अनुच्छेद 23 भारत के संविधान के भाग 3 में शामिल तेईसवाँ अनुच्छेद है जो मानव तस्करी, बेगार और बँधुआ मज़दूर आदि सभी प्रकार के जबरन श्रम को प्रतिबंधित करता है। इस प्रावधान का कोई भी उल्लंघन भारतीय विधि के नज़र में दंडनीय अपराध माना जाता है। यह अधिकार नागरिकों और गैर-नागरिकों दोनों के लिए उपलब्ध है। यह व्यक्तियों को ना केवल राज्य के कार्यों से बल्कि व्यक्तियों के निजी कार्यों के विरुद्ध भी सुरक्षा प्रदान करता है। हालाँकि, इस प्रावधान का एक अपवाद यह है कि राज्य सार्वजनिक उद्देश्यों जैसे सैन्य सेवा, सामाजिक सेवा आदि के लिए अनिवार्य सेवा लागू कर सकता है जिसके लिए श्रमिकों को भुगतान करना आवश्यक नहीं है परंतु ऐसी सेवा लागू करते समय राज्य केवल धर्म, जाति, वर्ग या लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता।[1][2][3][4][5][6][7]
पृष्ठभूमि
मसौदा अनुच्छेद 23 पर 3 दिसंबर 1948 को विधानसभा में चर्चा हुई। इस चर्चा का लक्ष्य था मानव तस्करी और जबरन श्रम पर रोक लगाना। चर्चा के दौरान संविधान सभा के एक सदस्य ने यह प्रस्ताव रखा कि बेगार और मानव तस्करी के उल्लेख के साथ ही इस अनुच्छेद में देवदासी शब्द का भी उल्लेख किया जाना चाहिए, जो युवतियों को धर्म और आस्था के नाम पर वेश्यावृत्ति में शामिल करने की एक सामाजिक कुप्रथा को इंगित करता है। हालाँकि संविधान सभा के एक दूसरे सदस्य का तर्क था कि इस प्रथा को सामान्य कानून के माध्यम से मिटाया जा सकता है। इसके साथ ही मसौदा अनुच्छेद का उद्देश्य केवल उन सामाजिक कुप्रथाओं पर रोक लगाना था जिनमें निजी स्वार्थ शामिल हो इसलिए यह संशोधन अस्वीकार कर दिया गया और 3 दिसंबर 1948 को एक मामूली संशोधन के साथ इस मसौदा अनुच्छेद को अपना लिया गया।[1]
मूल पाठ
“ | - (1) मानव का पण्य और बेट बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य जबर्दस्ती लिया हुआ श्रम प्रतिषिद्ध किया जाता है और इस उपबन्ध का कोई भी उल्लंघन अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा।
- (2) इस अनुच्छेद की किसी बात से राज्य को सार्वजनिक प्रयोजन के लिये बाध्य सेवा लागू करने में रुकावट न होगी। ऐसी सेवा लागू करने में केवल धर्म, मूलवंश, जाति या वर्ग या इन में से किसी के आधार पर राज्य कोई विभेद नहीं करेगा।[8]
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“ | - (1) Traffic in human beings and beggar and other similar forms of forced labour are prohibited and any contravention of this provision shall be an offence punishable in accordance with law.
- (2) Nothing in this article shall prevent the State from imposing compulsory service for public purpose, and in imposing such service the State shall not make any discrimination on grounds only of religion, race, caste or class or any of them.[9]
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सन्दर्भ
टिप्पणी
बाहरी कड़ियाँ