संस्था खुली। प्रोबेशन ऐक्ट भी लागू हुआ। शिशु एवं युवक अपराधियों को अपराध के लिये दंडित होने पर उन्हें जेल में न रखकर उनके अभिभावकों द्वारा नेकचलनी का आश्वान मिलने पर उन्हें परिवीक्षा (probation) पर छोड़ दिया जाता है। यदि हत्या आदि गुरुतम अपराधों के लिये वे दंडित हुए हैं, तो उन्हें बोरस्टल संस्था के हवाले किया जाता है। इस संस्था में स्वस्थ वातावरण रहता है, जिससे अपराधियों के सुधार में सहायता मिलती है। उन्हें उपयोगी व्यवसाय की भी शिक्षा दी जाती है, ताकि दंड की निर्धारित अवधि पूरी कर घर लौटने पर वे सच्चाई से अपनी जीविका चला सकें।
अपराधियों की श्रेणी
कोई व्यक्ति या तो स्वयं अथवा निमित्त रूप में अपराधी हो सकता है या घटना से पूर्व अथवा पश्चात् सहायक हो सकता है। कोई या तो स्वयं अपराध करता है या अन्य किसी एजेंट से कराता है, जो कानूनन अपराध के लिये उत्तरदायी नहीं होता, यथा सात साल से कम अवस्था का शिशु, कोई पशु या कोई मशीन। ऐसा व्यक्ति प्रधान अपराधी कहलाता है। द्वितीय श्रेणी का प्रधान वह है जो घटनास्थल पर उपस्थित रहकर प्रधान को अपराध कर्म में सहायता देता है या उसे प्रोत्साहित करता है। घटना से पूर्व का सहायक वह है जो प्रधान को अपराध करने को प्रोत्साहित करता है किंतु अपराध के समय उपस्थित नहीं रहता। घटना से पश्चात् का सहायक वह है जो यह जानते हुए कि किसी ने गुरुतर अपराध किया है, उसे शरण देता है या उसे भागने में सहायता पहुँचाता है। इस प्रसंग में स्मरणीय है कि राजद्रोह में जितने लोग संमिलित होते हैं, सबके सब प्रधान अपराधी होते हैं। दंड की गुरुत्ता एवं लघुता की दृष्टि से उक्त श्रेणीकरण उपयोगी है।
दंडाभियोग का वर्गीकरण
दंडाभियोग के अपराध साधारणत: निम्नलिखित वर्गों में विभक्त होते हैं-
(1) राष्ट्र की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा के विरुद्ध,
(2) न्याय के आलय में लाए जाने एवं जनता के अधिकारियों के विरुद्ध,
(3) साधारण जनता के विरुद्ध,
(4) सांपत्तिक अपहरण।
दंडाभियोग की प्रतिरक्षा
कानून का अज्ञान दंडाभियोग के बचाव में स्वीकार नहीं किया जाता। वह विदेशी, जिसे अन्य देश के कानून की जानकारी नहीं है, इस बचाव को पेश नहीं कर सकता, यद्यपि दंडादेश की कठोरता में प्राय: इससे कमी की जा सकती है।
जिन मामलों में दोषपूर्ण मन आवश्यक है, वहाँ दुर्घटना बचाव में ली जा सकती है। अभियुक्त अपने प्रति लाए हुए अभियोग को स्वीकार करते हुए कह सकता है कि वह कानूनी ढंग से काम कर रहा था, पर अन्यमनस्कता के कारण, सबोध (culpable) उपेक्षा के बिना, दुर्घटना हो गई।
यदि किसी व्यक्ति या उसकी संपत्ति का अनधिकार स्पर्श हो तो मामला चलानेवाले की स्वीकृति पूर्ण बचाव है। किंतु यह स्वीकृति कपट, धमकी या हिंसा से प्राप्त हुई हो तो इसकी मान्यता नहीं होगी।
यदि दो व्यक्ति अपनी आत्महत्या की योजना बनाएँ एवं उस योजना के अनुसार एक आत्मघात कर ले, कर दूसरा बच जाय तो दूसरा पहले की हत्या के लिये अभियुक्त होगा।
यह किसी की क्षमता के बाहर है कि वह स्वीकृति दे कि वह दंडाभियोग नहीं लाएगा।
दंडाभियोग की अवधि
कानून द्वारा निर्दिष्ट कुछ अपवादों को छोड़कर दंडाभियोग की कोई अवधि भारत या इंग्लैंड में नहीं है। अभियुक्त सदा अपने अपराध के लिये उत्तरदायी है, अपराध की तिथि से भले ही कितना भी समय क्यों न व्यतीत हो जाय। यूरोप के देशों में अपराध की तिथि से 20 साल के बाद कोई अभियोग नहीं लाया जा सकता।
अपराध विज्ञान
अपराध विज्ञान का दंडदायित्व से इतना ही संबंध है कि यह अपराधी को समझने की चेष्टा करता है। उसे पहचानना इसकी परिधि से बाहर है। इसका सिद्धांत इस तथ्य पर आधारित है कि कोई परिस्थिति से पराभूत होकर ही अपराध की ओर अग्रसर होता है। यथा, अर्थ या नैतिक संकट किसी को दूसरे की संपत्ति का अपहरण करने को प्रोत्साहित कर सकता है। विक्षिप्तता या मानसिक असंतुलन भी अपराध को प्रश्रय देते हैं। अत: वैज्ञानिक उपचारों के प्रयोग से तथा परिस्थिति को अनुकूल कर अपराधी को अपराध से विरत करना चाहिए। अन्य शब्दों में यह विज्ञान "दंड" के स्थान में "सुधार" का समर्थन करता है। अमरीका में इस सिद्धांत की मान्यता बढ़ रही है। भारत या इंग्लैंड में इसका बहुत कम प्रभाव जनता या न्यायालय पर पड़ा है।
इन्हें भी देखें
- व्यभिचार
- अपराध शास्त्र
- भारतीय दण्ड संहिता
- दण्ड प्रक्रिया संहिता
- दण्डदायित्व
- दण्डविधि
- दण्डदायित्व
- दण्ड न्यायालय
- दण्ड प्रक्रिया