अंतराबंध
मनोविदलिता या अंतराबंध (स्किज़ोफ़्रीनीया / Schizophrenia) कई मानसिक रोगों का समूह है जिनमें बाह्य परिस्थितियों से व्यक्ति का संबंध असाधारण हो जाता है। कुछ समय पूर्व लक्षणों के थोड़ा-बहुत विभिन्न होते हुए भी रोग का मौलिक कारण एक ही माना जाता था। किंतु अब प्रायः सभी सहमत हैं कि अंतराबंध जीवन की दशाओं की प्रतिक्रिया से उत्पन्न हुए कई प्रकार के मानसिक विकारों का समूह है। अंतराबंध को अंग्रेजी में डिमेंशिया प्रीकॉक्स (Dementia praecox) भी कहते हैं।
अंतराबंध की गणना बड़े मनोविकारों में की जाती है। मानसिक रोगों के अस्पतालों में 55 प्रतिशत इस रोग के रोगी पाए जाते हैं और प्रथम बार आने वालों में ऐसे रोगी 25 प्रतिशत से कम नहीं होते। इस रोग की चिकित्सा में बहुत समय लगने से इस रोग के रोगियों की संख्या अस्पतालों में उत्तरोत्तर बढ़ती रहती है। यह अनुमान लगाया गया है कि साधारण जनता में से दो से तीन प्रतिशत व्यक्ति इस रोग से ग्रस्त होते हैं। पुरुषों में 20 से 24 वर्ष तक और स्त्रियों में 35 से 39 वर्ष तक की आयु में यह रोग सबसे अधिक होता है। अस्पतालों में भर्ती हुए रोगियों में से 40 प्रतिशत शीघ्र ही नीरोग हो जाते हैं। शेष 60 को जीवनपर्यंत या बहुत वर्षों तक अस्पताल ही में रहना पड़ता है।
अंतराबन्ध के रूप
इस रोग के प्रायः चार रूप पाए जाते हैं:
(1) सामान्य रूप में व्यक्ति अपनी चारों ओर की परिस्थितियों से अपने को धीरे-धीरे खींच लेता है, अर्थात् अपने सुहृदों, मित्रों तथा व्यवसाय से, जिनसे वह पहले प्रेम करता था, उदासीन हो जाता है।
(2) दूसरे रूप में, जिसकी यौवनमनस्कता (हीबे फ़्रीनिया / hebephrenia) कहते हैं, रोगी के विचार तथा कर्म भ्रम पर आधारित होते हैं। यह रोग साधारणतः युवावस्था में होता है।
(3) तीसरे रूप में उसके मस्तिष्क का अंग-संचालक-मंडल विकृत हो जाता है। या तो उसके अंगों की गति अत्यंत शिथिल हो जाती है, यहाँ तक कि वह मूढ़ और निश्चेष्ट सा पड़ा रहता है, या वह अति प्रचंड हो जाता है और भागने, दौड़ने, लड़ने, आक्रमण करने या हिंसात्मक क्रियाएँ करने लगता है।
(4) चौथा रूप अधिक आयु में प्रकट होता है और विचार संबंधी होता है। रोगी अपने को बहुत बड़ा व्यक्ति मानता है, या समझता है कि वह किसी के द्वारा सताया जा रहा है।
कितनी ही बार रोगी में एक से अधिक रूप मिले हुए पाए जाते हैं। न केवल यही, प्रत्युत अन्य मानसिक रोगों के लक्षण भी अंतराबंध के लक्षणों के साथ प्रकट हो जाते हैं।
कारण
रोग के कारण के संबंध में बहुत प्रकार के सिद्धांत बनाए गए जो शारीरिक रचना, जीवरसायन अथवा मानसिक विकृतियों पर आश्रित थे। किंतु अब यह सर्वमान्य मत है कि इस रोग का कारण व्यक्ति की अपने को सांसारिक दशाओं तथा चारों ओर की परिस्थितियों के समानुकूल बनाने की असमर्थता है। व्यक्ति में शैशव काल से ही कोई हीनता या दीनता का भाव इस प्रकार व्याप्त हो जाता है कि फिर जीवन भर उसको दूर नहीं कर पाता। इसके कारण शारीरिक अथवा मानसिक दोनों होते हैं। बहुतेरे विद्वान यह मानते हैं कि व्यक्ति के जीवन के आरंभिक वर्षों में पारिवारिक संबंध इस दशा का कारण होते हैं; विशेषकर माता का शिशु के साथ कैसा व्यवहार होता है उसी के अनुसार या तो यह रोग होता है या नहीं होता। शिशु की ऐसे धारणा बनना कि कोई उससे प्रेम नहीं करता या वह अवांछित शिशु है, रोगोत्पत्ति का विशेष कारण होता है। कुछ विद्वान यह भी मानते हैं कि शरीर में उत्पन्न हुए जीवविष (टॉक्सिन) मनोविकार उत्पन्न करने के बहुत बड़े कारण होते हैं। वे शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के कारणों को मौलिक कारण समझते हैं।
चिकित्सा
पहले रोग की चिकित्सा आशाजनक नहीं समझी जाती थी। किंतु अब मनोविश्लेषण से चिकित्सा में सफलता की आशा होने लगी है। ऐसे रोगियों के लिए विशेष चिकित्सालयों और मनोवैज्ञानिकों की आवश्यकता होती है। औषधियों का भी प्रयोग होता है। इंस्युलिन तथा विद्युत द्वारा आक्षेप उत्पन्न करना भी उपयोगी पाया गया है। विशेष आवश्यकता इसकी रहती है कि रोगी को पुरानी परिस्थितियों से हटा दिया जाए। विशेष व्यायाम तथा ऐसे काम-धंधों का भी, जिनमें मन लगा रहे, उपयोग किया जाता है। रोग जितने ही कम समय का और हलका होगा उतने ही शीघ्र रोग से मुक्ति की आशा की जा सकती है। चिरकालीन रोगों में रोग मुक्ति कठिन होती है।
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
- NPR: the sight and sounds of schizophrenia
- The current World Health Organisation definition of Schizophrenia
- Symptoms in Schizophrenia Film made in 1940 showing some of the symptoms of Schizophrenia.