अन्धता
दृष्टि दोष, एक चिकित्सा परिभाषा है जिसे मुख्य रूप से किसी व्यक्ति की बेहतर नेत्र दृश्य तैक्ष्ण्य के आधार पर मापा जाता है; सुधार योग्य चश्मों, सहायक उपकरणों, और चिकित्सा उपचार जैसे उपचार के अभाव में - दृष्टि दोष पठन और चलन सहित सामान्य दैनिक कार्यों के साथ व्यक्तिगत काठिन्यों का कारण बन सकता है। क्षीण दृष्टि दृश्य दोष की एक कार्यात्मक परिभाषा है जो पुरानी है, उपचार या सुधार योग्य लेंस के साथ ठीक नहीं है, और दैनिक जीवन को प्रभावित करती है। इस प्रकार क्षीण दृष्टि को अक्षमता मीट्रिक के रूप में उपयुक्त होता है और यह किसी व्यक्ति के अनुभव, पर्यावरणीय मांगों, आवास और सेवाओं तक पहुंच के आधार पर भिन्न होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन इसे बेहतर नेत्रों में 6/12 से कम पेश करने वाली तैक्ष्ण्य के रूप में परिभाषित करता है।[1] आन्ध्य या अन्धता शब्द का प्रयोग पूर्ण या लगभग पूर्ण दृष्टि दोष के लिए किया जाता है। विभिन्न स्थायी स्थितियों के अलावा, क्षणिक अस्थायी दृष्टि दोष, एमोरोसिस फुगैक्स हो सकता है, और गम्भीर चिकित्सा समस्याओं का संकेत हो सकता है।
कारण
इस दशा के निम्नलिखित विशेष कारण होते हैं:
- (1) पलकों में रोहे या कुकरे (ट्रैकोमा),
- (2) चेचक या माता,
- (3) पोषणहीनता (न्यूट्रिशनल डेफ़ीशिएंसी),
- (5) समलबाई (ग्लॉकोमा),
- (6) मोतियाबिंद और
- (7) कुष्ठ रोग
भारत के उत्तरी भागों में, जहाँ धूल की अधिकता के कारण रोहे बहुत होते हैं, यह रोग अधिक पाया जाता है। देशवासियों की आर्थिक दशा भी, बहुत बड़ी सीमा तक, इस रोग के लिए उत्तरदायी है। उपयुक्त और पर्याप्त भोजन न मिलने से नेत्रों में रोग हो जाते हैं जिनका परिणाम अंधता होती है।
रोहे या कुकरे (ट्रैकोमा)
यह रोग अति प्राचीन काल से अंधता का विशेष कारण रहा है। हमारे देश के अस्पतालों के नेत्र विभागों में आने वाले 33 प्रतिशत अंधता के रोगियों में अंधता का यही कारण पाया जाता है। यह रोग उत्तर प्रदेश, पंजाब, बिहार तथा बंगाल में अधिक होता है। विशेषकर गाँवों में स्कूल जाने वाले तथा उससे भी पूर्व की आयु के बच्चों में यह रोग बहुत रहता है। इसका प्रारंभ बचपन से भी हो जाता है। गरीब व्यक्तियों के रहने की अस्वास्थ्यकर गंदगीयुक्त परिस्थितियाँ रोग उत्पन्न करने में विशेष सहायक होती हैं। इस रोग के उपद्रव रूप में कार्निया (नेत्रगोलक के ऊपरी स्तर) में व्रण (घाव) हो जाता है जो उचित चिकित्सा न होने पर विदार (छेद, पर्फोरेशन) उत्पन्न कर देता है, जिससे आगे चलकर अंधता हो सकती है।
इस रोग का कारण एक वाइरस है जो रोहों से पृथक् किया जा चुका है।
लक्षण और चिह्न
रोहे पलकों के भीतरी पृष्ठों पर हो जाते हैं। प्रत्येक रोहा एक उभरे हुए दाने के समान, लाल, चमकता हुआ, किंतु जीर्ण हो जाने पर कुछ धूसर या श्वेत रंग का होता है। ये गोल या चपटे और छोटे बड़े कई प्रकार के होते हैं। इनका कोई क्रम नहीं होता। इनसे पैनस (अपारदर्शक तंतु) उत्पन्न होकर कार्निया के मध्य की ओर फैलते हैं। इसका कारण रोगोत्पाद वाइरस का प्रसार है। यह दशा प्रायः कार्निया के ऊपरी अर्धभाग में अधिक उत्पन्न होती है।
रोग के सामान्य लक्षण
पलकों के भीतर खुजली और दाह होना, नेत्रों से पानी निकलते रहना, प्रकाशासह्यता और पीड़ा इसके साधारण लक्षण हैं। संभव है, आरंभ में कोई भी लक्षण न हो, किंतु कुछ समय पश्चात् उपर्युक्त लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। पलक मोटे पड़ जाते हैं। पलकों को उलटकर देखने से उन पर रोहे दिखाई देते हैं।
अवस्थाएँ
इस रोग की चार अवस्थाएँ होती हैं। पहली अवस्था में श्लेष्मिक कला (कंजंक्टाइवा) एक समान शोथयुक्त और लाल मखमल के समान दिखाई पड़ती है; दूसरी अवस्था में रोहे बन जाते हैं। तीसरी अवस्था में रोहों के अंकुर जाते रहते हैं और उनके स्थान में सौत्रिक धातु बनकर कला में सिकुड़न पड़ जाती है। चौथी और अंतिम अवस्था में उपद्रव (कांप्लिकेशन) उत्पन्न हो जाते हैं, जिनका कारण कार्निया में वाइरस का प्रसार और पलकों की कला का सिकुड़ जाना होता है। अन्य रोगों के संक्रमण (सेकंडरी इनफ़ेक्शन) का प्रवेश बहुत सरल है और प्रायः सदा ही हो जाता है।
इन रोगों के परिणामस्वरूप श्लेष्मकला (कंजंक्टाइवा), कार्निया तथा पलकों में निम्नलिखित दशाएँ उत्पन्न हो जाती हैं:
- (1) परवाल (एंट्रोपियन, ट्रिकिएसिस)-इसमें ऊपरी पलक का उपासिपट्ट (टार्सस) भीतर को मुड़ जाता है; इससे पलकों के बाल भीतर की ओर मुड़कर नेत्रगोलक तथा कार्निया को रगड़ने लगते हैं जिससे कार्निया पर व्रण बन जाते हैं;
- (2) एक्ट्रोपियन-इसमें पलक की छोर बाहर मुड़ जाती है। यह प्रायः नीचे की पलक में होता है;
- (3) कार्निया के व्रणों के अच्छे होने में बने तंतु तथा पैनस के कारण कार्निया अपारदर्शी (ओपेक) हो जाती है;-
- (5) स्टैफीलोमा हो जा सकती है, जिसमें कार्निया बाहर उभड़ आती है; इससे आंशिक या पूर्ण अंधता उत्पन्न हो सकती है;
- (6) जीरोसिस, जिसमें श्लेष्मकला संकुचित और शुष्क हो जाती है एवं उस पर शल्क से बनते लगते हैं;
- (7) यक्ष्मपात (टोसिस), जिसमें पेशोसूत्रों के आक्रांत होने से ऊपर की पलक नीचे झुक आती है और ऊपर नहीं उठ पाती, जिससे नेत्र बंद सा दिखाई पड़ता है।
हेतुकी (ईटियोलॉजी)
रोहे का संक्रमण रोगग्रस्त बालक या व्यक्ति से अँगुली, अथवा तौलिया, रूमाल आदि वस्त्रों द्वारा स्वस्थ बालक में पहुँचकर उसको रोगग्रस्त कर देता है। अस्वच्छता, अस्वस्थ परिस्थितियाँ तथा बलवर्धक भोजन के अभाव से रोगोत्पत्ति में सहायता मिलती है। रोग फैलाने में धूल विशेष सहायक मानी जाती है। इस कारण गाँवों में यह रोग अधिक होता है। उपयुक्त चिकित्सा का अभाव रोग के भयंकर परिणामों का बहुत कुछ उत्तरदायी है।
चिकित्सा
औषधियों और शस्त्रकर्म दोनों प्रकार से चिकित्सा की जाती है। औषधियों में ये मुख्य हैं:- (1) सल्फोनेमाइड की 6 से 8 टिकिया प्रति दिन खाने को। प्रतिजीवी (ऐंटिबायोटिक्स) औषधियों का नेत्र में प्रयोग, नेत्र में डालने के लिए बूँदों के रूप में तथा लगाने के लिए मरहम के रूप में, जिसकी क्रिया अधिक समय तक होती रहती है।
पेनिसिलीन से इस रोग में कोई लाभ नहीं होता; हाँ, अन्य संक्रमण उससे अवश्य नष्ट हो जाते हैं। इस रोग के लिए ऑरोमायसीन, टेरा मायसीन, क्लोरमायसिटीन आदि का बहुत प्रयोग होता है। हमारे अनुभव में सल्फासिटेमाइड और नियोमायसीन दोनों को मिलाकर प्रयोग करने से संतोषजनक परिणाम होते हैं। आईमाइड-मायसिटीन को, जो इन दोनों का योग है, दिन में चार बार, छह से आठ सप्ताह तक, लगाना चाहिए। साथ ही जल में बोरिक एसिड, जिंक और ऐड्रिनेलीन के घोल की बूँदें नेत्र में डालते रहना चाहिए। यदि कार्निया का व्रण भी हो तो इनके साथ ऐट्रोपीन की बूँदें भी दिन में दो बार डालना और बोरिक घोल से नेत्र को धोना तथा उष्म सेंक करना उचित है।
शस्त्रोपचार
शस्त्रोपचार केवल उस अवस्था में करना होता है जब उपर्युक्त चिकित्सा से लाभ नहीं होता।
श्लेष्मकला को ऐनीथेन से चेतनाहीन करके प्रत्येक रोहे की एक चिमटी (फ़ॉरसेप्स) से दबाकर फोड़ा जाता है। इस विधि का बहुत समय से प्रयोग होता आ रहा है और यह उपयोगी भी है। श्लेष्मकला का छेदन केवल दीर्घकालीन रोग में कभी कभी किया जाता है। एंट्रोपियन, एक्ट्रोपियन और कार्निया की श्वेतांकता की चिकित्सा भी शस्त्रकर्म द्वारा की जाती है। श्वेतांक जब मध्यस्थ या इतना विस्तृत होता है कि उसके कारण दृष्टि रुक जाती है तो कार्निया में एक ओर छेदन करके उसमें से आयरिस के भाग को बाहर खींचकर काट दिया जाता है, जिससे प्रकाश के भीतर जाने का मार्ग बन जाता है। इस कर्म को ऑप्टिकल आइरिडेक्टामी कहते हैं।
पैनस के लिए विटामिन-बी2 (राइबोफ्लेवीन) 10 मिलीग्राम, अंतःपेशीय मार्ग से छह या सात दिन तक नित्य प्रतिदिन देना चाहिए। नेत्र को प्रक्षालन द्वारा स्वच्छ रखना आवश्यक है।
नवजात शिशु का अक्षिकोप (ऑप्थैल्मिया नियोनोटेरम)
इस रोग का कारण यह है कि जन्म के अवसर पर माता के संक्रमित जनन मार्ग द्वारा शिशु का सिर निकलते समय उसके नेत्रों में संक्रमण पहुँच जाता है और तब जीवाणु श्लेष्मकला में शोथ उत्पन्न कर देते हैं। इस रोग के कारण हमारे देशवासियों की बहुत बड़ी संख्या जन्म भर के लिए आँखों से हाथ धो बैठती है। यह अनुमान लगाया गया है कि 30 प्रतिशत व्यक्तियों में गोनोकोक्कस, 30 प्रतिशत में स्टैफिलो या स्ट्रेप्टोकोक्कस और शेष में बैसिलस तथा वाइरस के संक्रमण से रोग उत्पन्न होता है। पिछले दस वर्षों में यह रोग पेनिसिलीन और सल्फोनेमाइड के प्रयोग के कारण बहुत कम हो गया है।
लक्षण
जन्म के तीन दिन के भीतर नेत्र सूज जाते हैं और पलकों के बीच से श्वेत मटमैले रंग का गाढ़ा स्राव निकलने लगता है। यदि यह स्राव चौथे दिन के पश्चात् निकले तो समझना चाहिए कि संक्रमण जन्म के पश्चात् हुआ है। पलकों के भीतर की ओर से होने वाले स्राव की एक बूँद शुद्ध की हुई काँच की शलाका से लेकर काँच की स्लाइड पर फैलाकर रंजित करने के पश्चात् सूक्ष्मदर्शी द्वारा उसकी परीक्षा करवानी चाहिए। किंतु परीक्षा का परिणाम जानने तक चिकित्सा को रोकना उचित नहीं है। चिकित्सा तुरंत प्रारंभ कर देनी चाहिए।
प्रतिषेध तथा चिकित्सा
रोग को रोकने के लिए जन्म के पश्चात् ही बोरिक लोशन से नेत्रों को स्वच्छ करके उनमें पेनिसिलीन के एक सी.सी. में 2,500 एककों (यूनिटों) के घोल की बूँदें डाली जाती हैं। यह चिकित्सा इतनी सफल हुई है कि सिल्वर नाइट्रेट का दो प्रतिशत घोल डालने की पुरानी प्रथा अब बिलकुल उठ गई है। पेनिसिलीन की क्रिया सल्फोनेमाइड से भी तीव्र होती है।
चिकित्सा भी पेनिसिलीन से ही की जाती है। पेनिसिलीन के उपर्युक्त शक्ति के घोल की बूँदें प्रति चार या पाँच मिनट पर नेत्रों में तब तक डाली जाती हैं जब तक स्राव निकलना बंद नहीं हो जाता। एक से तीन घंटे में स्राव बंद हो जाता है। दूसरी विधि यह है कि 15 मिनट तक एक एक मिनट पर बूँदें डाली जाएँ और फिर दो दो मिनट पर, तो आध घंटे में स्राव निकलना रुक जाता है। फिर दो तीन दिनों तक अधिक अंतर से बूँदें डालते रहते हैं। यदि कार्निया में व्रण हो जाए तो ऐट्रोपीन का भी प्रयोग आवश्यक है।
चेचक (बड़ी माता, स्मॉल पॉक्स)
इस रोग में कार्निया पर चेचक के दाने उभर आते हैं, जिससे वहाँ व्रण बन जाता है। फिर वे दाने फूट जाते हैं जिससे अनेक उपद्रव उत्पन्न हो सकते हैं। इनका परिणाम अंधता होती है।
दो बार चेचक का टीका लगवाना रोग से बचने का प्रायः निश्चित उपाय है। कितनी ही चिकित्सा की जाए, इतना लाभ नहीं हो सकता।
किंरेटोमैलेशिया
यह रोग विटामिन ए की कमी से उत्पन्न होता है। इस कारण निर्धन और अस्वच्छ वातावरण में रहने वाले व्यक्तियों को यह अधिक होता है। हमारे देश में यह रोग भी अंधता का विशेष कारण है।
यह रोग बच्चों को प्रथम दो वर्षों तक अधिक होता है। नेत्र की श्लेष्मकला (कंजंक्टाइवा) शुष्क हो जाती है। दोनों पलकों के बीच का भाग धुँधला सा हो जाता है और उस पर श्वेत रंग के धब्बे बन जाते हैं जिन्हें बिटौट के धब्बे कहते हैं। कार्निया में व्रण हो जाता है जो आगे चलकर विदार में परिवर्तित हो जाता है। इन उपद्रवों के कारण बच्चा अंधा हो जात है।
ऐसे बच्चों का पालन-पोषण प्रायः उत्तमतापूर्वक नहीं होता, जिसके कारण वे अन्य रोगों के भी शिकार हो जाते हैं और बहुत अधिक संख्या में अपनी जीवन लीला शीघ्र समाप्त कर देते हैं।
चिकित्सा
नेत्र में विटामिन ए या पेरोलीन डालकर श्लेष्मिका को स्निग्ध रखना चाहिए। कार्निया में व्रण हो जाने पर ऐट्रोपीन डालना आवश्यक है।
रोगी को साधारण चिकित्सा अत्यंत आवश्यक है। दूध, मक्खन, फल, शार्क-लिवर या काड-लिवर तैल द्वारा रोगी को विटामिन ए प्रचूर मात्रा में देना तथा रोग की तीव्र अवस्थाओं में इंजेक्शन द्वारा विटामिन ए के 50,000 एकक रोगी के शरीर में प्रति दिन या प्रति दूसरे दिन पहुँचाना इसकी मुख्य चिकित्सा है। रोग के आरंभ में ही यदि पूर्ण चिकित्सा प्रारंभ कर दी जाए तो रोगी के रोगमुक्त होने की अत्यधिक संभावना रहती है।
कुष्ठ
हमारे देश में कुष्ठ (लेप्रोसी) उत्तर प्रदेश, बंगाल और मद्रास में अधिक होता है और अभी तक यह भी अंधता का एक विशेष कारण था। किंतु इधर सरकार द्वारा रोग के निदान और चिकित्सा के विशेष आयोजनों के कारण इस रोग में अब बहुत कमी हो गई है और इस प्रकार कुष्ठ के कारण हुए अंधे व्यक्तियों की संख्या घट गई है।
कुष्ठ रोग दो प्रकार का होता है। एक वह जिसमें तंत्रिकाएँ (नर्व) आक्रांत होती हैं। दूसरा वह जिसमें चर्म के नीचे गुलिकाएँ या छोटी-छोटी गाँठें बन जाती हैं। दोनों प्रकार का रोग अंधका उत्पन्न कर सकता है। पहले प्रकार के रोग में सातवीं या नवीं नाड़ी के आक्रांत होने से ऊपरी पलक की पेशियों की क्रिया नष्ट हो जाती है और पलक बंद नहीं होता। इससे श्लेष्मिका तथा कार्निया का शोथ उत्पन्न होता है, फिर व्रण बनते हैं। उनके उपद्रवों से अंधता हो जाती है। दूसरे प्रकार के रोग में श्लेष्मिका और श्वेतपटल (स्क्लीरा) में शोथ के लक्षण दिखाई देते हैं। भौंह के बाल गिर जाते हैं और उसमें गाँठें सी बन जाती हैं। कार्निया पर श्वेत चूने के समान बिंदु दिखाई देने लगते हैं। पैनस भी बन सकता है। कार्निया में भी शोथ (इंटीस्र्टिशियल किरैटाइटिस) हो जाता है और आयरिस भी आक्रांत हो जाता है (जिसे आयराइटिस कहते हैं)। इसके कारण वह अपने सामने तथा पीछे के अवयवों से जुड़ जाता है।
चिकित्सा
कुष्ठ के लिए सल्फोन समूह की विशिष्ट औषधियाँ हैं। शारीरिक रोग की चिकित्सा के लिए इनको पूर्ण मात्रा में देना आवश्यक है। साथ ही नेत्र रोग की स्थानिक चिकित्सा भी आवश्यक है। जहाँ भी कार्निया या आयरिस आक्रांत हों वहाँ एट्रोपोन की बूँदों या मरहम का प्रयोग करना अत्यंत आवश्यक है। आवश्यक होने पर शस्त्रकर्म भी करना पड़ता है।
उपदंश (सिफिलिस)
इस रोग के कारण नेत्रों में अनेक प्रकार के उपद्रव उत्पन्न हो जाते हैं, जिनका परिणाम अंधता होती है। निम्नलिखित मुख्य दशाएँ हैं:-
क. इंटस्टशियल किरैटाइटिस,
ख. स्क्लीरोजिंग किरैटाइटिस,
ग. आयराइटिस और आइरोडोसिक्लाइटिस,
घ. सिफ़िलिटिक कॉरोइडाइटिस,
ड़. सिफ़िलिटिक रेटिनाइटिस,
च. दृष्टि तंत्रिका (ऑप्टिक नर्व) की सिफिलिस। यह दशा निम्नलिखित रूप ले सकती है:-
- दृष्टिनाड़ी का शोथ (ऑप्टिक न्यूराइटिस)
- पैपिलो-ईडिमा
- गमा
- प्राथमिक दृष्टिनाड़ी का क्षय (प्राइमरी ऑप्टिक ऐट्रोफ़ी)
चिकित्सा
सिफ़िलिस की साधारण चिकित्सा विशेष महत्त्व की है।
(1) पेनिसिलीन इसके लिए विशेष उपयोगी प्रमाणित हुई है। अंतर्पेशीय इंजेक्शन द्वारा 10 लाख एकक प्रति दिन 10 दिन तक दी जाती है।
(2) इसके पश्चात् आर्सनिक का योग (एल.ए.बी.) के साप्ताहिक अंतर्पेशीय इंजेक्शन आठ सप्ताह तक और उसके बीच बीच में बिस्मथ-सोडियम-टारटरेट (बिस्मथ क्रीम) के साप्ताहिक अंतर्पेशीय इंजेक्शन।
- स्थानिक
(1) गरम भीगे कपड़े से सेंक;
(2) कार्टिसोन, एक प्रति शत की बूँदें या 10 मिलीग्राम कार्टिसोन का श्लेष्मकला के नीचे इंजेक्शन;
(3) ऐट्रोपीन, 10 प्रतिशत की बूँदें नेत्र में डालना।
महामारी जलशोथ (एपिडेमिक ड्रॉप्सी)
इसको साधारणतया जनता में बेरीबेरी के नाम से जाना जाता है। सन् 1930 में यह रोग महामारी के रूप में बंगाल में फैला था और बालक, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, सबको समान रूप से हुआ था। इस रोग का एक विशेष उपद्रव समलवाय (ग्लॉकोमा) था। इस रोग में नेत्र के भीतर दाव (टेंशन), बढ़ जाती है और दृष्टि क्षेत्र (फ़ील्ड ऑव विज़न) क्षीण होता जाता है, यहाँ तक कि कुछ समय में वह पूर्णतया समाप्त हो जाता है और व्यक्ति दृष्टिहीन हो जाता है। अंत में दृष्टि-नाड़ी-क्षय (ऑप्टिक ऐट्रोफ़ी) भी हो जाता है। बाहर से देखने में नेत्र सामान्य प्रकार के दिखाई पड़ते हैं, किंतु व्यक्ति को कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।
चिकित्सा
रोग होने पर, नाड़ीक्षय के पूर्व, महामारीशोथ की सामान्य चिकित्सा के अतिरिक्त कार्निया और श्वेतपटल के संगम स्थान (कार्नियो-स्क्लीरल जंक्शन) पर एक छोटा छेद कर दिया जाता है। इसे ट्रिफाइनिंग कहते हैं। इससे नेत्रगोलस के पूर्व कोष्ठ से द्रव्य बाहर निकलता रहता है और श्वेतकला द्वारा सोख लिया जाता है। इस प्रकार नेत्र की दाब बढ़ने नहीं पाती।
समलवाय (ग्लॉकोमा)
अंधता का यह भी बहुत बड़ा कारण है। इस रोग में नेत्र के भीतर की दाब बढ़ जाती है और दृष्टि का क्षय हो जाता है।
यह रोग दो प्रकार का होता है, प्राथमिक (प्राइमरी) और गौण (सेकंडरी)। प्राथमिक को फिर दो प्रकारों में बाँटा जा सकता है, संभरणी (कंजेस्टिव) तथा असंभरणी (नॉन-कंजेस्टिव)। संभरणी प्रकार का रोग उग्र (ऐक्यूट) अथवा जीर्ण (क्रॉनिक) रूप में प्रारंभ हो सकता है। इसके विशेष लक्षण नेत्र में पीड़ा, लालिमा, जलीय स्राव, दृष्टि की क्षीणता, आँख के पूर्वकोष्ठ का उथला हो जाना तथा नेत्र की भीतरी दाब का बढ़ना है। अधिकतर, उग्र रूप में पीड़ा और अन्य लक्षणों के तीव्र होने पर ही रोगी डाक्टर की सलाह लेता है। यदि डाक्टर नेत्र रोगों का विशेषज्ञ होता है तो वह रोग को पहचानकर उसकी उपयुक्त चिकित्सा का आयोजन करता है, जिससे रोगी अंधा नहीं होने पाता। किंतु जीर्ण रूप में लक्षणों के तीव्र न होने के कारण रोगी प्रायः डाक्टर को तब तक नहीं दिखाता जब तक दृष्टिक्षय उत्पन्न नहीं हो पाता, परंतु तब लाभप्रद चिकित्सा की आशा नहीं रहती। इस प्रकार के रोग के आक्रमण रह रहकर होते हैं। आक्रमणों के बीच के काल में रोग के कोई लक्षण नहीं रहते। केवल पूर्वकोष्ठ का उथलापन रह जाता है जिसका पता रोगी को नहीं चलता। इससे रोग के निदान में बहुधा भ्रम हो जाता है।
भ्रम उत्पन्न करने वाला दूसरा रोग मोतियाबिंद है जो साधारणतः अधिक आयु में होता है। जीर्ण प्राथमिक समलवाय भी इसी अवस्था में होता है। इस कारण धीरे-धीरे बढ़ता हुआ दृष्टिह्रास मोतियाबिंद का परिणाम समझा जा सकता है, यद्यपि उसका वास्तविक कारण समलवाय होता है जिसमें शस्त्रकर्म से कोई लाभ नहीं होता।
वृद्धावस्था में दृष्टिह्रास होने पर रोगी की परीक्षा सावधानी से करना आवश्यक है। समलवाय के प्रारंभ में ही छेदन करने से दृष्टिक्षय रोका जा सकता है।
मोतियाबिंद
यह प्रायः वृद्धावस्था का रोग है। इसमें नेत्र के भीतर आइरिस के पीछे स्थित ताल (लेंस) कड़ा तथा अपारदर्शी हो जाता है।
बाहरी कड़ियाँ
- Directgov disabled people - UK govt information
- Access Watch: Blind users review accessibility of mainstream software
- Action for Blind People: UK charity providing free and confidential support for blind and partially sighted people Archived 2010-09-06 at the वेबैक मशीन
- The Chicago Lighthouse for People Who Are Blind or Visually Impaired
- AccessWorld Technology and People Who Are Blind or Visually Impaired
- American Council of the Blind
- American Foundation for the Blind
- Association for the Blind Improving the quality of life for the visually impaired.
- Blind Access Journal: Visual impairment in the real world
- Spoken-Web A free web portal managing a wide range of articles for computer users who are blind or visually impaired.
- Christian Blind Mission
- VISION 2020: The Right to Sight
- International Agency for the Prevention of Blindness (IAPB)
- International Association of Audio Information Services
- International Braille Research Center
- Journal of Visual Impairment & Blindness
- Literature Bibliography and Resources List
- National Braille Press
- National Federation of the Blind: Civil rights and consumer advocacy
- National Library for the Blind
- National Library Service for the Blind and Physically Handicapped
- Recording for the Blind and Dyslexic
- Royal National Institute for the Blind
- Scottish Sensory Centre
- SMCCB Vision Links
- WHO Fact Sheet on Visual Impairment
- Catalan Association for the Blind and Visually Impaired
- Vision Australia
- ↑ "Vision impairment and blindness". www.who.int (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2023-02-28.